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मनुष्य पर निबंध (Man Essay in Hindi)

Man

हम सब मनुष्य शब्द को समझते हैं। यह एक परिचित शब्द है जिसे आमतौर पर प्रयोग किया जाता है। लेकिन क्या हम वास्तव में जानते हैं कि कैसे मनुष्य या मानव प्रजातियां अस्तित्व में आईं और कैसे यह बीतने के साथ विकसित हुई? जैसा कि आज हम देखते हैं मनुष्य उस विकास का नतीजा है जो बीते लाखों वर्षों में हुआ है। मनुष्य को पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान प्राणी कहा जाता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं इसने जीवन को आरामदायक और मूल्यवान बनाने के लिए इतनी सारी चीजों का अविष्कार किया है।

मनुष्य पर लंबे और छोटे निबंध (Long and Short Essay on Man in Hindi, Manushya par Nibandh Hindi mein)

निबंध 1 (300 शब्द).

मनुष्य ने हमेशा समूह में रहने को प्राथमिकता दी है। आदम के ज़माने से मनुष्य समूह में रहा है। इससे वह सुरक्षित महसूस करता था और जंगली जानवरों से खुद को बचाता भी था। यह एक ऐसा मानवीय व्यवहार है जो समय के साथ कभी नहीं बदला। लोग अभी भी सामाजिकता से प्यार करते हैं। समाज, परिवार और संस्कृति मनुष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।

मनुष्य एक सामाजिक पशु है

एक महीने के लिए आदमी को अकेला छोड़ दें और फिर देखें कि उसके साथ क्या होता है। वह अकेलेपन और अवसाद से पीड़ित हो जाएगा और इसके कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बीमारियां भी पैदा हो जाएँगी। एक आदमी के लिए अकेला रहना संभव नहीं है। मनुष्य हमेशा से एक सामाजिक पशु रहा है। वह आसपास के लोगों से प्यार करता है। अपने दोस्तों और परिवार के सदस्यों के साथ अपने विचार साझा करना, उनके साथ समय व्यतीत करना और उनके साथ अलग-अलग गतिविधियों में शामिल होने से उन्हें अच्छा महसूस होता है और उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का भाव मिलता है।

पहले के समय में भारत के लोग संयुक्त परिवारों में रहते थे। संयुक्त परिवार प्रणाली के कई फायदे थे। यह बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए अच्छा था। यह बुजुर्गों के लिए भी अच्छा साबित हुआ पर हाल ही में संस्कृति में बहुत बदलाव हुआ है। युवा पीढ़ी की सोच अलग है और विभिन्न कारणों से वह स्वतंत्र भी रहना चाहती है।

आज जहाँ युवा पीढ़ी अपनी गोपनीयता चाहती है और अपने तरीके से काम करना चाहती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें अपने आसपास लोगों की आवश्यकता महसूस नहीं होती है। उनके पास ऐसा करने के अपने स्वयं के तरीके हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और सोशल नेटवर्किंग साइटों को इतनी लोकप्रियता नहीं मिली होती।

मानव मन और मानव बुद्धि तेज़ी से बढ़ रही है पर अगर कोई चीज स्थिर है तो वह है सकुशल और सुरक्षित महसूस करने की आवश्यकता। प्रियजनों के साथ संपर्क में रहने से और उनके हमारे साथ रहने से सुरक्षा की यह भावना आती है।

निबंध 2 (400 शब्द)

भगवान ने सभी मनुष्यों को समान रूप से बनाया है। ईश्वर ने ही मनुष्य के अस्तित्व के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार किया है। हालांकि मनुष्य की हरकतों ने इन दोनों में गड़बड़ी पैदा कर दी है। पुरुषों ने अपनी सीमाएं बनाईं और अपने धर्म, जाति, पंथ, आर्थिक स्थिति और पता नहीं क्या क्या के आधार पर कई मतभेदों को जन्म दिया। वह अपने कद और स्तर के लोगों के साथ मिलना-जुलना पसंद करता है और अपने से नीचे स्तर के लोगों की अनदेखी करता है। मानव द्वारा इस्तेमाल में लाई जाने वाली प्रौद्योगिकी की प्रगति ने पर्यावरण के सामान्य कामकाज में हस्तक्षेप किया है जिससे यह विनाश के कगार पर पहुँच गई है।

मानव और संस्कृति

आदमी की परवरिश पर संस्कृति का बड़ा प्रभाव होता है। यह काफी हद तक एक व्यक्ति के दिमाग और संपूर्ण व्यक्तित्व के आकार को प्रभावित करती है। यही कारण है कि विभिन्न संस्कृतियों के लोगों की अलग-अलग सोच होती है। एक चीज या स्थिति जो एक संस्कृति से संबंधित लोगों को सामान्य दिखाई देती है वह दूसरों को बिल्कुल विचित्र लग सकती है। भारत के लोगों के मन में उनकी संस्कृति के लिए उच्च सम्मान है। भारतीय अपने बड़ों का आदर करने और उनके आदेशों का पालन करने में विश्वास करते हैं। विदेशी राष्ट्रों के विपरीत भारत में बच्चे अपने माता-पिता के साथ रहते हैं चाहे वे वयस्क ही क्यों ना हो जाएँ।

भारतीय खुले दिल से सभी का स्वागत करते हैं और अन्य धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं का सम्मान करते हैं। विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग यहां शांति और सद्भाव में रहते हैं। इसी तरह अन्य संस्कृतियों के लोग भी अपने मूल्यों से जुड़े रहते हैं जो उनके व्यक्तित्व और सोच को सही आकार देने में सहायता करती है।

मनुष्य और पर्यावरण

जहाँ एक तरफ मानव जीवन में सुधार हुआ है और विभिन्न तरीकों से प्रगति भी हुई है लेकिन इस प्रगति के कई नकारात्मक नतीजे भी हैं। इनमें से एक पर्यावरण पर इसके प्रभाव है। औद्योगिक क्रांति समाज के लिए वरदान साबित हुई है। कई लोगों को नौकरी मिल गई और कई नए उत्पादों का मनुष्य के जीवन को आरामदायक बनाने के लिए उत्पादन किया गया। तब से कई उद्योग स्थापित किए गए हैं। हमारे उपयोग के लिए कई उत्पादों का प्रत्येक दिन निर्माण किया जा रहा है। हमारी जीवनशैली का स्तर बढ़ाने के लिए इन उद्योगों में दोनों दिन-प्रतिदिन की वस्तुएं और लक्जरी वस्तुओं का उत्पादन किया जा रहा है। जैसे-जैसे जीवन शैली का स्तर बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे पृथ्वी पर जीवन का स्तर बिगड़ता जा रहा है। उद्योगों और वाहनों की बढ़ती संख्या ने हवा, पानी और भूमि प्रदूषण को बढ़ा दिया है।

यह प्रदूषण पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ रहा है। प्रदूषण को बढ़ाने के लिए कई अन्य मानव अभ्यास भी योगदान दे रहे हैं। इससे जैव विविधता प्रभावित हुई है और यह मनुष्य के साथ-साथ अन्य जीवित प्राणियों में भी कई बीमारियों को पैदा कर रहा है।

यह सही समय है जब आदमी को रूक कर यह सोचना चाहिए कि वह कहाँ जा रहा है। यह हमारी संस्कृति की ओर वापिस जाने और पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने का समय है। यदि हमारी कार्यवाही इसी तरह जारी रही तो हमारा ग्रह रहने लायक नहीं बचेगा।

Essay on Man in Hindi

निबंध 3 (500 शब्द)

मनुष्य की गिनती सबसे बुद्धिमान प्राणी के रूप में होती है। पृथ्वी पर मौजूद अन्य जानवरों के विपरीत मनुष्य कई प्रकार की गतिविधियों में शामिल होता है जो उसे मानसिक रूप से विकसित होने में मदद करती है और उसकी शारीरिक कल्याण को भी प्रभावित करती है। ईश्वर ने इंसान को बुद्धि दी है और उसने अपने जीवन को सहज बनाने के लिए इसका पूरा उपयोग किया है।

आदि काल का मनुष्य

आज का जीवन हम जिस तरह से जीते है वह उस जीवन से पूरी तरह से भिन्न है जो मनुष्य हजारों साल पहले जीता था। प्राचीन काल या पाषाण युग, लगभग 20 लाख वर्ष पहले का समय, में मनुष्य जंगली जानवरों के बीच जंगलों में रहता था। भोजन खोजने के लिए संघर्ष करते हुए उसने जंगली जानवरों का शिकार किया, मछलियों और पक्षियों को पकड़ा और अपनी भूख को बुझाने के लिए उन्हें खाया। वह फल, सब्जियों और पत्तियों के लिए पेड़ों पर चढ़ा। इस प्रकार आदि काल के मनुष्य को शिकारी-संग्रहकर्ता के रूप में भी जाना जाता है। वह गुफाओं में रहता था और जानवरों की खाल तथा पत्तियों से बने कपड़े पहनता था। आधुनिक समय व्यक्ति की तरह उस ज़माने का व्यक्ति भी अपने परिजनों के साथ रहना पसंद करता था।

आदि काल का मनुष्य अक्सर भोजन की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान भटकता रहता था और उन जगहों पर बस जाता था जहां नज़दीक ही नदी या पानी हो। वह एक जगह से दूसरी जगह तभी जाता था जब उसके स्थान पर सारे भोजन के स्रोत खत्म हो जाते थे। पशु और पक्षी भी आम तौर पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे। चूंकि आदि काल के मनुष्य के लिए भोजन का मुख्य स्रोत जानवर थे इसलिए वह भी उनके साथ चला जाता था। इसके अलावा अलग-अलग पेड़ और पौधें भी विभिन्न मौसमों में फलों और सब्जियों को पैदा करते थे। इस प्रकार आदि काल का मनुष्य भी मौसम के अनुसार चलता था। वह समूहों में इसलिए चलता था क्योंकि इससे उसे सुरक्षा की भावना मिलती थी।

शुरुआती समय में पैदल चलने वाले आदमी ने जल्दी ही पहिये का अविष्कार किया और लंबी दूरी की यात्रा करने के लिए बैल-गाड़ी का निर्माण किया। उसने पत्थर और लकड़ी की मदद से कई उपकरण भी तैयार किए।

मध्यकाल का मनुष्य

मानव जाति के विकास के रूप में मनुष्य ने गुफा से निकालकर अपने लिए घरों का निर्माण किया। जल्द ही विभिन्न मानव सभ्यताओं का गठन हुआ। जीवन को बेहतर बनाने के लिए नई चीजों का निर्माण करने हेतु मनुष्य का ध्यान भोजन के लिए शिकार से दोस्सरी चीजों की ओर स्थानांतरित हो गया। यह एक नए युग की शुरुआत थी और इस युग में रहने वाले पुरुषों को मध्यकाल का मनुष्य कहा जाने लगा। इसी दौरान शारीरिक गुणों और साथ ही मनुष्य की सोच के स्तर में पाषाण युग के मनुष्य की तुलना में बहुत अधिक विकास हुआ।

आधुनिक काल का मनुष्य और उसके बाद का मनुष्य

जीवन शैली, संस्कृति और अन्य पहलुओं का विकास हुआ और उसके बाद के मनुष्य को आधुनिक काल के मनुष्य के रूप में जाना जाने लगा। मनुष्य के विकास ने उसे आधुनिक मानव का नाम दिया। आधुनिक काल का मनुष्य दिखने, व्यवहार और मानसिक क्षमता के मामले में आदी काल के मनुष्य से काफी अलग है। कुछ मानवीय हस्तक्षेपों और कई प्राकृतिक कारकों की वजह से इतने सारे परिवर्तन मनुष्य की जिंदगी में आए।

मनुष्य का विकास हुआ और जिस तरह से वह शुरुआती समय में रहता था अब वह उससे बिल्कुल अलग है। शुरुआती समय का आदमी निश्चित रूप से शारीरिक रूप से मजबूत था और आधुनिक समयके मानव की तुलना में अधिक फिट भी था। हालांकि अगर मानसिक पहलू की बात करे तो यह समय के साथ कई गुना बढ़ गया है। मानव मस्तिष्क शक्ति बढ़ी है और लगातार अभी भी बढ़ रही है। जो आविष्कार हमने किए हैं उनके द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है। जिस तरह से पाषाण युग में मनुष्य रहता था उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

निबंध 4 (600 शब्द)

मनुष्य को जैसा आज हम देखते हैं यह विकास के लाखों वर्षों का परिणाम है। हम और कोई नहीं बल्कि इस विशाल ब्रह्मांड का एक छोटा सा हिस्सा हैं जिसके चीजों को एकसाथ रखने और समय-समय पर परिवर्तन लाने के अपने रहस्यमय तरीके हैं।

मनुष्य का विकास

कहा जाता है कि मनुष्य के पूर्वज बंदर जैसे दिखते थे जिनसे वह विकसित हुआ है। चिम्पांजी और गोरिल्ला हमारे निकटतम रिश्तेदार हैं। बहुतायत में इस पर शोध किया गया है कि मनुष्य का विकास कैसे हुआ और विभिन्न शोधकर्ताओं के अलग-अलग सिद्धांतों के नतीज़े काफी हद तक एक समान हैं। सभी सिद्धांतों में चार्ल्स डार्विन द्वारा का सिद्धांत बहुत लोकप्रिय है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द ओरिजिन ऑफ़ स्पेसिज’ में विस्तार से इंसान के विकास को वर्णित किया है जो 1859 में प्रकाशित हुई थी। डार्विनवाद सिद्धांत के अलावा विकास के सिंथेटिक और लैमेरिक सिध्द सिद्धांत ने भी लोगों का बहुत ध्यान खींचा है। हालांकि इस विषय पर शोध अभी भी चल रहा है और कई नए निष्कर्ष हर बार प्राप्त किए जाते हैं।

मानव प्रजातियां बंदर से आदमी के रूप तक जाने के समय में काफ़ी विकसित हुई है। इससे पहले मनुष्य कद-काठी काफी बड़ी थी, बड़े कान, तेज दांत और मोटी त्वचा। वह आज की तरह दिखने वाले मनुष्य से पूरी तरह अलग दिखता था। सदियों से मनुष्य लगातार विकसित हुआ और अभी भी शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से विकसित हो रहा है।

मनुष्य के विकास पर नए निष्कर्ष

वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं का दावा है कि मनुष्य का विकास अभी भी हो रहा है और 2050 तक एक नई प्रकार की मानव प्रजातियां अस्तित्व में आ जाएंगी। मनुष्य की औसत आयु 100-120 साल तक बढ़ने की संभावना है। ऐसा भी कहा जा रहा है कि मानव प्रजाति बुढ़ापे में भी बच्चों को जन्म देने में सक्षम हो जाएगी।

अगर हम खुद को देखें तो पता चलेगा कि हम बहुत बदल चुके हैं, विकसित हुए हैं और पिछली शताब्दी में रहने वाले लोगों से काफी अलग भी हैं। उस समय के लोग कृषि गतिविधियां करते हुए विकसित हुए थे जिसमें शारीरिक श्रम शामिल था। इन गतिविधियों में नियमित व्यायाम होने के कारण उनकी अच्छी कद-काठी हुआ करती थी। वे घी, तेल और चीनी से लिप्त अच्छा भोजन खाते थे और कष्टदायक कार्यों में शामिल होते थे। यहां तक ​​कि उन्होंने सारी उम्र बड़ी मात्रा में घी और चीनी खाई तब भी उन्हें दिल की समस्या, मधुमेह, उच्च रक्तचाप आदि जैसी बीमारियां नहीं छू पाई क्योंकि वे मेहनत करने में पसीना बहाते थे। उद्योगों में विकास से इनमें नौकरी कर रहे व्यक्तियों की प्रकृति में बड़ा बदलाव आया है। आज कल के युवा शारीरिक रूप से कमजोर हो गए हैं क्योंकि वे मेज-कुर्सी पर बैठकर नौकरी करना अधिक पसंद करते हैं  जहाँ शारीरिक गतिविधियां ना के बराबर है। ऐसी कई बीमारियां देखने को मिली हैं जिन्हें पिछली शताब्दी में कभी सुना भी नहीं था।

प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रगति की वजह से ज्यादातर लोग दिन के अधिकांश समय अपने फोन से चिपके रहते हैं। अपने बगल में बैठे लोगों को नजरअंदाज करते हुए लोग अक्सर चैटिंग करना या वीडियो देखना पसंद करते हैं। यह भी विकास का ही एक हिस्सा है। जिस तरह से यह विकसित हो रहा है उसका लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ रहा है।

जैसे लोग इन दिनों मोबाइल फोन और टैब पर अपना अधिकांश समय बिताते हैं वैसे ही 2050 तक लोग आभासी वास्तविकता में अपना सबसे अधिक समय खर्च करेंगे। ऐसा कहा जा रहा है कि मनुष्य निकट भविष्य में कृत्रिम बुद्धि पर भरोसा करेगा और रोबोटों द्वारा उसके दिन-प्रतिदिन के अधिकांश कार्य पूरे होंगे।

प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रगति के कारण ये सभी महत्वपूर्ण परिवर्तन होंगे। मनुष्यों के जीवन का तरीका पूरी तरह बदल जाएगा।

मनुष्य का विकास वास्तव में एक चमत्कार है। प्रारंभ में प्रकृति ने मनुष्य के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। आने वाले वर्षों में ऐसा लगता है कि मनुष्य खुद अपनी इंटेलिजेंस के माध्यम से आगे के विकास के लिए जिम्मेदार होगा। समय के बदलने की संभावना है और हम आशा करते हैं कि जो भी बदलाव हो वह अच्छे के लिए हो।

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मन के हारे हार है, मन के जीते जीत Man Ke Haare Haar - Man ke Jeete Jeet

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत Man Ke Haare Haar – Man ke Jeete Jeet

इस लेख में जानें और पढ़ें ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ पंक्ति पर निबंध Essay on ‘Man Ke Haare Haar, Man ke Jeete Jeet’.

लम्बी टाँगे हो जाने से, सफर नहीं कटता है जो मन से लंगड़ा हो जाये, उसे कौन चला सकता है

मनुष्य जीवन में विभिन्न तरह की परिस्थितियां आ सकती हैं। जिनका मनुष्य को सामना करना ही पड़ता है। परिस्थितियां कई तरह की हो सकती हैं – अच्छी या बुरी, हार या जीत आदि। मनुष्य जीवन भर अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु लगा रहता है। लेकिन वे उद्देश्य पूरे न हो पाएं तो वह निराश हो जाता है और वह अपने आप को असफल मान लेता है।

मनुष्य के जीवन में कई सारी ऐसी अवस्थाएं आती हैं जिसमें वह हताश हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह बिना किसी प्रयास के ही हार मान लेता है। किसी भी समस्या का हल हार मान लेने से तो नहीं निकलता। इसीलिए हमें हमेशा अपने कार्यों को सुचारु रूप से करते रहना चाहिए चाहे हमें जितनी भी असफलताएं मिले।

बार-बार असफल होने वाला व्यक्ति ही कोशिश करने पर सबसे बड़ी सफलता प्राप्त कर सकता है। अगर आप इस सोच के साथ जीते हो कि सफलता अवश्य मिलेगी तो आपको सफलता जरूर मिलेगी, लेकिन आप पहले से ही अगर हार मान लोगे तो आप अपना बेस्ट देने में भी असक्षम हो जाओगे।

अर्थात यह जीवन अमूल्य है, जीवन में अगर कोई विपत्ति या परेशानी आ भी जाए तो निराश होने की आवश्यकता नहीं है। इस तरह हार मान लेने से आप अगर निराश होते हो तो यह मानव जीवन व्यर्थ चला जाता है। अपने मानव मूल्यों को आपको समझना चाहिए। अगर आप हार मान कर बैठ जायेंगे तो आप कार्यो को सही ढंग से नहीं कर पाएंगे।

सोचना एक स्टेट ऑफ़ माइंड है। कुछ ऐसी घटनाओं को यहाँ बताया जा रहा है जिससे आप समझ सकते हैं कि ये सिर्फ आपकी मनोवृत्ति है। आप सोचिये कि आप गहरी नींद में हैं और एक सांप आपके पास से होकर निकल गया है।

अब दूसरा उदहारण – एक बार की बात है किसी बस में बहुत से यात्री सफर कर रहे थे। बस ठसा – ठस यात्रियों से भरी हुई थी। उसमें एक ब्राह्मण भी था जो खड़े होकर सफर कर रहा था। चूँकि बस बहुत भरी हुई थी तो उन्ही से सट कर खड़े हुए सह यात्री को किसी ने उसके नाम से आवाज़ लगाई।

अगर जीवन में कभी आप हार जाये तो निराश होने की आवश्यकता नहीं क्योंकि हार और जीत लगी ही रहती है। सफलता के साथ-साथ आपको असफलता का अनुभव होना भी जरुरी है। क्योंकि तभी आप एक पूर्ण व्यक्ति बन सकते हैं। और वैसे भी सफल-असफल जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं है। सिर्फ एक मन का सोचना है इसीलिए सदा अपने अंदर सकारात्मक सोच को बनाये रखिये।

कहानी से समझें – कैसे (मन के हारे हार है, मन के जीते जीत) है

essay on man summary in hindi

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An Essay on Man

“Is the great chain, that draws all to agree, And drawn supports, upheld by God, or Thee?” – Alexander Pope (From “An Essay on Man”)

“Then say not Man’s imperfect, Heav’n in fault; Say rather, Man’s as perfect as he ought.” – Alexander Pope (From “An Essay on Man”)

“All are but parts of one stupendous whole, Whose body Nature is, and God the soul.” – Alexander Pope (From “An Essay on Man”)

Original Publication of “An Essay on Man”

Awake, my St. John! leave all meaner things

To low ambition, and the pride of kings., let us (since life can little more supply, than just to look about us and die), expatiate free o’er all this scene of man;, a mighty maze but not without a plan;, a wild, where weed and flow’rs promiscuous shoot;, or garden, tempting with forbidden fruit., together let us beat this ample field,, try what the open, what the covert yield;, the latent tracts, the giddy heights explore, of all who blindly creep, or sightless soar;, eye nature’s walks, shoot folly as it flies,, and catch the manners living as they rise;, laugh where we must, be candid where we can;, but vindicate the ways of god to man. (pope 1-16), background on alexander pope.

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Alexander Pope is a British poet who was born in London, England in 1688 (World Biography 1). Growing up during the Augustan Age, his poetry is heavily influenced by common literary qualities of that time, which include classical influence, the importance of human reason and the rules of nature. These qualities are widely represented in Pope’s poetry. Some of Pope’s most notable works are “The Rape of the Lock,” “An Essay on Criticism,” and “An Essay on Man.”

Overview of “An Essay on Man”

“The Great Chain of Being”

“An Essay on Man” was published in 1734 and contained very deep and well thought out philosophical ideas. It is said that these ideas were partially influenced by his friend, Henry St. John Bolingbroke, who Pope addresses in the first line of Epistle I when he says, “Awake, my St. John!”(Pope 1)(World Biography 1) The purpose of the poem is to address the role of humans as part of the “Great Chain of Being.” In other words, it speaks of man as just one small part of an unfathomably complex universe. Pope urges us to learn from what is around us, what we can observe ourselves in nature, and to not pry into God’s business or question his ways; For everything that happens, both good and bad, happens for a reason. This idea is summed up in the very last lines of the poem when he says, “And, Spite of pride in erring reason’s spite, / One truth is clear, Whatever IS, is RIGHT.”(Pope 293-294) The poem is broken up into four epistles each of which is labeled as its own subcategory of the overall work. They are as follows:

  • Epistle I – Of the Nature and State of Man, with Respect to the Universe
  • Epistle II – Of the Nature and State of Man, with Respect to Himself, as an Individual
  • Epistle III – Of the Nature and State of Man, with Respect to Society
  • Epistle IV – Of the Nature and State of Man with Respect to Happiness

Epistle 1 Intro In the introduction to Pope’s first Epistle, he summarizes the central thesis of his essay in the last line. The purpose of “An Essay on Man” is then to shift or enhance the reader’s perception of what is natural or correct. By doing this, one would justify the happenings of life, and the workings of God, for there is a reason behind all things that is beyond human understanding. Pope’s endeavor to highlight the infallibility of nature is a key aspect of the Augustan period in literature; a poet’s goal was to convey truth by creating a mirror image of nature. This is envisaged in line 13 when, keeping with the hunting motif, Pope advises his reader to study the behaviors of Nature (as hunter would watch his prey), and to rid of all follies, which we can assume includes all that is unnatural. He also encourages the exploration of one’s surroundings, which provides for a gateway to new discoveries and understandings of our purpose here on Earth. Furthermore, in line 12, Pope hints towards vital middle ground on which we are above beats and below a higher power(s). Those who “blindly creep” are consumed by laziness and a willful ignorance, and just as bad are those who “sightless soar” and believe that they understand more than they can possibly know. Thus, it is imperative that we can strive to gain knowledge while maintaining an acceptance of our mental limits.

1. Pope writes the first section to put the reader into the perspective that he believes to yield the correct view of the universe. He stresses the fact that we can only understand things based on what is around us, embodying the relationship with empiricism that characterizes the Augustan era. He encourages the discovery of new things while remaining within the bounds one has been given. These bounds, or the Chain of Being, designate each living thing’s place in the universe, and only God can see the system in full. Pope is adamant in God’s omniscience, and uses that as a sure sign that we can never reach a level of knowledge comparable to His. In the last line however, he questions whether God or man plays a bigger role in maintaining the chain once it is established.

2. The overarching message in section two is envisaged in one of the last couplets: “Then say not Man’s imperfect, Heav’n in fault; Say rather, Man’s as perfect as he ought.” Pope utilizes this section to explain the folly of “Presumptuous Man,” for the fact that we tend to dwell on our limitations rather than capitalize on our abilities. He emphasizes the rightness of our place in the chain of being, for just as we steer the lives of lesser creatures, God has the ability to pilot our fate. Furthermore, he asserts that because we can only analyze what is around us, we cannot be sure that there is not a greater being or sphere beyond our level of comprehension; it is most logical to perceive the universe as functioning through a hierarchal system.

3. Pope utilizes the beginning of section three to elaborate on the functions of the chain of being. He claims that each creatures’ ignorance, including our own, allows for a full and happy life without the possible burden of understanding our fates. Instead of consuming ourselves with what we cannot know, we instead should place hope in a peaceful “life to come.” Pope connects this after-life to the soul, and colors it with a new focus on a more primitive people, “the Indian,” whose souls have not been distracted by power or greed. As humble and level headed beings, Indian’s, and those who have similar beliefs, see life as the ultimate gift and have no vain desires of becoming greater than Man ought to be.

4. In the fourth stanza, Pope warns against the negative effects of excessive pride. He places his primary examples in those who audaciously judge the work of God and declare one person to be too fortunate and another not fortunate enough. He also satirizes Man’s selfish content in destroying other creatures for his own benefit, while complaining when they believe God to be unjust to Man. Pope capitalizes on his point with the final and resonating couplet: “who but wishes to invert the laws of order, sins against th’ Eternal Cause.” This connects to the previous stanza in which the soul is explored; those who wrestle with their place in the universe will disturb the chain of being and warrant punishment instead of gain rewards in the after-life.

5. In the beginning of the fifth stanza, Pope personifies Pride and provides selfish answers to questions regarding the state of the universe. He depicts Pride as a hoarder of all gifts that Nature yields. The image of Nature as a benefactor and Man as her avaricious recipient is countered in the next set of lines: Pope instead entertains the possible faults of Nature in natural disasters such as earthquakes and storms. However, he denies this possibility on the grounds that there is a larger purpose behind all happenings and that God acts by “general laws.” Finally, Pope considers the emergence of evil in human nature and concludes that we are not in a place that allows us to explain such things–blaming God for human misdeeds is again an act of pride.

6. Stanza six connects the different inhabitants of the earth to their rightful place and shows why things are the way they should be. After highlighting the happiness in which most creatures live, Pope facetiously questions if God is unkind to man alone. He asks this because man consistently yearns for the abilities specific to those outside of his sphere, and in that way can never be content in his existence. Pope counters the notorious greed of Man by illustrating the pointless emptiness that would accompany a world in which Man was omnipotent. Furthermore, he describes a blissful lifestyle as one centered around one’s own sphere, without the distraction of seeking unattainable heights.

7. The seventh stanza explores the vastness of the sensory and cognitive spectrums in relation to all earthly creatures. Pope uses an example related to each of the five senses to conjure an image that emphasizes the intricacies with which all things are tailored. For instance, he references a bee’s sensitivity, which allows it to collect only that which is beneficial amid dangerous substances. Pope then moves to the differences in mental abilities along the chain of being. These mental functions are broken down into instinct, reflection, memory, and reason. Pope believes reason to trump all, which of course is the one function specific to Man. Reason thus allows man to synthesize the means to function in ways that are unnatural to himself.

8. In section 8 Pope emphasizes the depths to which the universe extends in all aspects of life. This includes the literal depths of the ocean and the reversed extent of the sky, as well as the vastness that lies between God and Man and Man and the simpler creatures of the earth. Regardless of one’s place in the chain of being however, the removal of one link creates just as much of an impact as any other. Pope stresses the maintenance of order so as to prevent the breaking down of the universe.

9. In the ninth stanza, Pope once again puts the pride and greed of man into perspective. He compares man’s complaints of being subordinate to God to an eye or an ear rejecting its service to the mind. This image drives home the point that all things are specifically designed to ensure that the universe functions properly. Pope ends this stanza with the Augustan belief that Nature permeates all things, and thus constitutes the body of the world, where God characterizes the soul.

10. In the tenth stanza, Pope secures the end of Epistle 1 by advising the reader on how to secure as many blessings as possible, whether that be on earth or in the after life. He highlights the impudence in viewing God’s order as imperfect and emphasizes the fact that true bliss can only be experienced through an acceptance of one’s necessary weaknesses. Pope exemplifies this acceptance of weakness in the last lines of Epistle 1 in which he considers the incomprehensible, whether seemingly miraculous or disastrous, to at least be correct, if nothing else.

Illustration from “An Essay on Man”

1. Epistle II is broken up into six smaller sections, each of which has a specific focus. The first section explains that man must not look to God for answers to the great questions of life, for he will never find the answers. As was explained in the first epistle, man is incapable of truly knowing anything about the things that are higher than he is on the “Great Chain of Being.” For this reason, the way to achieve the greatest knowledge possible is to study man, the greatest thing we have the ability to comprehend. Pope emphasizes the complexity of man in an effort to show that understanding of anything greater than that would simply be too much for any person to fully comprehend. He explains this complexity with lines such as, “Created half to rise, and half to fall; / Great lord of all things, yet a prey to all / Sole judge of truth, in endless error hurl’d: / The glory, jest, and riddle of the world!”(15-18) These lines say that we are created for two purposes, to live and die. We are the most intellectual creatures on Earth, and while we have control over most things, we are still set up to die in some way by the end. We are a great gift of God to the Earth with enormous capabilities, yet in the end we really amount to nothing. Pope describes this contrast between our intellectual capabilities and our inevitable fate as a “riddle” of the world. The first section of Epistle II closes by saying that man is to go out and study what is around him. He is to study science to understand all that he can about his existence and the universe in which he lives, but to fully achieve this knowledge he must rid himself of all vices that may slow down this process.

2. The second section of Epistle II tells of the two principles of human nature and how they are to perfectly balance each other out in order for man to achieve all that he is capable of achieving. These two principles are self-love and reason. He explains that all good things can be attributed to the proper use of these two principles and that all bad things stem from their improper use. Pope further discusses the two principles by claiming that self-love is what causes man to do what he desires, but reason is what allows him to know how to stay in line. He follows that with an interesting comparison of man to a flower by saying man is “Fix’d like a plant on his peculiar spot, / To draw nutrition, propagate and rot,” (Pope 62-63) and also of man to a meteor by saying, “Or, meteor-like, flame lawless thro’ the void, / Destroying others, by himself destroy’d.” (Pope 64-65) These comparisons show that man, according to Pope, is born, takes his toll on the Earth, and then dies, and it is all part of a larger plan. The rest of section two continues to talk about the relationship between self-love and reason and closes with a strong argument. Humans all seek pleasure, but only with a good sense of reason can they restrain themselves from becoming greedy. His final remarks are strong, stating that, “Pleasure, or wrong or rightly understood, / Our greatest evil, or our greatest good,”(Pope 90-91) which means that pleasure in moderation can be a great thing for man, but without the balance that reason produces, a pursuit of pleasure can have terrible consequences.

3. Part III of Epistle II also pertains to the idea of self-love and reason working together. It starts out talking about passions and how they are inherently selfish, but if the means to which these passions are sought out are fair, then there has been a proper balance of self-love and reason. Pope describes love, hope and joy as being “Fair treasure’s smiling train,”(Pope 117) while hate, fear and grief are “The family of pain.”(Pope 118) Too much of any of these things, whether they be from the negative or positive side, is a bad thing. There is a ratio of good to bad that man must reach to have a well balanced mind. We learn, grow, and gain character and perspective through the elements of this “Family of pain,”(Pope 118) while we get great rewards from love, hope and joy. While our goal as humans is to seek our pleasure and follow certain desires, there is always one overall passion that lives deep within us that guides us throughout life. The main points to take away from Section III of this Epistle is that there are many aspects to the life of man, and these aspects, both positive and negative, need to coexist harmoniously to achieve that balance for which man should strive.

4. The fourth section of Epistle II is very short. It starts off by asking what allows us to determine the difference between good and bad. The next line answers this question by saying that it is the God within our minds that allows us to make such judgements. This section finishes up by discussing virtue and vice. The relationship between these two qualities are interesting, for they can exist on their own but most often mix, and there is a fine line between something being a virtue and becoming a vice.

5. Section V is even shorter than section IV with just fourteen lines. It speaks only of the quality of vice. Vices are temptations that man must face on a consistent basis. A line that stands out from this says that when it comes to vices, “We first endure, then pity, then embrace.”(Pope 218) This means that vices start off as something we know is wrong, but over time they become an instinctive part of us if reason is not there to push them away.

6. Section VI, the final section of Epistle II, relates many of the ideas from Sections I-V back to ideas from Epistle I. It works as a conclusion that ties in the main theme of Epistle II, which mainly speaks of the different components of man that balance each other out to form an infinitely complex creature, into the idea from Epistle I that man is created as part of a larger plan with all of his qualities given to him for a specific purpose. It is a way of looking at both negative and positive aspects of life and being content with them both, for they are all part of God’s purpose of creating the universe. This idea is well concluded in the third to last line of this Epistle when Pope says, “Ev’n mean self-love becomes, by force divine.”(Pope 288) This shows that even a negative quality in a man, such as excessive self-love without the stability of reason, is technically divine, for it is what God intended as part of the balance of the universe.

Contributors

  • Dan Connolly
  • Nicole Petrone

“Alexander Pope.” : The Poetry Foundation . N.p., n.d. Web. 14 May 2013. < http://www.poetryfoundation.org/bio/alexander-pope >.

“Alexander Pope Photos.” Rugu RSS . N.p., n.d. Web. 14 May 2013. < http://www.rugusavay.com/alexander-pope-photos/ >.

“An Essay on Man: Epistle 1 by Alexander Pope • 81 Poems by Alexander PopeEdit.” An Essay on Man: Epistle 1 by Alexander Pope Classic Famous Poet . N.p., n.d. Web. 14 May 2013. < http://allpoetry.com/poem/8448567-An_Essay_on_Man_Epistle_1-by-Alexander_Pope >.

“An Essay on Man: Epistle II.” By Alexander Pope : The Poetry Foundation. N.p., n.d. Web. 14 May 2013. < http://www.poetryfoundation.org/poem/174166 >.

“Benjamin Franklin’s Mastodon Tooth.” About.com Archaeology . N.p., n.d. Web. 14 May 2013. < http://archaeology.about.com/od/artandartifacts/ss/franklin_4.htm >.

“First Edition of An Essay on Man by Alexander Pope Offered by The Manhattan Rare Book Company.” First Edition of An Essay on Man by Alexander Pope Offered by The Manhattan Rare Book Company. N.p., n.d. Web. 13 May 2013. < http://www.manhattanrarebooks- literature.com/pope_essay.htm>.

मनुष्य पर निबंध

Essay On Man In Hindi : आज के आर्टिकल में हम मनुष्य पर निबंध के बारे में बात करने वाले है। इस आर्टिकल में आपको मनुष्य पर निबंध के बारे में सम्पूर्ण जानकारी मिलने वाली है।

Essay On Man In Hindi

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मनुष्य पर निबंध | Essay On Man In Hindi

मनुष्य पर निबंध (200 शब्द).

मनुष्य प्रजाति जो पशुओं में सबसे विकसित पड़ जाती है। इस प्रजाति के बोलने, देखने, सोचने और समझने की क्षमता होती है। इस प्रजाति के कई खास गुण है। मनुष्य प्रजाति का विकास बंदरों से हुआ है। आज से कई साल पहले मनुष्य बंदर के रूप में हुआ करता था। लेकिन धीरे-धीरे विभिन्नता आती रहें और बंदरों से मनुष्य की उत्पत्ति हुई है।

मनुष्य प्रजाति का जीवित है। मनुष्य प्रजाति में हर काम को करने से पहले सोचने की क्षमता मिली हुई है। बाकी पशुओं की तुलना में मनुष्य एक अलग प्राणी है। मनुष्य किसके शारीरिक बनावट की बात की जाएं तो मनुष्य के शारीरिक अंग आवश्यकतानुसार उपलब्ध है।

मनुष्य के शरीर में चलने के लिए दो टांगें और पकड़ने के लिए दो हाथ होते हैं। टांगों और हाथों में अँगुलिया होती है, जिसकी वजह से सरफेस पर पकड़ बनाए रखने और किसी वस्तु को मजबूती से पकड़ने में काम आती है। मनुष्य के शरीर में सुनने के लिए 2 कान और देखने के लिए दो आंखें होती हैं। हर कार्य को समझने के लिए एक मस्तिष्क पाया जाता है। मनुष्य को अकेले कमरे में छोड़ दिया जाता है तो वह मानसिक तनाव का शिकार हो जाता है।

मनुष्य पर निबंध (600 शब्द)

आप मे से सभी लोग मनुष्य शब्द से परिचित होंगे। क्या आपको पता है कि मनुष्य या मानव प्रजातियां अस्तित्व में कैसे आए और इनका विकास कैसे हुआ? पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान मनुष्य जाति को ही माना जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मनुष्य ने कई प्रकार के अविष्कार किए हैं, जिससे उसको जीवन जीने में किसी भी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ रहा है।

मनुष्य जीवन

मनुष्य हमेशा से ही समूह में रहने के लिए प्राथमिकता देता है। ऐसा नहीं कि मनुष्य अभी से ही समूह में रह रहा है। बल्कि आदम के जमाने से ही इसको समूह में रहने की आदत पड़ चुकी थी। समूह में रहने के लिए इसका मुख्य कारण यह है कि उस समय किसी के पास आज के समय के घर या मकान नहीं होते थे तो फिर वह जंगलों में शेर या अन्य खतरनाक जानवरों से बचने के लिए एक झुंड बनाकर चलते थे।

ऐसा मानवीय व्यवहार है कुछ समय के साथ कभी नहीं बदलेगा। अभी भी लोग सामाजिकता से प्रेम करते हैं। मनुष्य के लिए समाज संस्कृति और परिवार अभी भी महत्वपूर्ण है।

मनुष्य एक प्रकार का सामाजिक पशु है

यदि आपको एक बंद कमरे में अकेला छोड़ दिया जाए, वह भी कुछ दिनों के लिए तो क्या होगा? ऐसे में अवसाद और मानसिक तनाव के शिकार हो जाएंगे। आप शारीरिक के साथ मानसिक स्वास्थ्य बीमारियों को भी जन्म दे देंगे। किसी भी व्यक्ति के लिए अकेला रहना संभव नहीं है। इसलिए मनुष्य हमेशा से सामाजिक पशु रहा है।

वह अपने आसपास के लोगों से प्यार करता है तथा अपने परिवार तथा दोस्तों को अपने किसी भी समस्या के बारे में बताता है और उनसे सुझाव लेता है। अपने दोस्तों और परिवारजनों को साथ समय व्यतीत करना तथा अलग-अलग गतिविधियों में शामिल होना, उसके मन को प्रसन्न तथा उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है।

लेकिन समय बदलने के साथ मनुष्य की प्रवृत्तियां भी बदलती चली जा रही हैं। पहले के समय की बात करें तो लोग संयुक्त परिवार में रहना पसंद करते थे लेकिन आज की युवा पीढ़ी तो सिर्फ अकेले रहना ही पसंद करती है।

संयुक्त परिवार में रहने से कई प्रकार के फायदे से सबसे बड़ा फायदा बच्चों का सर्वांगीण विकास होता था। यह बुजुर्गों के लिए सबसे अच्छा था। आज सभी युवा पीढ़ी की सोच बदल चुकी है और वह सर्वथा अकेला ही रहना पसंद करता है।

पहले समय की बात करें तो सयुक्त परिवार होने के नाते किसी भी कार्य को करने से पहले अपने सबसे बड़े बुजुर्गों को बताना पड़ता था। यदि उनको कार्य पसंद नहीं आता तो वह मना कर देते थे लेकिन आज की युवा पीढ़ी के मन में जो आता है वही करना शुरू कर देती है चाहे वह उसके लिए अच्छा हो या बुरा।

आज का मनुष्य

आज के समय में प्रत्येक युवा वर्ग अपनी बात को गोपनीय रखना चाहता है। इसका सीधा मतलब यह है कि उसे अपने आसपास के लोगों से कोई मतलब नहीं रखना। यदि ऐसा नहीं होता तो आज के समय में सोशल मीडिया साइटों की इतनी ज्यादा पॉपुलर ना हो पाती।

आज के समय में सबसे ज्यादा युवा सोशल मीडिया पर अपना समय व्यक्त कर रहा है। यहां तक कि उसे अपने परिवार वालों के साथ भी ज्यादा बातचीत नहीं करता है। आजकल तो वैसे भी लोग ऑफिस या अन्य किसी जॉब मे व्यस्त रहते हैं। यदि उनको फ्री टाइम मिलता है तो वह अपना सारा समय सोशल मीडिया या स्मार्ट फोन पर बिजी रह जाते हैं। यही कारण है कि अब संयुक्त परिवार खत्म होता चला जा रहा है। लोग अकेला रहना ही पसंद करने लगे हैं।

समय बदलने के साथ ही मनुष्य के अंदर नए-नए विचार जन्म लेते हैं। लोग पहले की अपेक्षा अब अधिक स्वतंत्र विचार वाले ज्यादा हो गए हैं। समूह में रहने की बजाय अकेला रहना पसंद करते हैं।

मनुष्य वर्तमान में बहुत ज्यादा व्यस्त हो गया है। आज का मनुष्य अपने काम में लगे रहना पसंद करता है और जब काम से फ्री होता है तो मोबाइल और सोशल मीडिया पर टाइम पास करना पससद करता है।

आज के आर्टिकल में हमने मनुष्य पर निबंध (Essay On Man In Hindi)” पर बात की है। उम्मीद करते हैं कि आपको यह निबन्ध पसंद आया होगा, इसे आगे शेयर जरूर करें। आपको यह निबन्ध कैसा लगा, हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।

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Rahul Singh Tanwar

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An Essay on Man

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Discussion Questions

Summary and Study Guide

Alexander Pope is the author of “An Essay on Man,” published in 1734. Pope was an English poet of the Augustan Age, the literary era in the first half of the 18th century in England (1700-1740s). Neoclassicism, a literary movement in which writers and poets sought inspiration from the works of Virgil, Ovid, and Horace, influenced the poem. Writing in heroic couplets, Pope explores the connection between God, human nature , and society. The poem is philosophical and discusses order, reason, and balance, themes that dominated the era. Pope dedicated the poem to Henry St. John, one of his close friends and a famous Tory politician.

This is Pope’s final long poem. It was intended to be the first part of a book-length poem on his philosophy of the world, but Pope did not live to complete the book. Pope initially published “An Essay on Man” anonymously, as he had a fractious relationship with critics and wanted to see how people would respond to the work if unaware that he had written it. The work was praised highly when it was published, and is still esteemed as one of the most elegant didactic poems ever composed.

Poet Biography

Alexander Pope was born in 1688 in London, England. His father was a wealthy merchant, but because he was Catholic and the Church of England was extremely anti-Catholic, his family could not live within ten miles of London, and Pope could not receive a formal education. As a result, Pope grew up near Windsor Forest and was self-taught. At the age of 12, he contracted spinal tuberculosis, which resulted in lifelong debilitating pain. He grew to be four and a half feet tall and was dependent on others.

Despite these early challenges, Pope’s poetic talent enabled him to attain a higher social status. He began publishing poetry at the age of 16. He translated Homer’s The Iliad and The Odyssey , as well as the works of Shakespeare, and sold the translations for a subscription fee. From the profits of these translations, Pope purchased a grand mansion and large plot of land in Twickenham in 1719. Pope is famous for being the first poet able to support himself entirely on his writing. He valued his friendships, which were with some of the greatest minds of his time, including Jonathan Swift, the famous satirist and author of A Modest Proposal .  Pope also had many enemies due to his biting wit and talent for mocking the conventions of his era. For this, he was called “The Wasp of Twickenham.” His Essay on Criticism (1711) expressed his views on criticism and poetry. His mock-epic poem, The Rape of the Lock (1714), was one of his most famous satirical poems. His satire , The Dunciad (1728) lambasted the culture and literature of his day.

He died in 1744 at the age of 56 from edema and asthma. He never married and had no children. Pope is considered one of the greatest English poets of the 18th century and his style defined the Augustan age of poetry. After Shakespeare, he is the second most quoted writer in the Oxford Dictionary of Quotations .

Pope, Alexander. “ An Essay on Man .” 2007. Project Gutenberg .

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वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे (निबंध) | Essay on Man is he who Die for Others in Hindi

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वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे (निबंध) | Essay on Man is he who Die for Others in Hindi!

ADVERTISEMENTS:

‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के आदर्श वाक्य में भारतीय संस्कृति की मानवमात्र के कल्याण की भावना निहित है । उसके अनुसार मनुष्य का जन्म जनहित के लिए हुआ है । वर्षा का जल अपने लिए नहीं, धरती की तृप्ति के लिए बरसता है; नदियों का जल-कोष सदावर्त की भावना का परिचायक है ।

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के दृष्टिकोणवाली हमारी संस्कृति का मूलाधार है:

“सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्‌दु:खभाग्भवेन् ।।”

दानवों के अत्याचार से सारी सृष्टि कराह उठी थी । सभी किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे । एक ही मार्ग शेष था- यदि महर्षि दधीच की अस्थियों से वज्र वनाया जाए तो समाज इस आपत्ति से बच सकता है । सब देवता दधीच के पास गए और उस पुण्यात्मा ने सहर्ष इस नश्वर शरीर का त्याग कर अपनी अस्थियों का दान कर दिया । इस पौराणिक रूपक को आप इस रूप में भी ले सकते हैं कि दधीच ने परोपकार की भावना से मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए अपना शरीर गला दिया ।

राजा शिवि के उपाख्यान पर भी दृष्टिपात कीजिए । क्या उन्होंने दीन कपोत रूपी मानवता के लिए अपने शरीर का तिल-तिल भाग नष्ट नहीं कर डाला था ? रतिदेव ने भूख से व्याकुल मानवों के लिए अन्न-दान किया । विशुद्ध सेवा-भाव से पृथ्वी पर घूमते रहनेवाले छद्‌मवेशी महाराज विक्रमादित्य की कहानियाँ तो विश्व-विश्रुत ही हैं ।

संतों का जीवन परोपकार की भावना से ओत-प्रोत होता है । ‘परोपकाराय हि सतां विभूतय:’ वाला वाक्य उन पर पूर्णरूपेण चरितार्थ होता है । संत किसी भी भूभाग, जाति अथवा राष्ट्रीयता के अंचल से उद्‌भूत हुए हों, जनगण हितार्थ सर्वस्व त्याग के लिए सर्वदा उद्यत रहते हैं ।

इस दृष्टि से गांधी और ईसा एक समान हैं । उनका एक ही लक्ष्य था-मानव-सेवा । वे मानव धर्म के अनुयायी थे । महात्माओं का जन्म किसी धर्म के प्रवर्तनार्थ नहीं होता । वे तो मानव के आंतरिक और बाह्य दुःखों का अपसारण करने के लिए ही प्रकट होते हैं । उनका जीवन मानवों के लिए आदर्श-पदचिह्न छोड़ जाता है । अपने लिए तो पशु-पक्षी भी जी लेते हैं, पर मनुष्य वह है, जो मनुष्य के हित के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे ।

महाकवि तुलसीदास ने ‘साधु-चरित्र’ के रूप में मानव- आदर्श को चित्रित किया है । वे साधु की तुलना कपास से करते हैं- “जे सहि दुख पर छिद्र दुरावा ।” कपास स्वयं दुःख सह लेता है किंतु मानवमात्र का तन ढकने में प्रयत्नशील रहता है । यही तो है मानव का आदर्श । कवि चंडीदास ने भी मानव-प्रेम के सर्वोच्च होने की उद्‌घोषणा मुक्त कंठ से की है ।

यदि चिरकाल से यह परहित के लिए कष्ट-सहन की विचारधारा न प्रवाहित रही होती, मनुष्य केवल ‘स्व’ के विषय में सोचता, परिवार और जाति के बंधनों में जकड़ा कूपमंडूक बना रहता, तो निश्चित ही मानवता का सर्वनाश हो गया होता ।

प्रत्येक मनुष्य अपने सुखों की पूर्ति के लिए दूसरों का सर्वस्व अपहरण करने के हेतु उद्यत रहता, नित्य ही महायुद्ध की विभीषिका नर-कंकालों के नृत्य और मृत्यु-संगीत के साथ सृष्टि को श्मशान का रूप दिए रहती; किंतु मानव जन-कल्याण के इस आदर्श की रक्षा में सदैव सचेष्ट रहा है ।

इस परमाणु युग में भी शक्तिशाली राष्ट्र नित्य विध्वंसक अस्त्रों के प्रयोग द्वारा अव्यक्त रूप में अन्य राष्ट्रों को धमकाता रहता है; इस देश की आवाज है कि उन घातक अस्त्रों का प्रयोग मानवता की हत्या के लिए न होकर उसकी सुरक्षा और पोषण के लिए हो ।

आज आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक मनु-पुत्र ‘स्व’ की भावना का परित्याग कर ‘मानव हिताय’ और ‘मानव सुखाय’ के पुण्य यज्ञ में आत्मबलि दे । जब तक जन-जन में, व्यष्टि-व्यष्टि में इस मूल-मंत्र का संप्रवेश नहीं होगा तब तक हम मरु को नंदन वन में परिणत करने का तथा एक राष्ट्र और एक समाज में वर्गहीन समाज का स्वप्न ही देखते रहेंगे ।

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It is the Mind which Wins and Defeats Essay In Hindi

मन के हारे हार है मन के जीते जीत पर निबंध – It is the Mind which Wins and Defeats Essay In Hindi

मन के हारे हार है मन के जीते जीत पर निबंध – essay on it is the mind which wins and defeats” in hindi.

  • प्रस्तावना,
  • उक्ति का आशय,
  • मन की दृढ़ता के कुछ उदाहरण,
  • कर्म के सम्पादन में मन की शक्ति,
  • सफलता की कुंजी : मन की स्थिरता, धैर्य एवं सतत कर्म,
  • मन को शक्तिसम्पन्न कैसे किया जाए?

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

मन के हारे हार है मन के जीते जीत पर निबंध – Man Ke Haare Haar Hai Man Ke Jeete Jeet Par Nibandh

प्रस्तावना– संस्कृत की एक कहावत है–’मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण है। तात्पर्य यह है कि मन ही मनुष्य को सांसारिक बन्धनों में बाँधता है और मन ही बन्धनों से छुटकारा दिलाता है। यदि मन न चाहे तो व्यक्ति बड़े–से–बड़े बन्धनों की भी उपेक्षा कर सकता है। शंकराचार्य ने कहा है कि “जिसने मन को जीत लिया, उसने जगत् को जीत लिया।” मन ही मनुष्य को स्वर्ग या नरक में बिठा देता है। स्वर्ग या नरक में जाने की कुंजी भगवान् ने हमारे हाथों में ही दे रखी है।

उक्ति का आशय–मन के महत्त्व पर विचार करने के उपरान्त प्रकरण सम्बन्धी उक्ति के आशय पर विचार किया जाना आवश्यक है। यह उक्ति अपने पूर्ण रूप में इस प्रकार है-

दुःख–सुख सब कहँ परत है, पौरुष तजहु न मीत।

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत॥ अर्थात् दुःख और सुख तो सभी पर पड़ा करते हैं, इसलिए अपना पौरुष मत छोड़ो; क्योंकि हार और जीत तो केवल मन के मानने अथवा न मानने पर ही निर्भर है, अर्थात् मन के द्वारा हार स्वीकार किए जाने पर व्यक्ति की हार सुनिश्चित है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति का मन हार स्वीकार नहीं करता तो विपरीत परिस्थितियों में भी विजयश्री उसके चरण चूमती है। जय–पराजय, हानि–लाभ, यश–अपयश और दुःख–सुख सब मन के ही कारण हैं; इसलिए व्यक्ति जैसा अनुभव करेगा वैसा ही वह बनेगा।

मन की दृढ़ता के कुछ उदाहरण हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें मन की संकल्प–शक्ति के द्वारा व्यक्तियों ने अपनी हार को विजयश्री में परिवर्तित कर दिया। महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की जीत का कारण यही था कि श्रीकृष्ण ने उनके मनोबल को दृढ़ कर दिया था। नचिकेता ने न केवल मृत्यु को पराजित किया, अपितु यमराज से अपनी इच्छानुसार वरदान भी प्राप्त किए। सावित्री के मन ने यमराज के सामने भी हार नहीं मानी और अन्त में अपने पति को मृत्यु के मुख से निकाल लाने में सफलता प्राप्त की।

अल्प साधनोंवाले महाराणा प्रताप ने अपने मन में दृढ़–संकल्प करके मुगल सम्राट अकबर से युद्ध किया। शिवाजी ने बहुत थोड़ी सेना लेकर ही औरंगजेब के दाँत खट्टे कर दिए। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका द्वारा किए गए अणुबम के विस्फोट ने जापान को पूरी तरह बरबाद कर दिया था, किन्तु अपने मनोबल की दृढ़ता के कारण आज वही जापान विश्व के गिने–चुने शक्तिसम्पन्न देशों में से एक है। दुबले–पतले गांधीजी ने अपने दृढ़ संकल्प से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला दिया था। इस प्रकार के कितने ही उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जिनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हार–जीत मन की दृढ़ता पर ही निर्भर है।

Man Ke Haare Haar Hai Man Ke Jeete Jeet Par Nibandh

कर्म के सम्पादन में मन की शक्ति– प्राय: देखा गया है कि जिस काम के प्रति व्यक्ति का रुझान अधिक होता है, उस कार्य को वह कष्ट सहन करते हुए भी पूरा करता है। जैसे ही किसी कार्य के प्रति मन की आसक्ति कम हो जाती है, वैसे–वैसे ही उसे सम्पन्न करने के प्रयत्न भी शिथिल हो जाते हैं। हिमाच्छादित पर्वतों पर चढ़ाई करनेवाले पर्वतारोहियों के मन में अपने कर्म के प्रति आसक्ति रहती है। आसक्ति की यह भावना उन्हें निरन्तर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रहती है।

सफलता की कुंजी : मन की स्थिरता, धैर्य एवं सतत कर्म–वस्तुत: मन सफलता की कुंजी है। जब तक न में किसी कार्य को करने की तीव्र इच्छा रहेगी, तब तक असफल होते हुए भी उस काम को करने की आशा बनी रहेगी। एक प्रसिद्ध कहानी है कि एक राजा ने कई बार अपने शत्रु से युद्ध किया और पराजित हुआ। पराजित होने पर वह एकान्त कक्ष में बैठ गया। वहाँ उसने एक मकड़ी को ऊपर चढ़ते देखा।

मकड़ी कई बार ऊपर चढ़ी, किन्तु वह बार–बार गिरती रही। अन्तत: वह ऊपर चढ़ ही गई। इससे राजा को अपार प्रेरणा मिली। उसने पुनः शक्ति का संचय किया और अपने शत्रु को पराजित करके अपना राज्य वापस ले लिया। इस छोटी–सी कथा में यही सार निहित है कि मन के न हारने पर एक–न–एक दिन सफलता मिल ही जाती है।

मन को शक्तिसम्पन्न कैसे किया जाए?–प्रश्न यह उठता है कि मन को शक्तिसम्पन्न कैसे किया जाए? मन को शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए सबसे पहले उसे अपने वश में रखना होगा।

अर्थात् जिसने अपने मन को वश में कर लिया, उसने संसार को वश में कर लिया, किन्तु जो मनुष्य मन को न जीतकर स्वयं उसके वश में हो जाता है, उसने मानो सारे संसार की अधीनता स्वीकार कर ली।

मन को शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए हीनता की भावना को दूर करना भी आवश्यक है। जब व्यक्ति यह सोचता है कि मैं अशक्त हूँ, दीन–हीन हूँ, शक्ति और साधनों से रहित हूँ तो उसका मन कमजोर हो जाता है। इसीलिए इस हीनता की भावना से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मन को शक्तिसम्पन्न बनाना आवश्यक है।

उपसंहार– मन परम शक्तिसम्पन्न है। यह अनन्त शक्ति का स्रोत है। मन की इसी शक्ति को पहचानकर ऋग्वेद में यह संकल्प अनेक बार दुहराया गया है–”अहमिन्द्रो न पराजिग्ये” अर्थात मैं शक्ति का केन्द्र हैं और जीवनपर्यन्त मेरी पराजय नहीं हो सकती है। यदि मन की इस अपरिमित शक्ति को भूलकर हमने उसे दुर्बल बना लिया तो सबकुछ होते हुए भी हम अपने को असन्तुष्ट और पराजित ही अनुभव करेंगे और यदि मन को शक्तिसम्पन्न बनाकर रखेंगे तो जीवन में पराजय और असफलता का अनुभव कभी न होगा।

वाघा बार्डर Summary in Hindi

दा इंडियन वायर

मनुष्य बनाम मशीन पर निबंध

essay on man summary in hindi

By विकास सिंह

man vs machine in hindi

मनुष्य पाषाण काल से ही विकसित और रूपांतरित हुआ जब मनुष्य को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी। यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी का युग है। मनुष्य और मशीनें एक साथ प्रभावी और सटीक रूप से काम करती हैं।

मनुष्य मशीनों का आविष्कारक और संचालक है और दूसरी ओर मनुष्य अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में मशीनों पर भी अत्यधिक निर्भर है। हमारे दिन भर की अधिकांश गतिविधियाँ मशीनों की सहायता से की जाती हैं। इससे बहुत सारी ऊर्जा और समय की बचत होती है।

मनुष्य बनाम मशीन पर निबंध, man vs machine essay in hindi (200 शब्द)

दशकों से, मनुष्य कई अनोखे और संसाधनपूर्ण आविष्कार लेकर आया है। कंप्यूटर और मशीनों ने मनुष्य द्वारा पहले किए गए महत्वपूर्ण कार्यों को नियंत्रित करना और बदलना शुरू कर दिया है। हम कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर अत्यधिक निर्भर हो गए हैं। हालांकि, यह व्यापक रूप से माना जाता है कि कृत्रिम बुद्धि मानव बुद्धि को प्रतिस्थापित नहीं कर सकती है, क्योंकि मनुष्य मशीनों का निर्माता है।

मानव मस्तिष्क लगातार और अधिक कुशलता से काम कर सकता है और बुद्धिमानी से किसी चीज का उपयोग कर सकता है। मनुष्य विभिन्न चीजों की अवधारणा को समझने, समझने, समझने में सक्षम है। मनुष्य नई चीजों को खोजने और बनाने के लिए उत्सुक हैं। मनुष्य बहु-प्रतिभाशाली हैं जबकि मशीनें नहीं हैं। कृत्रिम बुद्धि भी मानव मस्तिष्क द्वारा बनाई गई है और उनके कार्य सीमित हैं।

गति और सटीकता के मामले में मशीनें मनुष्य से श्रेष्ठ हैं। उदाहरण के लिए कैलकुलेटर गणना करने के लिए मानव दिमाग की तुलना में अधिक सटीक और तेजी से काम करते हैं। मानव मस्तिष्क किसी भी तरह की मशीन के कामकाज का कार्यक्रम करता है।

मानव मस्तिष्क स्वाभाविक रूप से अवलोकन, प्रयोग, सीखने और खोज के द्वारा विकसित होता है, लेकिन मशीनरी में सुधार केवल तभी संभव है जब इसका यांत्रिक मस्तिष्क मनुष्यों द्वारा रचा जाए। इसके अलावा, मशीनों में कोई भावनात्मक बुद्धि नहीं होती है। भावनाएँ मानव मस्तिष्क को विकसित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं।

इस प्रकार, मशीनों की क्षमता सीमित है जबकि मनुष्य हमेशा अधिक से अधिक प्रयोग, निर्माण, आविष्कार और खोज कर रहे हैं।

मनुष्य बनाम मशीन पर निबंध, man vs machine in hindi (300 शब्द)

परिचय:.

जबकि मनुष्य मशीनों का आविष्कारक है, वह मशीनों पर भी अत्यधिक निर्भर है। औद्योगिक क्रांति के बाद मनुष्य का विकास और तेजी से विकास हुआ है। मशीनों और आधुनिक तकनीक ने उन्हें जीवन में आराम, सुविधाएं और आराम दिया है। साधारण गणनाओं से लेकर चीजों के बड़े पैमाने पर उत्पादन तक – आज की तेजी से भागती जिंदगी में हमें जो कुछ भी चाहिए वह मशीनों द्वारा दिया जाता है।

मैन बनाम मशीन: कौन सा बेहतर है?

उत्पादों को मशीनों की मदद से बारीक किया जाता है और मानव निर्मित उत्पादों की तुलना में बेहतर होता है। मशीनें मनुष्य की तुलना में और अधिक गति से बड़ी मात्रा में चीजों का निर्माण कर सकती हैं। चाहे वह कपड़े हों, जूते-चप्पल हों या आभूषण हों, मशीनों द्वारा उत्पादित हर चीज का अच्छा खत्म होता है।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता न केवल बहुत समय और ऊर्जा बचाती है, बल्कि मनुष्य के मनोरंजन का भी एक माध्यम है। आज मनुष्य स्मार्ट फोन, लैपटॉप, म्यूजिक सिस्टम, टेलीविजन सेट, वाशिंग मशीन और ऐसे अन्य उपकरणों के बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता है।

मनुष्य और मशीनें प्रतिस्पर्धी नहीं हैं, लेकिन मनुष्य अधिक उत्पादकता, गति और सटीकता के लिए मशीनों के साथ सहयोग करते हैं। संचार से लेकर यात्रा तक सब कुछ सरल और तेज हो गया है। मनुष्य उन सभी गतिविधियों के लिए मशीनों की मदद लेता है जो वह करता है। मशीनों के अनगिनत उपयोग हैं। वर्तमान दुनिया में तेजी से विकास के लिए मशीनें जिम्मेदार हैं।

हालाँकि, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मशीनें मनुष्यद्वारा निर्मित हैं। तो, निश्चित रूप से मनुष्य मशीनों से बेहतर है। वह एक तरह से विकलांग हो गया है क्योंकि शारीरिक रूप से वह कम सक्रिय हो गया है और मशीनों पर निर्भर है। मनुष्य एक लालची जीव है जो अधिक से अधिक चाहता है। भले ही मशीनों ने मनुष्य के जीवन को आसान बना दिया है, लेकिन उसके पास शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए समय और धैर्य नहीं है।

निष्कर्ष:

एक तरह से, मुझे लगता है कि मशीनों ने मानव जीवन को मनोरंजक बनाने के साथ-साथ सुस्त भी कर दिया है क्योंकि उसके पास कड़ी मेहनत करने या दुनिया की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेने के लिए समय और धैर्य नहीं है। मनुष्य और मशीनों का सहयोग, मुझे लगता है कि यह सबसे अच्छा है, हालांकि यह सकारात्मक और मानव जाति दोनों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।

मनुष्य बनाम मशीन पर निबंध, 400 शब्द :

प्रस्तावना :.

इंसान और मशीनें अलग तरह से काम करती हैं। हम सभी जानते हैं कि मशीनें मानव की रचना हैं। मानव जीवन को आसान बनाने के लिए मशीनें बनाई गईं। मनुष्य मशीनों पर अत्यधिक निर्भर है और एक नई क्रांति है। एक मशीन केवल एक मोटर चालित गैजेट है जिसमें विभिन्न भागों होते हैं। मशीनें अलग-अलग कार्य करती हैं लेकिन इंसानों की तरह जीवन नहीं है।

मशीनें मनुष्य दवारा निर्मित हैं :

मनुष्य मांस और रक्त से बना है, उसका जीवन है। मनुष्य की भावनाएं और भावनाएं हैं; वे अलग-अलग समय पर विभिन्न भावनाओं को व्यक्त करते हैं। मशीनें यांत्रिक हैं और वे अपने यांत्रिक मस्तिष्क के साथ काम करती हैं जो मनुष्यों द्वारा रचित होते हैं।

मनुष्य स्थिति को समझते हैं और उसके अनुसार प्रतिक्रिया करते हैं जबकि मशीनों में समझने की क्षमता नहीं होती है। मनुष्य रचनात्मक और कल्पनाशील है। मनुष्य नई चीजों का निर्माण और आविष्कार कर सकता है लेकिन मशीनें नहीं कर सकती हैं।

मशीनों को मानव द्वारा संचालित और निर्देशित किया जाता है। मनुष्य बुद्धिमत्ता और भावनाओं से धन्य होता है जबकि मशीनों में कृत्रिम बुद्धि होती है। भाषा की क्षमताओं, पैटर्न की मान्यता और रचनात्मक सोच सहित कई चीजों में मनुष्य की विविध क्षमताएं हैं। जब सामाजिककरण, डेटा विश्लेषण या राय होने की बात आती है तो मनुष्य निश्चित रूप से मशीनों से आगे होते हैं।

मशीनों का उपयोग:

विभिन्न मशीनों जैसे टीवी, रेफ्रिजरेटर, म्यूजिक सिस्टम, होम थिएटर, वॉशिंग मशीन आदि विविध उपयोगों के लिए हैं। इन मशीनों के उपयोग से हमारा जीवन बहुत सरल हो गया है। मशीनों की गति बहुत तेज़ होती है, जब यह सूचना की प्रसंस्करण और मनुष्यों की तुलना में सटीकता और गति के साथ गणना का प्रदर्शन करती है।

कंप्यूटर में स्पष्ट रूप से मनुष्यों की तुलना में बेहतर स्मृति है और इसे बड़ी मात्रा में जानकारी के साथ खिलाया जा सकता है। मशीनें मनुष्य की तुलना में सहजता से और अधिक कुशलता से काम करती हैं। मशीनों की सहायता से उत्पादों को अधिक मात्रा में बड़ी मात्रा में उत्पादित किया जा सकता है।

सेल फोन के साथ दुनिया में कहीं से भी आसान संचार संभव है। परिवहन सुविधाओं की मदद से दुनिया में कहीं भी सुपर फास्ट स्पीड से यात्रा की जा सकती है। दुनिया में कहीं से भी शोध और राय साझा करना बहुत आसान हो गया है। इसके अलावा, मशीनें मनुष्यों के विपरीत भावनाओं या भावनाओं से प्रभावित नहीं होती हैं।

मनुष्य और मशीन दोनों ही बहुत शक्तिशाली हैं। कुछ प्रक्रियाएं हैं जहां मशीनें निश्चित रूप से मनुष्यों की तुलना में बेहतर काम करती हैं। मनुष्य को बुद्धि और शक्ति प्राप्त होती है जबकि मशीनों में कृत्रिम बुद्धि होती है। मानव बुद्धि कृत्रिम बुद्धि से कहीं बेहतर है लेकिन दोनों का सहयोग सबसे अच्छा है। वर्तमान समय में मनुष्य कृत्रिम बुद्धि के बिना निश्चित रूप से नहीं रह सकता है। मानव मष्तिष्क और मशीन दोनों को ही बेहतर भविष्य के लिए हाथ से हाथ मिलकर चलने की जरूरत है।

मनुष्य बनाम मशीन पर निबंध, man vs machine in hindi (500 शब्द)

हम अब स्मार्ट फोन, कंप्यूटर और टैबलेट जैसी वस्तुओं से भरी एक तकनीक-प्रेमी दुनिया में रह रहे हैं जो हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गए हैं। अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता के बिना हमारे जीवन की कल्पना करना कठिन है। हमने मोबाइल फोन से लेकर स्मार्ट फोन और कंप्यूटर से लेकर लैपटॉप, केबल टेलीविजन तक के उपग्रहों तक जो प्रगति की है, हमें आश्चर्य होता है कि इस प्रगति की पंक्ति में आगे क्या होने वाला है।

यह भी भविष्यवाणी की गई है कि कृत्रिम बुद्धि मानव बुद्धि से बेहतर हो सकती है। हालांकि कृत्रिम बुद्धि में विकास मानव बुद्धि में विकास का परिणाम है। क्या मानव अस्तित्व के बिना कृत्रिम बुद्धिमत्ता मौजूद हो सकती है?

मेरा मत :

हम कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर अत्यधिक निर्भर हैं और इसके बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं, चाहे वह काम, मनोरंजन, अध्ययन या विचारों को साझा करने के लिए हो। कृत्रिम बुद्धिमत्ता के साथ मानवीय सहयोग काफी बढ़ा है। मशीनें हमारे जीवन को आसान बनाती हैं लेकिन हमारे जीवन में मनुष्यों को प्रतिस्थापित नहीं कर सकती हैं।

मनुष्य मशीनों का निर्माता और संचालक है। मानव बुद्धिमत्ता में कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर बढ़त है क्योंकि इसमें कंप्यूटरों के विपरीत बनाने की क्षमता है और यह मशीनों द्वारा संचालित नहीं है।

मानवीय और भावनात्मक आवश्यकताएं:

हम मशीनों के आदी हैं। लेकिन हमारी भावनात्मक जरूरतों का क्या? क्या हम मशीन से बात कर सकते हैं? क्या हम मशीनों के साथ अपनी भावनाओं को साझा कर सकते हैं? क्या हम मशीनों के प्यार में पड़ सकते हैं? क्या मशीनें भावनाएं महसूस कर सकती हैं? क्या हम सिर्फ मशीनों के साथ रह सकते हैं?

हालांकि इन दिनों हम मनुष्यों की तुलना में मशीनों के साथ अधिक समय बिताते हैं, हम दिन के अंत में मनुष्यों की ओर मुड़ते हैं। हम लालची प्राणी हैं, क्या हम नहीं हैं? मनुष्य भावनात्मक प्राणी हैं और उनकी कई भावनात्मक आवश्यकताएं हैं। वे भावनाओं के साथ आसानी से दूर हो सकते हैं।

वे अक्सर अपने जीवन में विभिन्न घटनाओं से तनावग्रस्त हो जाते हैं। भावनाएँ सटीक और तार्किक निर्णय लेने के लिए मानव मस्तिष्क की प्रभावशीलता को धुंधला करती हैं। मानव मस्तिष्क कभी मशीनों की तरह स्थिर नहीं होता। मानव मस्तिष्क भावनाओं से अत्यधिक प्रभावित होता है।

इंसान हमारे लिए सबसे ज्यादा मायने रखता है और यह ध्यान रखने वाली महत्वपूर्ण बात है। हम मनुष्यों के बजाय मशीनों के साथ बातचीत नहीं करना चाहते हैं। प्रौद्योगिकी हमारे खरीदारी के अनुभव को स्थानीय रूप से ऑनलाइन शॉपिंग में बदलने के लिए मौजूद है, लेकिन हर कोई ऑनलाइन खरीदारी पसंद नहीं करता है।

कुछ लोग व्यक्तिगत रूप से शॉपिंग मॉल की यात्रा करना पसंद करते हैं, विभिन्न कपड़े आज़माते हैं और उस अनुभव का आनंद लेते हैं। जब तनाव से निपटने की बात आती है, तो हमें अभी भी एक तनाव प्रबंधन सलाहकार से परामर्श करना होगा और मशीनों से नहीं। मानव संचार की जगह कुछ भी नहीं ले सकता। सिर्फ इसलिए कि प्रौद्योगिकी हाथ में नहीं है, इसका मतलब यह है कि यह हर समय मनुष्यों की जगह लेने वाला है या एक बेहतर विकल्प है।

मैं व्यक्तिगत रूप से पसंद करता हूं कि एक दुकान की सेवा या एक शिकायत को बढ़ाने के लिए मशीन के साथ बातचीत करने की तुलना में मानव बातचीत ही बेहतर है। मैं भी टेलीविजन या मोबाइल फोन से चिपके रहने के बजाय मनुष्यों के साथ रहना पसंद करता हूं।

मनुष्य की भावनाएं हैं और उनके साथ काम करना बेहतर अनुभव है। इंसान सिर्फ दिमाग से ही नहीं बल्कि अपने दिल से भी नियंत्रित होता है। मानव मस्तिष्क और हृदय निकटता से जुड़ा हुआ है, एक भावनात्मक संपूर्ण बनाता है। इसलिए, हालांकि मशीनें हमारे जीवन का एक हिस्सा बन गई हैं, लेकिन मेरे लिए, मैं एक दिल का व्यक्ति हूं, इसलिए मैं निश्चित रूप से मशीनों पर मनुष्यों को पसंद करूंगा।

मनुष्य बनाम मशीन पर निबंध, 600 शब्द :

प्रस्तावना:.

जब कृत्रिम बुद्धि बनाम मानव मस्तिष्क की बात आती है, तो ऐसे लोग हैं जो कृत्रिम बुद्धिमत्ता में विश्वास करते हैं और जो लोग ऐसा नहीं करते हैं। मनुष्य निश्चित रूप से उन मशीनों पर निर्भर हैं जिन पर इसके पेशेवरों और विपक्ष हैं। निश्चित रूप से कोई काला और सफेद नहीं है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि कौन इसे किस उद्देश्य से विकसित कर रहा है।

हम क्या पसंद करते हैं?

मनुष्य को एक दूसरे के साथ बातचीत करने की एक मजबूत आवश्यकता है। मशीनों से संचार संभव नहीं है। कॉल सेंटर आईवीआर (इंटरएक्टिव वॉयस रिस्पांस) का उपयोग करते हैं और हम कॉल पर जवाब नहीं देने वाले जीवित व्यक्ति से चिढ़ जाते हैं।

जब भी हम ग्राहक सेवा के लिए कॉल करते हैं, चाहे वह सेल के लिए जारी हो या खरीदारी सहायता के लिए या कुछ पूछताछ करने के लिए, हमें आईवीआर के लिए निर्देशित किया जाता है। यह अनावश्यक है क्योंकि हमें अनावश्यक रूप से एक लंबे मेनू से गुजरना पड़ता है और हम खुद को मशीनों से व्यक्त नहीं कर सकते हैं।

क्या हम ऐसा जीवन जी सकते हैं जहाँ हम केवल मशीनों के साथ बातचीत कर सकते हैं और मनुष्यों के साथ नहीं? हम हमेशा लोगों से संवाद करना पसंद करते हैं। हम मनुष्यों के साथ अपनी समस्याओं को हल करने, जांचने और उनकी समस्याओं को हल करने में सहज महसूस करते हैं।

मानव जीवन पर आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रभाव:

बेरोजगारी: मशीनें और नई तकनीक कुछ नौकरियों के लिए मैन पावर की जगह ले रही है जो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह मशीनों का सबसे अधिक और व्यापक रूप से ज्ञात दोष है। हम सभी जानते हैं कि कुछ नौकरियां गायब हो रही हैं क्योंकि पूरी तरह से मशीनरी द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है।

औद्योगिक क्रांति में भी बेरोजगारी है। विभिन्न क्षेत्रों में मध्यम कौशल नौकरियों का नुकसान हुआ है। यह भी भविष्यवाणी की गई है कि आधुनिक तकनीक के कारण बड़े पैमाने पर नौकरी का नुकसान होगा और अधिक से अधिक मैन पावर को मशीनों द्वारा प्रतिस्थापित करने की उम्मीद है।

योग्यता: कैलकुलेटर और कंप्यूटर जैसी आधुनिक तकनीक पर बढ़ती निर्भरता ने मानव रचनात्मकता और बुद्धिमत्ता को कम कर दिया है। बहुत से लोग आज कृत्रिम बुद्धि का उपयोग किए बिना सरल गणना और वर्तनी के साथ संघर्ष करते हैं। हालांकि ये उपकरण हमारे जीवन को सरल बनाते हैं लेकिन हम उन पर अत्यधिक निर्भर हो सकते हैं।

युद्ध और विनाश: कृत्रिम बुद्धिमत्ता और परमाणु युद्ध के बीच का संबंध सर्वविदित है। आधुनिक तकनीक आधुनिक हथियारों के निर्माण के कारण बढ़ती युद्ध का एक प्रमुख कारण है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता का सकारात्मक प्रभाव पड़ता है जबकि इस बात का भी डर है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता मानवीय बुद्धिमत्ता से अधिक हो सकती है जो कई प्रलय के दिनों को जन्म दे सकती है।

स्वास्थ्य: स्मार्ट फोन से निकलने वाला विकिरण मानव शरीर द्वारा अवशोषित होता है जो ट्यूमर का कारण बन सकता है। लंबे समय तक कान के खिलाफ स्मार्ट फोन ब्रेन ट्यूमर की संभावनाओं को भी बढ़ाता है और इलाज न होने पर कैंसर का कारण बन सकता है।

फोन के अत्यधिक उपयोग से क्रोनिक तनाव भी होता है। आपके दोस्तों या अन्य सूचनाओं के साथ-साथ संदेशों या उत्तरों के लिए हमेशा उत्सुकता और तलाश रहती है। इन दिनों हर कोई सोशल मीडिया पर ध्यान देने के लिए तरस रहा है और अगर किसी को ध्यान नहीं है तो यह उन्हें तनावग्रस्त और उदास कर देता है।

पर्यावरण : हम आधुनिक तकनीक पर निर्भर हैं इसलिए बिजली की खपत बढ़ी है। वाहनों के बढ़ते उपयोग ने वायु प्रदूषण को बढ़ा दिया है जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। हमारे पर्यावरण पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव गंभीर है और कठोर जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है।

ग्लोबल वार्मिंग मनुष्यों में कई बीमारियों का कारण बन रहा है। जलवायु में परिवर्तन के कारण कई पक्षियों, पौधों और जानवरों की प्रजातियों का भी विलुप्त होना है। इसने पर्यावरण पर अत्यधिक नकारात्मक प्रभाव डाला है और प्रकृति को समग्र रूप से क्षतिग्रस्त किया है।

इस प्रकार, मशीनें हमारे जीवन का एक हिस्सा हैं और कई मायनों में सहायक हैं लेकिन हम अपने जीवन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को अनदेखा नहीं कर सकते। मनुष्यों और मशीनों के बीच कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है क्योंकि मनुष्य निर्माता हैं। मनुष्य ने विभिन्न उद्देश्यों के लिए मशीनें बनाई हैं।

यह जानना महत्वपूर्ण है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता किस उद्देश्य से विकसित की जा रही है और इसका मानव जीवन पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव पड़ता है या नहीं। मानव मस्तिष्क इतना शक्तिशाली है कि वह निर्माण के साथ-साथ विनाश के लिए मशीनों का उपयोग कर सकता है।

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विकास नें वाणिज्य में स्नातक किया है और उन्हें भाषा और खेल-कूद में काफी शौक है. दा इंडियन वायर के लिए विकास हिंदी व्याकरण एवं अन्य भाषाओं के बारे में लिख रहे हैं.

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नर हो न निराश करो मन को पर निबंध | Essay On Nar Ho na Nirash karo man ko In Hindi

Essay On Nar Ho na Nirash karo man ko In Hindi : महान हिंदी कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा हैं नर हो, न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो जग में रह कर कुछ नाम करो.

गुप्त की कविता की इन पंक्तियों ने उन्हें अमर बना दिया. मानव होने का मतलब साहस, कर्मठ तथा कर्मशील बने रहना हैं यदि सफलता द्वार है तो विफलता उस द्वार तक जाने वाली सीढ़ियाँ हैं मानव को निरंतर कर्म करते रहने की सीख देने वाली इस कहावत/ उक्ति पर लघु निबंध दिया गया हैं.

Essay On Nar Ho na Nirash karo man ko In Hindi

Essay On Nar Ho na Nirash karo man ko In Hindi

नर हो न निराश करो मन को निबंध (500 शब्द)

इस धरती पर मनुष्य से बलवान कोई भी नहीं है क्योंकि मनुष्य एक बार जो निर्णय कर लेता है वह उस निर्णय पर अटल रहता है और उसे पूरा करने के लिए अपनी जी जान लगा देता है।

हालांकि इसके लिए मनुष्य के अंदर मजबूत इच्छाशक्ति होना आवश्यक है। मनुष्य को नर कहा गया है जिसका मतलब होता है अद्भुत शक्ति का भंडार रखने वाला प्राणी।

नर का मतलब पुरुष भी होता है और नर हो ना निराश करो मन को पंक्ति का मतलब होता है कि अगर आप वाकई में मर्द हैं तो आपको परिस्थितियों के सामने अपने घुटने नहीं टेकने चाहिए ना ही आपको निराश होना चाहिए, क्योंकि यह संसार का कालचक्र है कि सुख और दुख आते रहेंगे और जाते रहेंगे।

ऐसे में आपको हार नहीं माननी चाहिए और दुगनी शक्ति के साथ फिर से प्रयास करना चाहिए, क्योंकि अगर आप नर हो तो अपने नर होने का प्रमाण भी आप ही देंगे।

कभी-कभी मनुष्य परिस्थितियों से संघर्ष करते करते थक जाता है और उसके मन में यह विचार उत्पन्न होने लगते हैं कि अब वह अपनी जिंदगी में कभी भी आगे नहीं बढ़ सकेगा परंतु कभी भी मनुष्य को अपने मन के अंदर यह भाव नहीं लाना चाहिए कि उसके बस का कुछ नहीं है, क्योंकि मनुष्य चाहे तो क्या कुछ नहीं कर सकता। 

भागीरथी भी मनुष्य ही थे जिन्होंने अपनी कठोर तपस्या के बल पर गंगा माता को धरती पर आने के लिए विवश कर दिया था। इस प्रकार दुनिया में अनेक ऐसे व्यक्ति पैदा हुए हैं जिन्होंने अपने नर होने का प्रमाण दिया और अगर वह कर सकते हैं तो आप भी कर सकते हैं।

कुछ इंसान ऐसे होते हैं जो एक बार असफल हो जाते हैं तो वह जिंदगी से हार मान लेते हैं और फिर उनके साथ जो भी हो रहा है वह उसे भगवान की मर्जी मान करके शांति से बैठ जाते हैं.

परंतु कई साधु महात्माओं ने इस बात को कहा है कि इंसान को अपने भाग्य के भरोसे नहीं रहना चाहिए बल्कि उसे अपने कर्म के भरोसे रहना चाहिए क्योंकि जो व्यक्ति कर्म करता है भगवान भी उसके कर्म में उसका साथ देते हैं और एक ना एक दिन उस व्यक्ति को सफलता प्राप्त कराने में उसकी सहायता करते हैं।

नर होने से व्यक्ति को अपने मन को निराश नहीं करना चाहिए क्योंकि अगर व्यक्ति मन से हार जाता है तो वह तन से भी हार जाता है और जो व्यक्ति मन से नहीं हारता वह तन से भी नहीं हारता,

तभी तो कहावत कही गई है कि मन के हारे हार और मन के जीते जीत जिसका मतलब यह होता है कि अगर आपने अपने मन में यह इच्छा संकल्प ले लिया है कि आप किसी काम को करके ही रहेंगे.

फिर चाहे आपको उसके लिए कितनी भी मदद क्यों ना करनी पड़े, तो निश्चित ही एक दिन आप उस काम को करेंगे और उस काम में आप सफलता भी हासिल करेंगे।

क्योंकि असफलता भी आपको एक प्रकार से यह सीख देती है कि आप के प्रयास में क्या गलती रह गई। इस प्रकार से असफलता से घबराए नहीं बल्कि असफलता से सीखे और फिर से प्रयास करें, आप अवश्य ही कामयाब होंगे।

700 words Nar Ho na Nirash karo man ko Essay In Hindi

प्रस्तावना – विधाता द्वारा रचित सृष्टि में मनुष्य की उसकी श्रेष्ठ रचना हैं. वह ज्ञानवान प्राणी होने के साथ ही असीम शक्ति का भंडार हैं. उसकी यह असीम शक्ति बुद्धि बल पर आधारित हैं.

इसी आधार पर वह अपने मन में जो ठान लेता हैं. उसे पूरा करने की ताकत उसमें होती हैं. वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहता है. लेकिन इस स्थिति में वह कई बार परिस्थतियों से संघर्ष करते करते थक जाता हैं.

परिणामस्वरूप उसमें निराशा का भाव आ जाता है और वह सोचने लगता है कि अब लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पायेगा. लेकिन परि स्थिति के आगोश में आकर उसका इस प्रकार सोचना उचित नहीं हैं.

कहा गया है नर हो न निराश करो मन को अर्थात मनुष्य को अपने मन में निराशा का भाव नहीं लाना चाहिए बल्कि उसे अपने मनोबल को उच्च बनाये रखते हुए दृढता के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना चाहिए, क्योंकि जहाँ चाह है, वहां राह हैं.

कथन के समर्थन में उदाहरण – यह काव्य पंक्ति राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित प्रेरणास्पद देशभक्ति भावना से पूरित कविता नर हो न निराश करो मन को. की शीर्षक परक पंक्ति हैं.

कवि ने मनुष्य को असीम शक्ति का भंडार मानकर उसे कर्मनिष्ठ और साहसी बनने का संदेश ही नहीं दिया है बल्कि प्राणियों में श्रेष्ठ होने के नाते जीवन मार्ग में सफलता से आगे बढ़ते जाने की प्रेरणा भी दी हैं.

जो सर्वथा उचित है. कथन के समर्थन में संसार में अनेक मेहनती और साहसी मनुष्य हुए हैं, जिनकी यश चन्द्रिका आज भी विश्व में फैली हुई हैं.

छत्रपति शिवाजी ने कैसे कठिन परिस्थिति में अपने साहस, परिश्रम और उत्साह से पूरित होकर हिन्दू जाति की रक्षा की हैं.

विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब नेपोलियन ने अपनी सेना ने कहा कि आल्प्स पर्वत नहीं है तब आल्प्स नहीं रहा और उसकी सेना ने आनन फानन में आल्प्स पर्वत पार किया.

इतना ही नहीं, वह कहा करता था असम्भव शब्द मूर्खों के शब्दकोश में होता हैं. रमजे मैकडानल्ड जो एक गरीब मजदूर था, अपने उत्साह और लग्न के बल पर ही इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बना.

अब्राहम लिंकन जैसा लकड़हारा चन्द्रगुप्त मौर्य जैसा दासी पुत्र अपने मनोत्साह के बल पर ही शासक बने. महात्मा गांधी ने अपने मनोबल के सहारे अहिंसा को अपनाकर अंग्रेजों की दासता से भारत को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करवाया.

उत्साह का संचार – मनुष्य तो नर है, नर श्रेष्ठता का प्रतीक है. जो आगे बढ़ता है. उसे ही संघर्ष करने पड़ते हैं. फिर जीवन तो संघर्ष ही हैं. अतः जीवन के लिए आवश्यक भी हैं. इसीलिए कवि जगदीश गुप्त ने जीवन संघर्ष को ही सच बताते हुए कहा हैं.

सच है महज संघर्ष ही संघर्ष से हटकर जिए तो क्या जिए, हम या कि तुम जो नत हुआ वह मृत हुआ, जो व्रत से झुरकर कुसुम

कवयित्री महादेवी वर्मा ने भी कष्टों से टकराने की प्रेरणा देते हुए कहा हैं.

टकराएगा कहीं आज यदि उद्धत लहरों से कौन ज्वार फिर तुझे पार तक पहुंचाएगा.

अतः नर होने के नाते हमें अपने मन में कभी भी निराशा की भावना नहीं लानी चाहिए. हमेशा उत्साह और साहस के बल पर आगे बढ़ते रहना चाहिए तभी हम अपने लक्ष्य को सफलता से प्राप्त कर सकते हैं.

विपत्तियों का आना स्वाभाविक हैं. हमें उनके बीच से गुजरना है और उनसे लहरों की तरह टकराते हुए अपने गन्तव्य तक पहुंचना हैं.

आशावादी दृष्टिकोण रखने से सभी कार्य सिद्ध होते हैं. कवि बच्चन की ये काव्य पंक्तियाँ इसी कथन की द्योतक हैं.

लघु जीवन लेकर आए हैं प्याले टूटा ही करते हैं फिर भी मदिरालय के अंदर मधु के घट हैं प्याले हैं.

उपसंहार- संक्षेप में कहा जा सकता है कि मनुष्य को जीवन में निराश नहीं होना चाहिए. परिस्थतियों से संघर्ष करते हुए हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिए. मन की दृढता ही सफलता ही साधक होती है.

कितना बड़ा ही तूफान क्यों न आ जाए. मनुष्य को साहसी नाविक की तरह हमेशा जीवन में आगे बढ़ते रहना चाहिए, इसी बढ़ने में सम्मान है, जीवन है इसलिए कवि गुप्त ने कहा हैं.

बनता बस उद्यम ही विधि है मिलती जिससे सुख की निधि समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को नर हो न निराश करो मन को.

नर हो न निराश निबंध 1000 शब्दों में – Nar Ho na Nirash karo man ko In Hindi

भूमिका : गुप्त की कविता में प्रयुक्त पुरुष शब्द विशेषण की तरह प्रयुक्त हुआ हैं जिसमें एक कर्मशील मानव की कल्पना की गई हैं. जो मननशील होने के साथ ही अपार साहसी भी है तथा गम्भीरता से विषयों पर मनन करता हैं.

प्रकृति में मानव को सर्वश्रेष्ठ जीव माना गया हैं क्योंकि जिसके पास बुद्धि बल है जिसके कारण वह वस्तुओं को अपने नजरिये से सोचता हैं.

मानव मष्तिष्क की शक्तियों के दम पर असम्भव कार्यों को भी आसान बना देता हैं. अपने पौरुष के दम पर वह जटिल कर्म को भी अपनी लग्न से बेहद सरल बना जाता हैं.

इसी पराक्रमी पौरुष के प्रतीक के रूप में नर शब्द का प्रयोग हुआ हैं. मानव निरंतर काम में लगे रहने की प्रवृत्ति के कारण मानसिक रूप से सशक्त हो जाता हैं. उसकी क्रियाशीलता उसके मन पर ही निर्भर करती हैं वही हारे मन का नर जीवन में कुछ नहीं कर सकता.

इस कविता की पहली पंक्ति नर हो न निराश करो मन को कहावत मन के जीते जीत है मन के हारे हार हैं को भी चरितार्थ करती हैं. क्योंकि मानव जीवन की द्रढ़ता या उसकी कमजोरी महज एक मनोभाव हैं जो मन पर निर्भर करती हैं.

कमजोर और हारे हुए मन वाले व्यक्ति का कोई महत्व नहीं होता हैं उसका जीवन अर्थहीन हो जाता हैं वही कर्मठ साहसी एवं मन के पक्के व्यक्ति के आगे संसार झुक जाता हैं. वह अपनी मन की शक्ति से असम्भव कार्य को भी सम्भव बना देता हैं.

छोटी सी असफलता से निराश न होना : नर हो, न निराश करों मन को कविता की पंक्ति मानव मन को विद्रोही बनाने वाली है जो निरंतर मन को चुनौती पेश करती हुई कहती हैं तुम साहसी नर हो महज थोड़ी सी दुनियावी तकलीफों से हार मानकर ही बैठ गये.

इस तरह हारे मन तो बुझदिल बैठते हैं जीवन में कठिन हालातों का सामना करना सीखों, तुम अपने निश्चय पर डटे रहे भले ही धरती फट जाए या आसमान टूट जाए.

तुम नर हो कायरता तुम्हारी निशानी नहीं हैं बल्कि साहस और मन हठ तुम्हारी पहचान हैं. अपने पौरुष को जगाओं इस तरह छोटी छोटी मुश्किलों से विचलित होना तुम्हारा काम नहीं हैं बल्कि डटकर इनका सामना करों.

जीवन में तुम्हारी प्रेरणा वह चिड़ियाँ होनी चाहिए जो कभी भी हार नहीं मानती हैं हजार बार उसका घर उजड़ जाने पर भी वह फिर से घौसला बनाने लग जाती हैं तुम उस चींटी से सीखों जो अपने सौ बार के प्रयास में भी विफल होने के बाद अपनी अपनी धुन को नहीं छोड़ती हैं.

एक चींटी अपने से कई गुना वजन का दाना लेकर सपाट दीवार पर चढती हैं वह यह जानती हैं कि उसे आसानी से सफलता मिलने वाली नहीं हैं वह हर बार गिरती है फिर उठ खड़ी होती हैं और अंत में सफल हो जाती हैं.

वह नन्हा सा जीव भी छोटी सी असफलता से निराश होकर बैठ जाने की बजाय फिर से अपने लक्ष्य को साधने के लिए परिश्रम करने लग जाती हैं फिर तुम तो नर हो तुम्हारे पास समस्त क्षमताएं हैं.

मानसिक बल का महत्व :

जब मानव कोई कार्य करता हैं तो उसके पीछे उसकी मानसिक क्षमता का सहारा होता हैं. हिंदी की एक मशहूर कहावत हैं मन के जीते जीत हैं मन के हारे हार हैं.

नर जब तक अपनी मानसिक अर्थात बौद्धिक क्षमता व सामर्थ्य की पहचान न कर लेता वह अन्य प्राणियों की तरह परजीवी बना रहता हैं. वही यदि वह अपनी क्षमता को पहचान लेता हैं तो उसे कोई शक्ति परास्त नहीं कर सकती.

जीवन में जहाँ तक साहस की बात हैं सभी लोग साहसी होते हैं बस अपने साहस को जगाने और समझने की आवश्यकता होती हैं.

गुरु गोविंद सिंह ने अपने शिष्यों के साहस को जगाते हुए कहा था कि एक सिख एक लाख सिखों के समान हैं तब दुनिया ने सिखों के साहस का लोहा माना था. गांधीजी ने भारतीयों के साहस को जगाया तो अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा था.

मानव में मानसिक बल एक स्तर तक होता हैं हम अपने आराध्य देव अथवा भगवान के नाम के साथ उसे जोड़कर देखते हैं किसी सत्ता में आस्था हमारे मानसिक बल को और अधिक मजबूत कर देता हैं.

हम उसी शक्ति को अपना सर्वेसर्वा मानकर कर्म करना प्रारम्भ करते हैं. हमें बहुत जूझना पड़ता हैं मगर कार्य में सफलता की सम्भावनाएं सर्वाधिक हो जाती हैं.

प्रकृति से प्रेरणा :

मानव प्रकृति में विद्यमान करोड़ो जीवों से इसीलिए सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि इसके पास बुद्धि तथा मानसिक बल हैं. प्रकृति या ईश्वर कठिनाई में विचलित होकर निराश हुए लोगों का साथ कभी नहीं देती.

बल्कि निरंतर विफलताओं के बाद भी कर्म में रत रहने वालों का सही अवसर पर सहयोग करती हैं. मानव को भी छोटे बड़े प्रकृति के जीवों से सीखना चाहिए.

प्रकृति के सिद्धांतों में संघर्ष साहस और परिश्रम का पहिया चलता रहता हैं. किसी समाज या राष्ट्र की उन्नति के लिए यह आवश्यक हैं कि उनके नागरिक साहस और परिश्रम को अपना जीवन मूल्य बनाए.

तभी सच्चे अर्थों में वे मानव कहलाने के हकदार होंगे. यदि हमारे पूर्वज भी जीवन की कठिनाइयों से हार मानकर यूँ ही बैठ जाते तो क्या हमारा देश आगे बढ़ पाता.

निरंतर आगे बढ़ते रहने का दूसरा नाम ही तो जीवन हैं. स्थिरता का गुण मृत्यु का हैं. जिस तरह नदी हजारों कोस की अपनी यात्रा के उपरान्त भी अपने लक्ष्य को पाने के लिए निरंतर प्रवाहित होती रहती हैं.

हमें भी उसी प्रकार आगे बढ़ते रहना हैं नदी की यात्रा में पहाड़ चट्टाने उनकी मुशिब्ते बनकर आती रहती हैं फिर भी वह अपना रास्ता बदल लेने की बजाय पत्थरों को तोडती हुई मंजिल की ओर चल पड़ती हैं.

जब नदी अपने पूर्ण वेग में लक्ष्य की ओर गमन करती हैं तो वह किसी से सहारे की आस नहीं रखती हैं वह रास्ते में आने वाली रूकावटों को रोकने के लिए किसी का सहारा नहीं चाहती बल्कि जो भी उसकी राह का रौडा बनता हैं.

वह उसे अपने साथ बहा ले जाती हैं. जीवन में हमें भी समस्याओं के बच निकलने की प्रवृत्ति रखने की बजाय साहस से उसका सामना कर उसे खत्म कर आगे बढ़ने की सोच रखनी चाहिए.

जब जीवन के मुसीबत भरे पल आते है तो हथियार डालकर गहरी निराशा में डूबकर बैठने से कुछ भी अच्छा नहीं होता बल्कि हालात बद से बदतर होते चले जाते हैं.

जब कबूतर के समक्ष बिल्ली या कुत्ता आता हैं तो वह अपनी आँखे यह सोचकर बंद कर लेता हैं कि ऐसा करने से वह उसे देख नहीं पाएगा. इस तरह के हथकंडे अपनाने से जीवन सच्चाई में कोई बदलाव नहीं आना हैं हमें जो सच्चाई दिखती हैं उसी रूप में लेकर सही हल की ओर सोचना चाहिए.

जीवन में परिवर्तन शीतलता

संसार में कुछ भी स्थिर नहीं हैं इस परिवर्तनशील संसार में जो आज हैं वह कल नहीं होगा. सुख दुःख जीवन यात्रा के बस क्षणिक अनुभव हैं जो जीवन नहीं हैं बल्कि उनका एक छोटा सा अंश हैं.

जिस तरह पेड़ की छाँव बदलती रहती है इसी तरह सुख व दुःख भी आते जाते रहते हैं. हमें हर स्थिति का आशावान रहकर सामना करना चाहिए तथा दुखों का पुरजोर तरीके से सयंम के साथ सामना करना चाहिए.

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो जग में रह कर कुछ नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो, न निराश करो मन को

संभलो कि सुयोग न जाय चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न निरा सपना पथ आप प्रशस्त करो अपना अखिलेश्वर है अवलंबन को नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो उठके अमरत्व विधान करो दवरूप रहो भव कानन को नर हो न निराश करो मन को

निज गौरव का नित ज्ञान रहे हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे सब जाय अभी पर मान रहे कुछ हो न तज़ो निज साधन को नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए सब वांछित वस्तु विधान किए तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो फिर है यह किसका दोष कहो समझो न अलभ्य किसी धन को नर हो, न निराश करो मन को

किस गौरव के तुम योग्य नहीं कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं जान हो तुम भी जगदीश्वर के सब है जिसके अपने घर के फिर दुर्लभ क्या उसके जन को नर हो, न निराश करो मन को

करके विधि वाद न खेद करो निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो बनता बस उद्‌यम ही विधि है मिलती जिससे सुख की निधि है समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को नर हो, न निराश करो मन को कुछ काम करो, कुछ काम करो

  • मैथिलीशरण गुप्त

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