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भारत की विदेश नीति पर निबंध | Essay on Foreign Policy Of India in Hindi

आज का निबंध  भारत की विदेश नीति पर निबंध Essay on Foreign Policy Of India in Hindi पर दिया गया हैं. भारत की विदेश नीति क्या है.

इसके आधार स्तम्भ उद्देश्य निर्धारक तत्व विशेषताएं मूल्यांकन के बिन्दुओ पर दिया गया हैं. उम्मीद करते है सरल भाषा में दिया गया इंडियन फोरेन पालिसी का यह निबंध आपको पसंद आएगा.

भारत विदेश नीति पर निबंध Essay on Foreign Policy Of India in Hindi

भारत विदेश नीति पर निबंध Essay on Foreign Policy Of India in Hindi

भारत की वर्तमान विदेश नीति निबंध 300 शब्द

भारत का हाल ही के वर्षों में दूसरे देशों के साथ संबंध का अध्ययन करें तब हमें एक नए भारत की नईं विदेश नीति नजर आती है। भारत अभी भी विश्व शांति का प्रबल समर्थक देश है।

भारत आज विश्व के बाकी देशों के साथ आगे बढ़ने और अपने राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित रखते हुए अपनी सामरिक स्वायत्तता को बनाएं हुए है। भारत विश्व के सभी देशों के साथ संवाद को बनाए रखने के प्रयास में है और सभी देशों के साथ अपने रिश्ते मजबूत कर रही है। 

वर्तमान में भारत अपने सामरिक हितों की पूर्ति के लिए अमेरिका और रूस दोनो को संतुलित रुप से साथ लेकर आगे बढ़ रहा है। भारत की वर्तमान  विदेश नीति India First पर आधारित है।

भारत रूस यूक्रेन युद्ध में अपनी तटस्था रखकर इसका परिचय दे चुका है। अमरीका के दबाव बनाने के बावजूद भारत अपने पक्ष पर कायम है। भारत रूस से तेल भी आयत कर रहा है।

इस पर कई देशों ने भारत पर दबाव बनाकर तेल आयात नहीं करने को कहा। जब एक एक विदेशी पत्रकार ने भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर से रूस से तेल खरीदने पर प्रश्र किया तो एस जयशंकर ने भारत का पक्ष बेबाकी से रखते हुए कहा कि भारत से कई गुना ज्यादा तेल यूरोपीय देश रूस से खरीद रहे है, और भारत रूस से तेल खरीदना जारी रखेगा।

भारत विश्व की ⅕ आबादी वाला देश है, जिसे बिना किसी भय के अपने राष्ट्रीय हित के फैंसले लेना का पूरा अधिकार है। जिस प्रकार विकसित देश अपने राष्ट्रीय हित को सर्वोपरी रखते हुए विदेश संबंधी फैसले लेती है, वही कार्य भारत भी कर रहा है। 

भारत ने आज तक कभी भी किसी पर पहले युद्ध शुरू नही करने की नीति पर कायम है। भारत अपनी सैन्य ताकत को भी लगातार बढ़ा रहा है।

Long Essay on Foreign Policy Of India in Hindi

विश्व संबंधो के मामले में भारत की एक सुदीर्घ परम्परा रही है. प्राचीन भारतीय वांग्मय में भारतीय समाज ने सम्पूर्ण मानवता के समग्र विकास व हितों की रक्षा व प्रकृति प्रदत भेदों को नकारते हुए विश्व परिवार की अवधारणा को इस प्रकार स्वीकार किया है.

“अंय निज परोवेति गणना लघुचेतसाम उदातचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्”

इसके पीछे भारतीय विदेश नीति का यह मन्तव्य रहा है कि हितों की टकराहट का रास्ता छोड़ सबके कल्याण व सबके सुख का मार्ग अपनाएँ-

“सर्वें भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत.”

कालान्तर में इन्ही श्रेष्ट जीवन मूल्यों के मार्ग पर चलकर भगवान् बुद्ध, महावीर स्वामी , सम्राट अशोक , विवेकानंद आदि ने मानवता का प्रचार किया.

अपनी स्वतंत्रता से लेकर आज तक भारत ने सदैव अन्य देशों के साथ मित्रता के सेतु बाधने का प्रयास किया है, भारत की विदेश नीति के इन्ही तत्वों के फलस्वरूप जिसे विश्व में आज बड़ा समर्थन हासिल है.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी विभिन्न मंचो से भारत ने अपनी प्राथमिकताओं एवं आदर्शों को दोहराया है. अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर भारत ने प्रारम्भ से ही अपने स्पष्ट विचार रखे है.

भारत ने सदैव उन राष्ट्रों की स्वतंत्रता की अवधारणा तथा आत्म निर्णय के अधिकार का समर्थन किया है. साथ ही सहस्तित्व व सबके हित के लिए बने अंतर्राष्ट्रीय संगठनो को भी भारत ने समर्थन प्रदान किया है.

भारत ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने रुख को स्पष्ट किया है. इस प्रकार एक राष्ट्र के रूप में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व ही भारत की विदेश निति तथा इनके उद्देश्य बेहद स्पष्ट थे. एक नजर भारत की विदेश नीति के तत्व, सिद्धांत, लक्ष्य एवं विशेषताएं पर.

भारत की विदेश नीति के उद्देश्य (indian foreign policy objectives and principles In Hindi)

भारत की विदेश नीति में मैत्री, शांति एवं समानता के सिद्धांतों को सर्वाधिक महत्व दिया गया है. भारत ने सभी के साथ सहयोग एवं सद्भाव रखते हुए सुद्रढ़ एवं सुस्पष्ट नीति का निरूपण किया है. भारत की विदेश नीति के तीन आधार स्तम्भ है- शान्ति, मित्रता और समानता.

विदेश नीति के उद्देश्यों में राष्ट्रीय हितों की पूर्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व होता है. भारत सदैव से ही अपने राष्ट्रीय हितों के साथ समायोजित करता रहा है.

हमारे मानवतावादी श्रेष्ट आदर्श एवंम श्रेष्ट जीवन मूल्य विदेश नीति के दीर्घकालीन आधार बने है. इसी सुसंस्कृत विचार ने भारत की विदेश नीति को हर काल में निरन्तरता दी है.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत भारतीय विदेश नीति के मूल तत्वों का समावेश किया गया है. भारत की विदेश नीति के प्रमुख उद्देश्य निम्न है.-

  • अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा व शांति के लिए प्रयत्न करना.
  • अंतर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थ द्वारा सुलझाना.
  • सभी राज्यों में परस्पर सम्मानपूर्ण सम्बन्ध बनाना.
  • अंतर्राष्ट्रीय कानून में आस्था.
  • सैनिक समझौतों व गुटबंदियों से अलग रहना.
  • उपनिवेशवाद व सम्राज्यवाद का विरोध.
  • रंगभेद का विरोध करना तथा अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत राष्ट्रों की सहायता करना.
  • सभी देशों के साथ व्यापार, उद्योग, निवेश, प्रोद्योगिकी अंतरण को सक्रिय व सहज बनाना.
  • अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के समक्ष आने वाली चुनौतियों के समाधान खोजने में सहयोग करना.
  • दक्षिण एशिया में मैत्री और सहयोग के आधार पर अपनी स्थति मजबूत करना.

भारत की विदेश नीति के निर्धारक तत्व (Determining elements of Indian foreign policy In Hindi)

सनः 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत के समक्ष कुछ विशेष परिस्थतियाँ व चुनौतियाँ थी. अतः तात्कालिक विदेश नीति के निर्धारण में इन तत्वों का महत्वपूर्ण स्थान रहा.

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय समूचा विश्व दो विरोधी गुटों में विभाजित था. अतः भारत ने अपने आप को गुटों की राजनीती से अलग बनाए रखने का निश्चय किया. अपना आर्थिक व सर्वागीण विकास करना भारत की पहली प्राथमिकता थी.

इसके लिए उसे विश्व के सभी देशों के सहयोग की आवश्यकता थी. इसी परिद्रश्य ने गुट निरपेक्ष आंदोलन को नयी अवधारणा की भूमिका तैयार की थी.

अपनी प्रतिरक्षा व्यवस्था को सुद्रढ़ कर देश की एकता व अखंडता को बनाए रखना भी अत्यंत महत्वपूर्ण था.

भारत की विदेश नीति के निर्धारण में भौगोलिक तत्वों का अपना महत्व है. प्रादेशिक सुरक्षा किसी भी राष्ट्र का परम लक्ष्य होता है. एक ओर भारत पूर्व सोवियत संघ तथा साम्यवादी चीन जैसी ताकतों के समीप था.

दूसरी ओर उसका दक्षिणी पूर्वी तथा दक्षिणी पश्चिमी हिस्सा समुद्र से घीरा है. अपनी सुरक्षा शांति व मैत्री में ही भारत का हित निहित है.

भारत की विदेश नीति के निर्धारक में प्राचीन संस्कृति का प्रभाव रहा है. विश्व बन्धुत्व विश्व शांति व मानवतावाद अतीतकाल से हमारे प्रेरक मूल्य रहे है.

स्वतंत्रता संग्राम के तत्कालिक नेतृत्वकर्ताओं के विचार ने भी हमारी विदेश नीति को प्रभावित किया है.

भारत की विदेश नीति की मुख्य विशेषताएं (features of indian foreign policy in Hindi)

गुट निरपेक्षता (concept of non alignment movement).

परिस्थतिवश भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय समूचा विश्व दो गुटों में विभाजित था. एक का नेतृत्व पूंजीवादी अमेरिका कर रहा था तथा दूसरे का साम्यवादी सोवियत संघ रूस.

भारत ने अपने वैचारिक अधिष्ठान व हित के कारण दोनों गुटों के परस्पर संघर्ष से दूर रहने का निर्णय किया. गुटों की राजनीति से अलग रहकर अपने विकास पर ध्यान केन्द्रित करता रहा, जो आगे जाकर गुटनिरपेक्षता की नीति कहलाई.

यह नीति विश्व की विभिन्न समस्याओं पर स्वतंत्र व न्यायपूर्ण विचार प्रकट करती है. इस दर्ष्टि से यह एक सकारात्मक व रचनात्मक नीति है.

गुटनिरपेक्षता के अंतर्गत कोई भी राष्ट्र दोनों विचारों से राष्ट्रहित में मैत्रीपूर्ण व संतुलित सम्बन्ध रखकर अपने आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है. गुट निरपेक्षता किसी भी सैनिक गुट से सैनिक संधियों से असहमति रखती है.

दासता से मुक्त हुए भारत सहित सभी नव स्वतंत्र राष्ट्रों के लिए इस आंदोलन ने एक नवीन मार्ग प्रशस्त किया. इस नीति का अवलम्बन करके नव स्वतंत्र राष्ट्र अपने विकास के नये आयाम खोल पाए.

साथ ही अंतर्राष्ट्रीय विवादों में सही गलत के आधार पर निर्णय के लिए एक तीसरे मंच का आविर्भाव हुआ.

गुट निरपेक्षता को एक आंदोलन का रूप देने में प्रधानमंत्री पंडित नेहरु, युगोस्लाविया के मार्शल टीटो, मिस्र के राष्ट्रपति नासिर तथा इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्ण की व्यापक भूमिका रही. पांचवें एवं छठे दशक में इस आंदोलन ने एक व्यवस्थित रूप प्राप्त कर लिया.

सन 1961 में आयोजित बेलग्रेड शिखर सम्मेलन में शान्ति एवं निशस्त्रीकरण पर बल दिया गया. इसका सोहलवा शिखर सम्मेलन 2 अगस्त 2012 में ईरान की राजधानी तेहरान में सम्पन्न हुआ.

इसमे 120 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, इसमे परमाणु निशस्त्रीकरण, मानवाधिकार व मानवीय मुद्दों पर व्यापक चर्चा हुई.

शीत युद्ध की समाप्ति तथा सोवियत संघ के विघटन के बाद गुट निरपेक्ष आंदोलन की उपयोगिता व प्रासंगिकता पर सवाल उठते रहे,

परन्तु यह कहा जा सकता है कि नवीन चुनौतियों व समस्याओं के समाधान के प्रयासों ने सन्गठन की प्रासंगिकता को बनाए रखा है.

इस आंदोलन ने नव उपनिवेशवाद, मानव अधिकार, पर्यावरण, आर्थिक व क्षेत्रीय सामाजिक जटिलताओं जैसे नवीन क्षेत्रों में अपना विस्तार करके अपनी महत्ता को सिद्ध कर दिया है.

भारत की विदेश नीति पंचशील सिद्धांत (India’s Foreign Policy Panchsheel Principle)

पंचशील गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म के पांच व्रतों का परिभाषिक शब्द है. पंचशील का अर्थ है आचरण के पांच सिद्धांत.

पंचशील को भारत की विदेश नीति के सन्दर्भ में सर्वप्रथम 29 अप्रैल 1954 को तिब्बत के सम्बन्ध में भारत और चीन के बिच हुए एक समझौते में प्रतिपादित किया एशिया के प्राय सभी देशों ने पंचशील के सिद्धांतो को अपनाया.

कालांतर में इस सिद्धांत को विश्व स्तरीय पहचान पत्र हुई, पंचशील के पांच सिद्धांत ये है.

  • अनाक्रमण की नीति
  • एक दूसरे की प्रादेशिक अखंडता और सर्वोच्च सता के प्रति सम्मान
  • समानता और परस्पर लाभ
  • एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना.
  • शांतिपूर्ण सहस्तित्व

पंचशील के सिद्धांत नैतिक शक्ति के प्रतीक है. पंडित नेहरु ने एक बार कहा था यदि इन सिद्धांतो को सभी देश मान्यता दे दे तो आधुनिक अनेक समस्याओं का समाधान मिल जाएगा.

प्रारम्भ में पंचशील को विश्व में भारत की विदेश नीति की महान उपलब्धी माना जाता था परन्तु 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर यह सिद्ध कर दिया कि पंचशील एक भ्रान्ति है.

इस आक्रमण से भारत की विदेश नीति व वैश्विक प्रतिष्ठा को भारी अघात लगा. आलोचकों ने इसे भारत की कुटनीतिक पराजय माना.

पंचशील के सिद्धांतों में भारत का आज भी विश्वास है, लेकिन वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय वातावरण में वैचारिक व नैतिक प्रतिबद्धता के अभाव के चलते इसकी व्यापक सफलता के सिमित अवसर प्रतीत होते है.

शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व (peaceful coexistence meaning in hindi)

भारतीय दर्शन में सदैव वसुधैव कुटुम्बकम् का समर्थन किया है. इसका तात्पर्य विभिन्न धर्मों तथा सामाजिक व्यवस्थाओं वाले देशों के साथ शान्तिपूर्वक सह-अस्तित्व में बने रहना है.

शान्ति पूर्ण सह-अस्तित्व पंचशील सिद्धांतो का ही विस्तार है. भारत की विदेश नीति के माध्यम से परस्पर विरोधी विचारधाराओं वाले राष्ट्रों को मैत्रीपूर्वक रहने का संदेश दिया है.

भारत ने स्वयं भी अधिकाधिक मैत्री सन्धियाँ व व्यापारिक समझौते किये है. यह नीति रचनात्मक विकास की आधारशिला है. भारत प्रारम्भ से ही युद्ध का विरोधी एवंम शांति व उसके लिए आवश्यक निशस्त्रीकरण का समर्थक रहा है.

युद्ध की संभावनाएं बनने पर भारत ने अनेक बार मध्यस्थ की भूमिका निभाई है. वर्तमान में विश्व में कई देशों के पास आणविक शक्ति है.

अर्द्ध विकसित व पिछड़े राष्ट्रों के विकास हेतु शान्ति का वातावरण अनिवार्य है. वास्तव में शांतिपूर्ण सहास्तित्व अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को दृढ तथा कुशल व्यावहारिक आधार प्रदान कर सकता है.

साम्राज्यवाद तथा रंगभेद का विरोध (Protest against imperialism and apartheid)

भारत स्वयं साम्राज्यवाद का शिकार रहा है. इसके दुष्परिणामों को अनुभव कर चूका है. इसलिए सम्पूर्ण दुनियाँ में साम्राज्यवाद के किसी भी रूप का वह प्रबल विरोध करता है.

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत ने एशिया तथा अफ्रीका के उन सभी राष्ट्रों का समर्थन किया, जो अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे.

भारत सभी लोगों के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करता है. तथा साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद को शोषण का साधन माना है. साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद का विरोध भारत की विदेश नीति के प्रारम्भिक आदर्शों में है.

जिसके माध्यम से प्रारम्भ से लेकर अब तक भारत ने शोषण के खिलाफ संघर्षशील राष्ट्रों का मनोबल बढ़ाने का कार्य किया है.

इसी प्रकार नस्लीय भेदभाव व रंगभेद का विरोध भारत की विदेश नीति की विशेषता रही है. भारत विश्व की सभी मानव नस्लों व प्रजातियों की समानता का पक्षधर है तथा नस्ल व रंग के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव का प्रबल विरोध करता है.

प्रजातीय विभेद समानता की अवधारणा के प्रतिकूल है तथा अंतर्राष्ट्रीय वातावरण को दूषित करता है. नस्ल भेद के विरोध के स्वरूप ही भारत ने भूतकाल में दक्षिण अफ्रीका के साथ अपने कुटनीतिक सम्बन्ध विच्छेद कर लिया.

अमेरिका में नीग्रो और रोडेशिया के अफ़्रीकी लोगों का भी भारत ने खुलकर समर्थन किया. इस नस्लवाद व रंगभेद की नीति पर चलने वाले विभिन्न देशों के विरुद्ध कई प्रकार के प्रतिबंध लगाने में सहयोग किया. भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से भी अपनी मुखर नीति को मुखर स्वर प्रदान किया.

संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन (india’s contribution to united nations)

भारत संयुक्त राष्ट्र संघ प्रारम्भिक सदस्य रहा है. तब से लेकर आज तक इस अंतर्राष्ट्रीय संस्था की नीति व कार्यों का समर्थन करता आ रहा है.

संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व शान्ति हेतु स्थापित अंतर्राष्ट्रीय संस्था है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत है भारत ने हमेशा ही इसके आदेशों व अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की अनुपालना की है.

भारत पाक विवाद पर भी भारत ने तत्काल ही संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयों की पालना की है. इससे भारत की इस संगठन के प्रति निष्ठा व प्रतिबद्धता सिद्ध हो जाती है. अनेक भारतीयों ने संयुक्त राष्ट्र संघ में उच्च पदों को सुशोभित कर अपने देश का गौरव बढ़ाया है.

आवश्यकता पड़ने पर भारत ने इसे अपनी शान्ति सेना भी प्रदान की है. वर्तमान में सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए प्रयत्नशील है.

भारत की विदेश नीति का मूल्यांकन | Evaluation Of indian Foreign Policy In Hindi

भारतीय विदेश नीति प्राय अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करने में समर्थ रही है. यह हमारी विदेश नीति की मुख्य विशेषता है. साथ ही इसने उच्च मानवीय मूल्यों पर आधारित होने के कारण इसे गौरवशाली भी माना जाता है.

हालांकि यदा कदा अपने सैनिक एवं आर्थिक हितों को लेकर भारतीय विदेश नीति आलोचना का शिकार रही है. कुछ विषयों को छोड़कर कहा जा सकता है.

कि विश्व के बदलते हुए परिद्रश्य व समय की मांग के अनुसार इसने अपने आप को परिवर्तित किया है. यही कारण है, कि इसमे निरन्तरता व गत्यात्मकता देखी जा सकती है.

भारत ने अपने आर्थिक पहलू को महत्व देना आरम्भ कर दिया है. व्यापार एवं वाणिज्य पर अपनी विदेश नीति को लेकर भारत गंभीर है.

भारत अमेरिका संबंधो में व्यापक सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है. 2010 तथा पुनः 2015 में अमेरिकी राष्ट्रपति राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा से दोनों देशों के बिच बदलाव के संकेत दिखाई दिए है. वर्तमान में डोनाल्ड ट्रम्प एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी अच्छा तालमेल है.

दक्षिण एशिया तथा विकासशील देशों के नेतृत्व की भूमिका भी भारत की विदेश नीति में आए सकारात्मक बदलाव की तरफ ईशारा करती है. भारत के परमाणु परिक्षण ने अणुशक्ति पर पश्चिम देशों व चीन के एकाधिकार को तोड़ दिया है.

यह सिद्ध करता है कि एक तरफ भारत की विदेश नीति शांति और सद्भाव के प्रति वचनबद्ध है, तो दूसरी तरफ अपने हितों की पूर्ति करने में समर्थ एवं सक्षम है.

भारत की विदेश नीति ने उसकी सांस्कृतिक पहचान को भी विस्तार दिया है. भारतीय कला, भोजन, वेशभूषा, संस्कृति आदि को अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली है.

वस्तुतः विगत दो दशकों में भारत ने आर्थिक एवंम तकनिकी प्रगति की है. अपनी गत्यात्मक विदेश नीति के कारण ही आज भारत को नई वैश्विक भूमिका प्राप्त हुई है.

भारत की विदेश नीति अतीत से लेकर वर्तमान तक गौरवशाली परम्पराओं को अभिव्यक्त करती है. विश्व शांति, मैत्री, विश्व बन्धुत्व एवं सहयोग जैसे श्रेष्ट आदर्श इसके प्रमुख स्तम्भ आधार रहे है.

हमारी विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हितों के साथ अंतर्राष्ट्रीय हितों का समायोजन करना है. भारत की विदेश नीति के प्रमुख निर्धारक तत्वों में तत्कालीन, भौगोलिक तत्व व विचारधारा का प्रभाव उल्लेखनीय है.

गुट निरपेक्षता भारत की विदेश नीति की एक प्रमुख विशेषता है. इसका तात्पर्य है कि तत्कालीन गुटों की राजनीती से आप को अलग रख कर अपने देश के विकास पर ध्यान देना.

भारत ने पंचशील के सिद्धांतो का प्रतिपादन किया जिसके अंतर्गत अनाक्रमण की नीति अपनाना, एक दूसरे की प्रादेशिक अखंडता का सम्मान, समानता, अहस्तक्षेप की नीति तथा शांतिपूर्ण सह अस्तित्व सम्मिलित है.

भारत रंग अथवा जाति प्रजाति के आधार पर भेदभाव करना समानता के अधिकार के प्रतिकूल मानता है. अतः भारत नस्लवाद व रंग भेद का विरोध करता है. ये indian foreign policy के मुख्य objectives & principles रहे है.

अंतर्राष्ट्रीय शांति व बन्धुत्व को बनाए रखने के लिए भारत अंतर्राष्ट्रीय संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन करता है. विश्व के बदलते हुए परिद्रश्य एवं परमाणु निशस्त्रीकरण पर परमाणु संपन्न राष्ट्रों की भेदभावपूर्ण नीति से क्षुब्ध होकर भारत ने अपने परमाणु कार्यक्रम को नया रूप प्रदान किया है.

किसी भी देश की विदेश नीति तैयार करने वाले निर्माताओं का दूरदर्शी होना निहायत जरुरी हैं. देश के विदेश विभाग में एक नियोजन मंत्रालय होना चाहिए.

जो भविष्य की संभावनाओं के बारे में सटीक अनुमान और आंकलन करके देश की फोरेन पालिसी को उस दिशा की और ले जाने के लिए सुझाव दे सके. आने वाले समय का सही सही पूर्वानुमान लगा लेना ही एक सफल विदेश नीति का अहम लक्ष्य होता हैं.

  • गठबंधन की राजनीति भारत में उदय
  • धर्म और राजनीति पर निबंध
  • भारत और मध्यपूर्व सम्बन्ध

उम्मीद करता हूँ दोस्तों भारत की विदेश नीति पर निबंध Essay on Foreign Policy Of India in Hindi का यह निबंध आपको पसंद आय होगा. यदि आपको भारतीय विदेश नीति पर दिया गया निबंध पसंद आय हो तो अपने दोस्तों के साथ जरुर शेयर करें.

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भारतीय विदेश नीति: उद्देश्य और विकास (Indian Foreign Policy: Objectives and Evolution)

किसी के आदर्शों, हितों, उद्देश्यों और अन्य सिद्धांतों को बढ़ावा देने की नीति को किसी देश की विदेश नीति कहा जाता है  जो घरेलू स्तर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदलती परिस्थितियों के जवाब में लगातार बदलती रहती है।

भारत  दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक  है और प्राचीन काल से ही भारत की विदेश नीति स्वतंत्र रही चाहे वह मौर्य साम्राज्य हो, गुप्त साम्राज्य हो या मुगल साम्राज्य हो।

 औपनिवेशिक काल के दौरान अंग्रेज भारत की विदेश नीति के निर्धारक थे, जिन्होंने भारत का उपयोग अपने लाभ के लिए किया   ।  लेकिन आजादी के बाद भारत की विदेश नीति फिर से भारतीय हितों की पूर्ति कर रही है।

किसी राष्ट्र की विदेश नीति उसके इतिहास, संस्कृति, भूगोल और अर्थव्यवस्था, घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश  सहित कई कारकों से आकार लेती है । किसी देश की विदेश नीति में निरंतरता और परिवर्तन के तत्वों को इन कारकों और ताकतों के महत्वपूर्ण प्रभाव के संदर्भ में समझाया जा सकता है।

भारत या किसी भी देश की विदेश नीति दो कारकों से आकार लेती है –  घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय  । घरेलू स्तर पर भारत के इतिहास, संस्कृति, भूगोल और अर्थव्यवस्था ने भारत की विदेश नीति के उद्देश्यों और सिद्धांतों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

अंतर्राष्ट्रीय  कारक, जो नाटो और वारसॉ संधि के बीच शीत युद्ध की प्रतिद्वंद्विता, संयुक्त राष्ट्र की स्थापना, हथियारों की दौड़, विशेष रूप से परमाणु हथियारों की दौड़, उपनिवेशवाद विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी आदि द्वारा चिह्नित है  ।

3  एस  – रणनीतिक स्वायत्तता के लिए  स्थान ,  स्थिरता  – भीतर और पड़ोस दोनों,  ताकत  – आर्थिक, सैन्य और भारतीय हितों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए नरम शक्ति – का उल्लेख कई विशेषज्ञों द्वारा भारतीय उद्देश्यों को संक्षेप में प्रस्तुत करने के सर्वोत्तम तरीके के रूप में किया गया है। विदेश नीति।

आज भारत सैन्य क्षेत्र, अंतरिक्ष, धार्मिक संस्कृति आदि में विश्व के चुनिंदा देशों में है और भारत ने अपनी विदेश नीति निर्माण में इनका बेहतर उपयोग किया है।

भारत की विदेश नीति के उद्देश्य एवं सिद्धांत (Objectives and Principles of India’s Foreign Policy)

भारत की विदेश नीति के विविध उद्देश्य राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय हितों का मिश्रण प्राप्त करते हैं। भारत ने अपनी सुरक्षा और सामाजिक-आर्थिक उन्नति हासिल करने की कोशिश की है और साथ ही सभी देशों और लोगों के लिए शांति, स्वतंत्रता, प्रगति और न्याय के लिए काम किया है।

भारतीय विदेश नीति के मूल उद्देश्य:

  • इसका उद्देश्य देश की राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा और इसकी बाहरी सुरक्षा को बढ़ावा देने के संदर्भ में  राष्ट्रीय हितों की  रक्षा करना और आगे बढ़ाना है ।
  • विश्व शांति को बढ़ावा देना  , सैन्य खतरों को रोकना या उनका विरोध करना, निरस्त्रीकरण की पहल का समर्थन करना, शांतिपूर्ण पड़ोस और युद्धों से बचने के लिए काम करना  ।
  • वैचारिक, राजनीतिक और अन्य मतभेद वाले देशों के बीच  सद्भाव और सहयोग को  बढ़ावा देना ।
  • अपनी विदेश नीति को बिना किसी भेदभाव के  सभी लोगों और राष्ट्रों के समान अधिकारों की प्राप्ति की दिशा में निर्देशित करना।
  • भारत के घरेलू विकास को बढ़ावा देने के लिए  अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी का  लाभ उठाना ।
  • वैश्विक शासन के मामलों पर  भारतीय प्रतिनिधित्व और नेतृत्व को आगे बढ़ाना ।

उपरोक्त उद्देश्यों को प्राप्त करने में निम्नलिखित सिद्धांतों ने भारत का मार्गदर्शन किया है:

  • उपनिवेशवाद-विरोध, साम्राज्यवाद-विरोध और नस्लवाद-विरोध
  • अन्य देशों के साथ मतभेदों को सुलझाने में  बल प्रयोग से बचने का सिद्धांत  ।
  • संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक और क्षेत्रीय संगठनों को मजबूत करना और  अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव और सहयोग के लिए उपयोगी उपकरण के रूप में अंतर्राष्ट्रीय कानून का विकास करना।

संक्षेप में, विदेश नीति के माध्यम से भारत राष्ट्रों के समाज में अन्य देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संपर्कों से लाभ उठाने का प्रयास करते हुए  शांतिप्रिय, परिपक्व, कानून का पालन करने वाला और भरोसेमंद देश के  रूप में देखा जाना चाहता है ।

भारत की विदेश नीति का विकास (Evolution of India’s Foreign Policy)

भारत की विदेश नीति के विकास  का पता भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के स्वतंत्रता-पूर्व दिनों से लगाया जा सकता है  ।  1921 में नई दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक  ” भारत के विदेशी संबंधों के इतिहास में एक मील का पत्थर” थी। पहली बार,  कांग्रेस ने विदेश नीति पर एक प्रस्ताव पारित किया  , जिसमें यह कथन शामिल था कि ”  भारत की वर्तमान सरकार किसी भी तरह से भारतीय राय का प्रतिनिधित्व नहीं करती है”  । भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने  1927 में मद्रास  में आयोजित अपने सत्र में एक और महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया , जिसमें इस आवश्यकता पर बल दिया गया। ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप के बिना शेष विश्व के साथ भारत के विदेशी संबंधों को स्वतंत्र रूप से संचालित करना  ।  दरअसल, भारत की विदेश नीति की नींव कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन  में रखी गई थी ।

1921 से 1947 तक कांग्रेस के प्रस्तावों के मूल्यांकन से पता चलता है कि ”  फासीवाद के विकास में खतरों के बारे में तीव्र जागरूकता, सोवियत संघ की आकांक्षाओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण, पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्ति की निरंतरता या विस्तार की लगातार आलोचना” दुनिया, और नस्लीय, सामाजिक और आर्थिक भेदभाव के सभी रूपों का एक संवेदनशील प्रदर्शन  ।

1947 में स्वतंत्र होने के बाद ही भारत ने अपनी आवश्यकताओं और मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय स्थिति के आलोक में अपनी विदेश नीति विकसित करना शुरू किया। अपनी स्वतंत्रता के बाद से,  भारतीय विदेश नीति ने दुनिया के सभी देशों के साथ मित्रता और सहयोग के सिद्धांतों की वकालत की, भले ही उनकी राजनीतिक व्यवस्था कुछ भी हो  । विशेषकर  पड़ोसी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करना  भारत की विदेश नीति का प्रमुख मुद्दा था।

स्वतंत्रता के बाद की विदेश नीति  गुटनिरपेक्षता  के सिद्धांत  पर तैयार की गई थी क्योंकि भारत ने अपनी स्वतंत्रता उस समय प्राप्त की थी जब विश्व पर पहले से ही शीत युद्ध के बादल मंडरा रहे थे, जिसके परिणामस्वरूप उसे न केवल अपनी  शक्ति का अनुभव हुआ। ‘महाशक्तियों  ‘ की राजनीति.  इससे स्वाभाविक रूप से भारत ने अपनी विदेश नीति को गैर-भागीदारी और गुटनिरपेक्षता  की तर्ज पर तैयार किया जो भारत की विदेश नीति का मूल सिद्धांत बन गया।

Prime Ministers of India

नेहरू के अधीन भारत (India under Nehru)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्वावधान में जवाहरलाल नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में  निर्णायक और गतिशील भूमिका निभाई।  नेहरू को उपयुक्त रूप से  भारत की विदेश नीति का मुख्य वास्तुकार  माना जाता है ।  जवाहरलाल नेहरू ने 7 सितंबर 1946  को नई दिल्ली से एक प्रसारण में बुनियादी नीति की रूपरेखा तैयार की थी जिसमें उन्होंने कुछ विदेश नीति लक्ष्य निर्धारित किए थे। इन लक्ष्यों में शामिल हैं:  उपनिवेशवाद और नस्लवाद का अंत, सत्ता गुटों से स्वतंत्रता, और चीन और एशियाई पड़ोसियों के साथ घनिष्ठ संबंध  ।

नेहरू ने यह घोषणा करके विदेश नीति की रूपरेखा तैयार की कि भारत हमेशा सत्ता की राजनीति से दूर रहेगा। उन्होंने यह भी कहा कि, ”  जहां भी स्वतंत्रता खतरे में है या न्याय को खतरा है या जहां आक्रामकता होती है, हम तटस्थ नहीं हो सकते हैं और न ही रहेंगे।  “नेहरू संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी विश्वास को बढ़ाने में विश्वास करते थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत को कभी भी महान शक्तियों की सत्ता की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं रही।

गुटनिरपेक्षता एक सकारात्मक विचार है  ; इसका मतलब यह था कि भारत ने अपने हितों को प्रभावित करने वाले मुद्दे पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता बरकरार रखी। किसी संकट में शामिल किसी एक या दूसरे राष्ट्र का समर्थन करने की कोई पूर्व प्रतिबद्धता नहीं थी।

नेहरू के समय में भारत को घरेलू मोर्चे पर गरीबी उन्मूलन से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर शीत युद्ध के मुद्दे तक कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। भारत को आर्थिक विकास और राजनीतिक स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए शांति और स्थिरता के दौर की आवश्यकता थी। इस प्रकार, यह माना जाता था कि किसी भी प्रमुख शक्ति के साथ गठबंधन करने से यह प्राथमिक लक्ष्य नष्ट हो जाएगा, जिससे भारत  शीत युद्ध के टकराव  के क्षेत्र में सिमट जाएगा । राष्ट्रीय एकीकरण और विकास के कार्य को देखते हुए, भारत हथियारों की दौड़ में अपनी ऊर्जा और दुर्लभ संसाधनों का निवेश करने में असमर्थ हो सकता है। इसलिए नेहरू के अधीन भारत ने निम्नलिखित नीतियों का पालन किया:

नेहरू और पंचशील (Nehru and Panchsheel)

‘पंचशील’ शब्द  ‘पांच वर्जनाओं’ को दर्शाता है , जो  प्राचीन बौद्ध ग्रंथों  में वर्णित भारतीय भिक्षुओं के व्यक्तिगत व्यवहार को नियंत्रित करते थे । नेहरू के अधीन, यह विचार अंतर्राष्ट्रीय राज्यों के बीच संबंधों का मार्गदर्शन करने वाला एक केंद्रीय विषय बनना था।

Panchsheel agreement

भारत-चीन संबंधों को नियंत्रित करने के लिए वही सिद्धांत प्रस्तावित किया गया था  , जो दोनों देशों के बीच एक व्यापार समझौते में निहित था, जो तिब्बत पर उनके द्विपक्षीय व्यापार संचालन को सुव्यवस्थित करता था। इसके आधार पर, भारत और चीन अपने संबंधों के संचालन में निम्नलिखित पाँच सिद्धांतों का पालन करने पर सहमत हुए थे:

  • (i) एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के लिए पारस्परिक सम्मान,
  • (ii) आपसी गैर-आक्रामकता,
  • (iii) पारस्परिक गैर-हस्तक्षेप,
  • (iv) समानता और पारस्परिक लाभ, और
  • (v) शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व।

पंचशील समझौते में निहित सिद्धांत बाद में न केवल दोनों देशों के बीच, बल्कि अन्य सभी देशों के साथ उनके संबंधों को भी निर्देशित करने वाले थे। इसे विश्व में  शांति और सुरक्षा  की नींव रखने के रूप में माना गया । ऐसा माना गया कि इससे  नए स्वतंत्र देशों को आवाज मिलेगी, साथ ही दुनिया में युद्ध की संभावना भी कम होगी  ।

1955 में  29 अफ्रीकी-एशियाई देशों के बांडुंग सम्मेलन के दौरान, पंचशील सिद्धांतों को इसकी घोषणा में उल्लिखित अंतर्राष्ट्रीय शांति और सहयोग के दस सिद्धांतों में शामिल किया गया था  । 1957 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी इन सिद्धांतों को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया। इन्हें गुटनिरपेक्ष आंदोलन के मूल सिद्धांतों के रूप में भी स्वीकार किया गया।

अनिवार्य रूप से, ये सिद्धांत  बल के प्रयोग न करने, सहिष्णुता के दृष्टिकोण और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के  लिए खड़े हैं । यह सभी देशों को  अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाए रखते हुए सहयोग से शांति और समृद्धि की दिशा में काम करने की अनुमति देता है।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन (Non-Alignment Movement)

गुटनिरपेक्षता का उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध के बाद  संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा गठित किसी भी सैन्य गठबंधन में शामिल न होकर विदेशी मामलों में राष्ट्रीय स्वतंत्रता बनाए रखना था।  गुटनिरपेक्षता  न तो तटस्थता थी, न गैर-भागीदारी और न ही अलगाववाद  । यह एक गतिशील अवधारणा थी जिसका अर्थ था  किसी सैन्य गुट के प्रति प्रतिबद्ध होना नहीं  बल्कि प्रत्येक मामले के गुण-दोष के अनुसार अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर  स्वतंत्र रुख  अपनाना ।

नेहरू गुटनिरपेक्षता में विदेश नीति के क्षेत्र में भारत की स्वतंत्रता की गारंटी देखते थे। उनके अनुसार, किसी भी विश्व गुट में शामिल होने का मतलब केवल एक ही होगा,  “किसी विशेष प्रश्न के बारे में अपना दृष्टिकोण छोड़ना और उस प्रश्न पर दूसरे पक्ष के दृष्टिकोण को अपनाना, उसे खुश करना और उसका पक्ष प्राप्त करना।  “

भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) को खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  गुटनिरपेक्ष आंदोलन की कल्पना पांच नेताओं ने की थी – जवाहरलाल नेहरू, गमाल अब्देल नासिर (मिस्र), सुकर्णो (इंडोनेशिया) क्वामे नक्रूमा (घाना) और यूगोस्लाविया के जोसिप ब्रोज़ टीटो। NAM का पहला शिखर सम्मेलन 1961 में बेलग्रेड में आयोजित किया गया था।  गुटनिरपेक्ष आंदोलन नए स्वतंत्र राज्यों का एक समूह था, जिन्होंने पूर्व औपनिवेशिक आकाओं के आदेशों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, और मुद्दों पर अपने निर्णय के अनुसार कार्य करने का निर्णय लिया था। अंतरराष्ट्रीय चिंता ।

NAM के संस्थापक

NAM कम से कम दो कारणों से भारत के लिए महत्वपूर्ण था:

  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने  भारत को योग्यता के आधार पर स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय निर्णय लेने की अनुमति दी  जिससे उसके हितों की पूर्ति हुई।
  • इसने  भारत को दो महाशक्तियों के बीच संतुलन बनाने में सक्षम बनाया  , क्योंकि कोई भी महाशक्ति भारत पर दबाव नहीं डाल सकती थी या उसे हल्के में नहीं ले सकती थी।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने एक विचारधारा को प्रतिबिंबित किया कि एक  संप्रभु राज्य, चाहे कितना भी बड़ा या छोटा हो,  अपने मूल्यांकन और आवश्यकता के आधार पर एक स्वतंत्र विदेश नीति अपना सकता है। यह आंदोलन अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के लोकतंत्रीकरण की आवश्यकता को भी मान्यता देता है, जो उभरते देशों की संयुक्त राष्ट्र, डब्ल्यूटीओ और विश्व बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय निकायों में अधिक हिस्सेदारी देने की मांग की पृष्ठभूमि में अभी भी बहुत प्रासंगिक है।

चीन और पाकिस्तान के साथ भारत के संघर्ष और दक्षिण एशिया से जुड़े कुछ प्रमुख रिश्तों में बड़े बदलावों के बावजूद नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति जारी रही।  संयुक्त राज्य अमेरिका-पाकिस्तान गठबंधन के गठन और पतन के दौरान, भारत और यूएसएसआर और चीन-भारत संबंधों के बीच घनिष्ठ संबंधों के विकास के दौरान, भारत गुटनिरपेक्षता की नीति और विश्व शांति के लिए अपने समर्थन पर कायम रहा।

कश्मीर मुद्दा (Kashmir Issue)

भारत के विदेशी संबंधों के सबसे महत्वपूर्ण  कारक के रूप में कश्मीर ने भारतीय उपमहाद्वीप में शीत युद्ध ला दिया, जिसके परिणामस्वरूप सैन्य हथियारों पर भारी खर्च हुआ  । भारत की आज़ादी के बाद से, और 1962 के बाद और भी अधिक बल मिलने के बाद, कश्मीर भारत की रक्षा में एक प्रमुख कारक बना हुआ है।

रियासत जम्मू और कश्मीर मानचित्र 1947

कश्मीर प्रश्न पर नेहरू का दृष्टिकोण तब भी सामने आया जब यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र को भेजा गया था। संयुक्त राष्ट्र तब एक शिशु और एक प्रयोगात्मक संगठन था, जो  पश्चिमी शक्तियों के पक्ष में था।  इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में भेजे जाने पर, नेहरू ने मार्च 1948 में संविधान सभा में कहा था कि ”  इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में हमारा संदर्भ देना विश्वास का कार्य था, क्योंकि हम प्रगतिशील अहसास में विश्वास करते हैं।” एक विश्व व्यवस्था और एक विश्व सरकार की।  संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें प्रस्ताव दिया गया कि  कश्मीर विवाद को भारत और पाकिस्तान के बीच आपसी बातचीत के माध्यम से हल किया जाना चाहिए  , और जनमत संग्रह की भी बात कही गई। हालाँकि, भारत ने किसी भी विकल्प को खारिज कर दिया संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा प्रस्तावित  जनमत संग्रह कराना  या कश्मीर मुद्दे को सुलझाने में पाकिस्तान की इच्छानुसार  किसी भी बाहरी हस्तक्षेप को स्वीकार करना ।  चूँकि इस जटिल मुद्दे को सुलझाने में कोई सफलता नहीं मिली और सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव पर निराशा हुई, पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ अघोषित युद्ध छेड़कर  कश्मीर को हासिल करने का फैसला किया , और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए गैर-शांतिपूर्ण तरीकों का सहारा लेने का संकल्प लिया।

भारत-चीन संबंध और युद्ध (Indo-China Relation and War)

नेहरू का विचार था कि भारत और चीन में बहुत कुछ समान है क्योंकि दोनों देश औपनिवेशिक शक्तियों के हाथों पीड़ित थे, और गरीबी और अविकसितता को खत्म करने के लिए भी संघर्ष कर रहे थे। इसलिए उम्मीद थी कि दोनों देश एशिया को उसकी सही जगह पर लाने के लिए हाथ मिलाएंगे।  अपनी ओर से, भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन के प्रतिनिधित्व के लिए आवाज़ उठाई।  भारत ने कोरियाई युद्ध में चीन को आक्रामक राज्य घोषित करने की अमेरिकी स्थिति का समर्थन नहीं किया।

तिब्बती संकट (Tibetan Crisis)

1949 की चीनी क्रांति के बाद,  चीन तिब्बत क्षेत्र को अपने में मिलाना चाहता था, और इसे चीन का अभिन्न अंग होने का दावा करता था  ।  1950 में चीन ने इस क्षेत्र के पूर्वी भाग पर आक्रमण कर चामदो क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया।  भारत ने जहां इस आक्रामकता का विरोध किया, वहीं तिब्बत के अनुरोध के जवाब में मध्यस्थता की पेशकश भी की, जिसे चीन ने घरेलू मुद्दा बताकर खारिज कर दिया।  पंचशील समझौते (1954) के तहत, भारत ने स्वेच्छा से तिब्बत पर अपने सैन्य, संचार और डाक, और अन्य अधिकार छोड़ दिए जो उसे 1904 की एंग्लो-तिब्बती संधि के अनुसार अंग्रेजों से विरासत में मिले थे। भारत ने तिब्बत क्षेत्र पर चीन के दावे को मान्यता दी . उस समय, चीन ने भी भारत को आश्वासन दिया था कि तिब्बत को बहुत अधिक स्वायत्तता दी जाएगी, हालाँकि प्रतिबद्धता अधूरी रही।

1962 चीनी आक्रमण (1962 Chinese Attack)

नेहरू जानते थे कि 1949 की चीनी क्रांति एक मूलभूत परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करती है। इसके अलावा, वह चीन से संभावित खतरे से पूरी तरह अवगत थे क्योंकि नवंबर 1959 में लोकसभा में अपने भाषण में उन्होंने कहा था, “  हम यह महसूस करने के लिए पर्याप्त इतिहास जानते हैं कि एक मजबूत चीन आम तौर पर एक विस्तारवादी चीन है।  ” 1962 का भारत-चीन युद्ध एक  सीमा विवाद  था जिसकी परिणति युद्ध में हुई।  विवाद का कारण बनने वाले दो मुद्दे थे  :

  • सबसे पहले,  तिब्बत अतीत में एक बफर राज्य हुआ करता था, लेकिन चीन द्वारा इसके कब्जे ने सीमा मुद्दे को जटिल बना दिया।
  • दूसरा,  ब्रिटिश काल में भारत और चीन के बीच की सीमा मैकमोहन रेखा से तय होती थी। चीन ने इस रेखा को मान्यता देने से इनकार कर दिया  .

पंचशील समझौते के बाद भारत को उम्मीद थी कि मैकमोहन रेखा के जरिए सीमा विवाद का समाधान हो जाएगा लेकिन प्रयास व्यर्थ साबित हुए। सितंबर, 1957 में ही भारत सरकार को  1200 किमी लंबे चीनी सैन्य राजमार्ग के बारे में पता चला जो अक्साई चिन से होकर गुजरता था  ।  चीन ने भी इस क्षेत्र को अपने मानचित्रों में अपने क्षेत्र के रूप में दिखाना शुरू कर दिया। भारत ने इस आक्रमण का विरोध किया। बाद में चीन ने दलाई लामा को शरण देने के भारत के फैसले का विरोध किया।  ये सीमा विवाद अंततः 1962 में युद्ध का कारण बने जब चीन ने अक्साई चिन और नेफा दोनों पर तेजी से और बड़े पैमाने पर हमला किया।  चीन के मकसद का आकलन करने में भारत से भी गलती हो गई. हालाँकि चीन संयुक्त राज्य अमेरिका और यूएसएसआर दोनों के विरोध के कारण तेजी से पीछे हट गया, लेकिन  उसने अक्साई चिन को बरकरार रखा और नेफा को भारतीय नियंत्रण में छोड़ दिया। .

चीनी इरादों का सही आकलन करने में विफलता के कारण नेहरू को अपने पहले अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा  । युद्ध के बाद भारत की विदेश एवं सुरक्षा नीति में निश्चित परिवर्तन आया।  दो साल के भीतर चीन ने परमाणु परीक्षण किया और भारत को रक्षा निवेश बढ़ाना पड़ा  . इस प्रकार,  भारत का परमाणु परीक्षण पाकिस्तान और चीन दोनों द्वारा उत्पन्न खतरे का परिणाम था।  इसके अलावा, युद्ध ने भारत-चीन संघर्ष को वैश्विक शीत युद्ध का हिस्सा बना दिया, क्योंकि भारत ने यूएसएसआर के साथ मैत्री संधि की और चीन ने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अपने संबंधों में सुधार किया। इस प्रकार, युद्ध ने भारत-चीन संबंधों पर भारी असर डाला और रिश्ते को फिर से सामान्य होने में कई साल लग गए।

लाल बहादुर शास्त्री के अधीन विदेश नीति (Foreign Policy under Lai Bahadur Shastri)

जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधान मंत्री बने  । शास्त्री ने ज्यादातर  नेहरू की गुटनिरपेक्षता की नीति को जारी रखा, लेकिन सोवियत संघ के साथ भी घनिष्ठ संबंध बनाए  ।

सिरिमा-शास्त्री समझौता (1964) Sirima-Shastri Pact (1964)

तत्कालीन सीलोन में भारतीय तमिलों के मुद्दे को सुलझाने के लिए शास्त्री ने 1964 में श्रीलंका के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए  । इस समझौते को एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा गया क्योंकि इसने  भारत और सीलोन  के बीच लगातार बनी रहने वाली अप्रियता के कारण को दूर कर दिया । समझौते के अनुसार, 525,000 भारतीय तमिलों को वापस भेजा जाना था, जबकि 300,000 को श्रीलंकाई नागरिकता प्रदान की जानी थी।  यह समझौता 31 अक्टूबर 1981  तक किया जाना था । हालाँकि, 1982 में, भारत ने नागरिकता के लिए किसी भी अन्य आवेदन पर विचार करने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि 1964 का समझौता समाप्त हो गया है।

चीन का परमाणु विस्फोट 1964 China’s Nuclear Explosion 1964

शास्त्री जी के समय में ही चीन ने अपने परमाणु बम का परीक्षण किया  । ऐसा कहा गया था कि बम पूरी तरह से चीनी लोगों को अमेरिकी परमाणु खतरे से बचाने के लिए था। हालाँकि  चीन ने बम का “पहले उपयोग न करने” की नीति पर जोर दिया  , फिर भी इसने न केवल भारत में बल्कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र के अन्य देशों में भी असुरक्षा की भावना पैदा की। हालाँकि,  शास्त्री के काल में, बम समर्थक समर्थकों ने भारत को परमाणु बम के लिए मजबूर किया  । इस प्रकार,  जहां तक ​​परमाणु हथियार नीति का सवाल है, नेहरू के युग का प्रभाव इसी अवधि से कम होना शुरू हो गया।

भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965) India-Pakistan War (1965)

1965 के युद्ध को भारत के विदेशी संबंधों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण विकास माना गया है क्योंकि यह युद्ध नेहरू युग के बाद हुआ था और यह लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। वास्तव में, 1965 का युद्ध, जिससे भारत-पाक संबंधों में सुधार का मार्ग प्रशस्त होने की उम्मीद थी,  कश्मीर समस्या को हल करने में विफल रहा  ।  1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध एक अघोषित युद्ध था  । कश्मीर मुद्दा चारा प्रदान कर रहा था क्योंकि पाकिस्तान इस मुद्दे को फिर से खोलने की मांग कर रहा था और भारत ने कहा कि, कश्मीर का भारत का हिस्सा होना एक स्थापित तथ्य है। युद्ध के ये निम्नलिखित कारण थे:

  • 1965 में, कश्मीर में स्थिति अस्थिर हो गई क्योंकि शेख अब्दुल्ला और अन्य लोगों के अनुयायियों ने घाटी में काफी अशांति पैदा कर दी  । इस प्रकार, पाकिस्तानी नेतृत्व ने सोचा कि हस्तक्षेप के लिए यह सही समय है।
  • इसके अलावा,  पाकिस्तान बेहतर सैन्य हथियारों से लैस था जो उसने संयुक्त राज्य अमेरिका से हासिल किए थे  । 1962 के चीन-भारत युद्ध की पराजय के बाद भारत अपनी सुरक्षा में सुधार कर सके, इससे पहले पाकिस्तान भी हमला करना चाहता था।
  • चीन के साथ घनिष्ठ संबंधों से भी पाकिस्तान का हौसला बढ़ा,  जिसका उद्देश्य भारत को अलग-थलग करना था।

ताशकंद घोषणा (Tashkent Declaration))))))

सोवियत संघ के अच्छे कार्यालयों के तहत भारत और पाकिस्तान के बीच ताशकंद घोषणा पर हस्ताक्षर किए गए थे। दोनों पक्ष सभी कब्जे वाले क्षेत्रों से हटने और युद्ध-पूर्व स्थिति में लौटने पर सहमत हुए।  वे  युद्ध बंदियों को वापस भेजने और बल प्रयोग न करने पर भी सहमत हुए, इस प्रकार शांतिपूर्ण तरीकों से अपने मतभेदों को सुलझाया जाएगा  । हालाँकि,  ताशकंद घोषणा कश्मीर के मूल मुद्दे को हल करने में विफल रही  ।

भारत-पाक युद्ध से  दो बातें स्पष्ट थीं,  एक तो यह कि मलेशिया और सिंगापुर को छोड़कर कोई भी देश भारत के समर्थन में खुलकर सामने  आने को तैयार नहीं था  ।  यहां तक ​​कि  सोवियत संघ ने भी, यह दोहराने के बाद कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, अन्य कई देशों की तरह, जब पाकिस्तान की खिंचाई की बात आई तो तटस्थता की मुद्रा अपनाने का फैसला किया  ।

इंदिरा गांधी के अधीन विदेश नीति (Foreign Policy under Indira Gandhi)

शास्त्री जी के आकस्मिक निधन  के बाद इंदिरा गांधी ने सत्ता संभाली । उन्होंने बड़े पैमाने पर  गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया, लेकिन उनकी नीति आदर्शवादी की तुलना में अधिक यथार्थवादी थी  । शास्त्री के विपरीत, इंदिरा गांधी ने नेहरू की बेटी के रूप में अधिकांश देशों का दौरा किया था।

इंदिरा गांधी की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य  विश्व में भारत की खोई हुई स्थिति को पुनः प्राप्त करना था। विश्व मामलों में उनकी सक्रिय भागीदारी के कारण  उन्हें विश्व के महत्वपूर्ण नेताओं में से एक के रूप में पहचाना जाने लगा।

बांग्लादेश संकट (Bangladesh Crisis)

1970 में पाकिस्तान में स्वतंत्र चुनाव हुए  , जिसमें  शेख मुजीबुर रहमान  के नेतृत्व में  बंगाल की अवामी पार्टी ने  पूर्वी पाकिस्तान में 98 प्रतिशत से अधिक सीटें जीतीं। इसका मतलब पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में समग्र बहुमत था। सेना  ने अवामी पार्टी को सरकार बनाने से मना कर दिया  . इसके जवाब में,  अवामी पार्टी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया और सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर कार्रवाई शुरू की  , जिसके कारण लाखों लोग भागकर भारत आ गए।

इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत सरकार ने विश्व शक्तियों को पूर्वी पाकिस्तान दमन की वास्तविक स्थिति और  शरणार्थियों के मुद्दे के कारण भारत पर पड़ने वाले बोझ से  अवगत कराने के लिए धैर्य दिखाया और सावधानी से कदम बढ़ाया ।  भारत ने बांग्लादेश में स्वतंत्रता संग्राम को नैतिक और भौतिक समर्थन दिया  ।

पाकिस्तान ने भारत पर उसे तोड़ने की साजिश का आरोप लगाया.  पाकिस्तान को अमेरिका और चीन से समर्थन मिला। इस खतरे का मुकाबला करने के लिए, भारत ने शांति, मित्रता और सहयोग की 20 वर्षीय भारत-सोवियत संधि पर हस्ताक्षर किए  । संधि में किसी भी देश के सैन्य खतरे की स्थिति में तत्काल आपसी परामर्श और उचित प्रभावी उपायों का प्रावधान किया गया था।

दस दिनों के भीतर भारतीय सेना ने ढाका को तीन तरफ से घेर लिया और लगभग 90,000 की पाकिस्तानी सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा।  बांग्लादेश को एक स्वतंत्र देश के रूप में देखते हुए,  भारत ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की। बाद में, 2 जुलाई 1972 को इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला समझौते पर हस्ताक्षर ने शांति की वापसी को औपचारिक रूप दिया।

शिमला घोषणा (1972) Shimla Declaration (1972)

युद्धविराम के बाद  भारत पश्चिमी और कश्मीर मोर्चे से सेनाओं की वापसी के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए तैयार था  . साथ ही, इस तथ्य पर विचार करते हुए कि एक शत्रु पड़ोसी भारत को पश्चिमी मोर्चे पर उच्च स्तर की सैन्य उपस्थिति बनाए रखने के लिए मजबूर करेगा, शांति के लिए पाकिस्तान को शामिल करना आवश्यक था।

शिमला घोषणा (1972)

शिमला समझौते के परिणाम (Outcomes of Shimla Agreement)

  • कुछ रणनीतिक बिंदुओं को छोड़कर,  भारत युद्ध के दौरान कब्जा किए गए पाकिस्तानी क्षेत्र को वापस करने पर सहमत हुआ।
  • पाकिस्तान ने  नियंत्रण रेखा (एलओसी) का सम्मान करने और इसमें एकतरफा बदलाव नहीं करने का भी वादा किया  ।
  • दोनों देश  अपने मुद्दों को  बाहरी मध्यस्थता के बजाय द्विपक्षीय तरीके से सुलझाने पर भी सहमत हुए।
  • भारत पाकिस्तान-बांग्लादेश समझौते पर सशर्त  युद्धबंदियों को पाकिस्तान को लौटाने पर सहमत हुआ ।

बांग्लादेश संकट के  परिणामस्वरूप घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों क्षेत्रों में इंदिरा गांधी की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई  । भारत के लिए युद्ध के कई सकारात्मक परिणाम थे:

  • भारत ने 1962 के युद्ध के दौरान  खोया हुआ गौरव और स्वाभिमान पुनः प्राप्त कर लिया ।
  • युद्ध के बाद  लगभग 10 मिलियन शरणार्थियों को उनके घर वापस भेज दिया गया  । इस प्रकार, भारत के संसाधनों पर दबाव डालने वाली गंभीर शरणार्थी समस्या का समाधान हो गया।
  • भारत भी दक्षिण एशिया में एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरा।
  • विश्व मंच पर भारत की प्रतिष्ठा एक नई ऊंचाई पर पहुंची और उसका मनोबल बढ़ा  ; एक, जिस तरह से भारत ने पूरे प्रकरण को संभाला और दूसरा, पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया शुरू करने के लिए शिमला समझौता।

चीन और पाकिस्तान के साथ राजनयिक संबंधों का पुनरुद्धार (Revival of Diplomatic Relationship with China and Pakistan)

1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद, चीन के साथ भारत के रिश्ते  एक नए निचले स्तर पर पहुंच गए  । हालाँकि, 1976 तक स्थिति बदल गई और भारत दक्षिण एशिया में एक प्रमुख क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभर गया।  भारत ने 1971 के युद्ध, 1974 के परमाणु विस्फोट और 1975 में सिक्किम के विलय में अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन किया है  । साथ ही, भारत 1971 की संधि के बाद यूएसएसआर पर अपनी निर्भरता कम करना चाहता था। चीन दक्षिण एशिया क्षेत्र में सोवियत प्रभाव को भी कम करना चाहता था।

उपरोक्त विचारों के परिणामस्वरूप,  भारत ने एक साहसिक निर्णय लेते हुए, लंबे समय से चले आ रहे तनावपूर्ण संबंधों को सामान्य बनाने के लिए चीन के साथ राजनयिक संबंध बहाल करने की एकतरफा घोषणा की। चीन ने इस कदम का स्वागत किया  और राजनयिक संबंधों को बहाल करके इसका जवाब दिया। इससे दोनों देशों के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संबंधों की बहाली भी देखी गई।

इसी तरह, 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद से भारत-पाक रिश्ते भी तनावपूर्ण थे। लेकिन 1972 के शिमला समझौते से अंततः दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य हो गए और राजनयिक संबंधों का पुनरुद्धार हुआ। शांति प्रक्रिया की बहाली की अन्य दक्षिण एशियाई देशों ने भी काफी सराहना की।

सोवियत संघ से संबंध (Relationship with Soviet Union)

1966 में इंदिरा गांधी भारत की प्रधान मंत्री बनीं। वर्ष 1970 तक उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उल्लेखनीय भूमिका निभानी शुरू कर दी और देश में अपनी स्थिति मजबूत कर ली। इस अवधि के दौरान,  भारत को चीन और पाकिस्तान से खतरा था, जबकि अमेरिका ने खुले तौर पर पाकिस्तान का समर्थन किया  ।  इससे भारत और सोवियत संघ अपने संबंधों में एक-दूसरे के करीब आये।

इंदिरा गांधी के प्रिवी पर्स ख़त्म करने, बैंकों का राष्ट्रीयकरण और समाज के समाजवादी पैटर्न की स्थापना के  फैसले ने भी सोवियत संघ को प्रभावित किया। 1970 के दशक तक, सोवियत संघ भारत को भारी उद्योगों की स्थापना में मदद करने के साथ-साथ परिष्कृत सैन्य उपकरणों की आपूर्ति करने में भारतीय वस्तुओं का दूसरा सबसे बड़ा खरीदार बन गया। इसने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दे पर भारतीय मुद्दे का भी समर्थन किया।

भारत-सोवियत संधि (1971) Indo-Soviet Treaty (1971)

भारत और सोवियत संघ ने शांति, मित्रता और सहयोग की 20 वर्षीय संधि पर हस्ताक्षर किए , जिससे पिछले कुछ वर्षों में दोनों देशों के बीच  तेजी से विकसित हो रही मित्रता और सहयोग को वैध बनाया गया और उनके आपसी संबंधों को विकास के एक नए और उच्च स्तर पर पहुंचाया गया।  जब भारत ने पोखरण (1974) में परमाणु परीक्षण किया, तो फ्रांस और सोवियत संघ को छोड़कर लगभग सभी परमाणु शक्तियों ने इसकी आलोचना की,  जिन्होंने  लगातार चुप्पी साधे  रखी , जो एक तरह से भारत की स्थिति का समर्थन था।

दोनों देशों के बीच संबंध आपसी समझ के आधार पर जारी रहे, जिसके परिणामस्वरूप सोवियत संघ ने शिमला समझौते का स्वागत किया और द्विपक्षीय रूप से लंबित मुद्दों को हल करने के लिए भारतीय पहल का समर्थन किया। सोवियत संघ ने हिंद महासागर को शांति क्षेत्र बनाए जाने पर श्रीमती गांधी के रुख का स्वागत किया। विज्ञान, प्रौद्योगिकी और व्यापार के क्षेत्र में भी भारत-सोवियत संबंध बहुत महत्वपूर्ण थे।

संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संबंध (Relationship with the USA)

इंदिरा गांधी के नेतृत्व के पहले चरण के दौरान,  चीन के साथ  घनिष्ठ संबंध बनाने के प्रयास, बांग्लादेश संकट के दौरान पाकिस्तान का पक्ष लेने, सामान्य रूप से पाकिस्तान को हथियारों की बिक्री और अमेरिकी की स्थापना के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संबंध खराब हो गए। डिएगो गार्सिया द्वीप  (हिंद महासागर में) में नौसैनिक अड्डा।  इंदिरा गांधी ने हिंद महासागर को शीत युद्ध की रणनीति से मुक्त कराने के लिए आवाज उठाई, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व को पसंद नहीं आया। 1974 में परमाणु विस्फोट करने के लिए अमेरिका भी भारत की आलोचना कर रहा था।

डिएगो गार्सिया पर मतभेद (Differences Over Diego Garcia)

अमेरिका ने अपनी नौसैनिक ताकत बढ़ाने के उद्देश्य से  हिंद महासागर में एक रणनीतिक द्वीप डिएगो गार्सिया को एक मजबूत नौसैनिक अड्डे के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया।  इसने एशिया में अपने हितों की रक्षा के लिए और एशिया तथा हिंद महासागर क्षेत्र में  बढ़ती  रूसी शक्ति को रोकने के लिए  हिंद महासागर में नौसैनिक अड्डा विकसित किया । इन घटनाक्रमों को ध्यान में रखते हुए, भारत ने हिंद महासागर में सुपर पावर प्रतिद्वंद्विता का कड़ा विरोध किया। इसके अलावा, भारत को लगा कि डिएगो गार्सिया को हिंद महासागर में एक मजबूत सैन्य अड्डे के रूप में विकसित करने से निश्चित रूप से न केवल महाशक्तियों के बीच, बल्कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भी तनाव बढ़ेगा।

इंदिरा गांधी के नेतृत्व के दूसरे चरण के दौरान, संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत को तारापुर परमाणु संयंत्र के लिए आईएमएफ ऋण और ईंधन प्राप्त करने में मदद की।  दोनों देशों के बीच व्यापार, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी  सहयोग बढ़ा ।

डिएगो गार्सिया पर मतभेद

राजीव गांधी वर्ष (Rajiv Gandhi Years)

राजीव गांधी ने नेहरू और इंदिरा गांधी द्वारा निर्धारित विदेश नीति का पालन किया  , लेकिन  कुछ आधारों पर उनसे मतभेद भी किया, इस प्रकार उन्होंने कुछ हद तक अपनी स्वतंत्र विदेश नीति बनाई  ।

उनकी नीति का उद्देश्य  मानव जाति के बीच सौहार्द और सद्भावना था।  इसके लिए उन्होंने  बेहतर विश्व आर्थिक व्यवस्था और परमाणु निरस्त्रीकरण  की वकालत की । उन्होंने यह भी महसूस किया कि राष्ट्रों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए नस्लीय सद्भाव एक शर्त है। राजीव गांधी ने सक्रिय विदेश नीति अपनाना और विश्व समुदाय में भारत का स्थान सुनिश्चित करना जारी रखा।

उन्होंने जोर देकर कहा कि, तेजी से बदलती विश्व व्यवस्था में, हमारे देश को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए लचीला रहना चाहिए और अतीत में उलझा नहीं रहना चाहिए। साथ ही, बुनियादी सिद्धांत और मौलिक नैतिक धारणाएं ठोस होनी चाहिए।  जनवरी 1985 में, उन्होंने निम्नलिखित लक्ष्यों को प्राप्त करने का संकल्प लिया:

  • विश्व शांति
  • पारस्परिकता और पारस्परिक लाभ के आधार पर सभी देशों के साथ मित्रता
  • न्याय, आपसी सहयोग, शांति और विकास पर आधारित नई विश्व आर्थिक व्यवस्था।
  • अन्य राज्यों की स्वतंत्रता और राष्ट्रों की संप्रभु समानता के सिद्धांतों का सम्मान, उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना और हस्तक्षेप न करना
  • दक्षिण एशिया में हमारे निकटतम पड़ोसियों के साथ गहरे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करना;
  • शांतिपूर्ण सह – अस्तित्व।
  • विश्व राजनीति के बदलते संदर्भ में निरंतरता और परिवर्तन, स्थिरता और गतिशीलता के दोहरे सिद्धांतों का पालन

उनके नेतृत्व में,  भारत ने सोवियत संघ से सहायता मांगने के बजाय तकनीकी जानकारी प्राप्त करने के लिए पश्चिम की ओर झुकाव किया  , जो उनके पूर्ववर्तियों से भिन्न था। इससे पश्चिम के साथ संबंधों में उल्लेखनीय सुधार हुआ।

निरस्त्रीकरण प्रयास (Disarmament Efforts)

राजीव गांधी ने विशेष रूप से वर्ष 1985-86 के दौरान विभिन्न मंचों पर  परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया।  उन्होंने भारत के रुख को स्पष्ट शब्दों में घोषित करते हुए कहा, “भारत परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए फैशन बनने से पहले से ही लंबे समय से लड़ रहा है। हमें एक समयबद्ध कार्यक्रम के भीतर परमाणु हथियारों के पूर्ण उन्मूलन की दिशा में काम करना चाहिए। हमें इस प्रक्रिया में सभी परमाणु हथियार शक्तियों को शामिल करना चाहिए। हमें यह देखना होगा कि परमाणु हथियार शक्तियां नए आयामों में विस्तारित न हों। हमें यह देखना होगा कि सामूहिक विनाश के अन्य हथियारों या सर्जिकल हथियारों का कोई विकास न हो। हमें निवारण के सिद्धांत को शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धांत से प्रतिस्थापित करना चाहिए।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रति प्रतिबद्धता (Commitment to Non-Alignment Movement)

राजीव गांधी ने  1985 में एनएएम के प्रति भारत की प्रतिबद्धता की पुष्टि की  जब उन्होंने कहा कि एनएएम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक तार्किक विकास था जिसने आधी सदी पहले उपनिवेशित दुनिया के बाकी हिस्सों को रास्ता दिखाया था। उन्होंने बदलती दुनिया में नई चुनौतियों, खासकर महत्वपूर्ण आर्थिक मुद्दों से निपटने के लिए एनएएम में और अधिक एकजुटता हासिल करने पर ध्यान केंद्रित किया। नस्लवाद और उपनिवेशवाद के हमलों का मुकाबला करते हुए एक नई आर्थिक व्यवस्था का निर्माण प्रमुख मुद्दे थे जिन्हें उन्होंने एनएएम को संबोधित करने के लिए उठाया था।

राजीव गांधी ने  इस बात पर जोर दिया कि पर्यावरण संरक्षण और विकास के मुद्दे  एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसके लिए, उन्होंने ऊर्जा संरक्षण और वायुमंडलीय प्रदूषण से निपटने के लिए एक अद्वितीय बहु-अरब डॉलर के  ग्रह संरक्षण कोष (संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में)  के निर्माण की दिशा में एक महान प्रयास किया।

राजीव गांधी और हिंद महासागर (Rajiv Gandhi and Indian Ocean)

हिंद महासागर लंबे समय से विश्व राजनीति के केंद्र में रहा है और स्थिति तब बदल गई जब  ब्रिटेन ने हिंद महासागर के द्वीप डिएगो गार्सिया को अमेरिका को सौंप दिया  । इसने क्षेत्र में शीत युद्ध के आधिपत्य के लिए द्वार खोल दिए। हिंद महासागर की केंद्रीयता को देखते हुए, यह स्पष्ट था कि भारत उस पर बहुत अधिक निर्भर होगा जो हिंद महासागर क्षेत्र को नियंत्रित करेगा।

राजीव गांधी ने हिंद महासागर को शांति, स्थिरता और सहयोग के क्षेत्र में बदलने और इसे शीत युद्ध की राजनीति से बचाने के लिए जोरदार आवाज उठाई। राजीव गांधी ने जोर देकर कहा कि हिंद महासागर परमाणु हथियारों से लैस विश्व नौसेनाओं के लिए खेल का मैदान बन गया है, बदले में उन्होंने हिंद महासागर को शांति का क्षेत्र बनाने की वकालत की।

सार्क को मजबूत करने का प्रयास (Efforts to Strengthen SAARC)

भारत ने आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में क्षेत्रीय सहयोग के माध्यम से अपने पड़ोसियों के साथ विवादास्पद द्विपक्षीय, राजनीतिक विवादों को दूर करने के ऐतिहासिक अवसर के रूप में  सार्क की क्षमता को पूरी तरह से महसूस किया ।  राजीव गांधी ने इस बात पर जोर दिया कि सार्क का उद्देश्य सामूहिक आत्मनिर्भरता की प्राप्ति और बहुपक्षवाद और विश्वव्यापी सहयोग की ताकतों को मजबूत करना होना चाहिए  । राजीव गांधी ने सार्क को मजबूत करने पर जोर दिया और इसका उपयोग विशेष रूप से सात देशों के विशेषज्ञों के बीच तकनीकी स्तर पर चर्चा के लिए किया।

श्रीलंका में शांति मिशन (Peace Mission to Sri Lanka)

राजीव गांधी की श्रीलंका नीति ठोस और सही थी, हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि राजनयिक और सैन्य नेतृत्व ने शायद  लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) की वास्तविक प्रकृति और लड़ने की क्षमता को कम करके आंका  था । 29 जुलाई 1987 को, श्री राजीव गांधी और श्री जेआर जयवर्धने ने कोलंबो में प्रसिद्ध  भारत-श्रीलंका समझौते पर  हस्ताक्षर किए, जिसके तहत भारत  लिट्टे के खतरे से लड़ने में मदद करने के लिए श्रीलंका में अपनी शांति सेना भेजने पर सहमत हुआ।  जातीय समस्या का सैन्य समाधान खोजने के श्रीलंका के प्रयास विफल होने के बाद इस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे।  भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) को न केवल लिट्टे से बल्कि सिंहली राजनेताओं  और अन्य लोगों से भी कई मुद्दों का सामना करना पड़ा। भारत में विपक्षी नेताओं ने  ऐसी कठिनाइयों के बीच भी बहुत अच्छा काम किया। बाद में 24 मार्च 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व में आईपीकेएफ को बाहर कर दिया गया।

नरसिम्हा राव काल (Narasimha Rao Period)

1991 के संसदीय चुनावों के बाद, पीवी नरसिम्हा राव भारत के 10वें प्रधान मंत्री बने।  शीतयुद्ध की समाप्ति से अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अनेक परिवर्तन  आये । द्विध्रुवीय विश्व राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में गुट राजनीति का युग  1991 में समाप्त हो गया  । सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका ने एकमात्र शक्ति राष्ट्र का अपना स्थान बरकरार रखा। भारत सहित सभी देशों ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में इस अचानक बदलाव को देखा, इसलिए, भारतीय नेताओं को अब अपनी विदेश नीति पर पुनर्विचार करने और उसे नया आकार देने का काम सौंपा गया। नरसिम्हा राव ने भारत के पुनर्गठन का बीड़ा उठाया:

  • आर्थिक सुधार:  अर्थव्यवस्था को विनियमन करना, राज्य नियंत्रण प्रणाली को ढीला करना, आर्थिक रूप से दुनिया के लिए खोलना और निजी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना। सुधार की इस नीति का अमेरिका और अन्य औद्योगिक देशों ने स्वागत किया।
  • अंतर्राष्ट्रीय संबंध:  पीवी नरसिम्हा राव के तहत भारतीय विदेश नीति अमेरिका के साथ संबंध बनाने पर काफी केंद्रित थी। कई विशेषज्ञों का मानना ​​था कि 1991 के बाद भारतीय विदेश नीति न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका, बल्कि यूरोपीय संघ, रूस, चीन, जापान, इज़राइल, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका के साथ दक्षिण पूर्व एशिया में आर्थिक रूप से स्थिर देशों के साथ मजबूत संबंध बनाने पर आधारित थी।

1991 के बाद अमेरिका के साथ भारत के संबंध धीरे-धीरे बेहतर हुए  ।  पीवी नरसिम्हा राव ने “न्यायपूर्ण  ” पड़ोसियों पाकिस्तान, चीन, नेपाल और श्रीलंका के साथ भी संबंध सुधारने की कोशिश की । भारत ने नाटो सदस्य देशों के साथ अपने संबंधों को बढ़ाया और 1992 में इज़राइल के साथ सफलतापूर्वक औपचारिक रणनीतिक साझेदारी स्थापित की।

देश की विदेश नीति के क्षेत्र में पीवी नरसिम्हा राव की सबसे बड़ी उपलब्धि दोनों देशों के बीच लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को खत्म करने के उद्देश्य से  चीन के साथ शांति वार्ता पर हस्ताक्षर करना था।

उदारीकरण और विदेश नीति में परिवर्तन (Liberalization and Change of Foreign Policy)

1991 की नई आर्थिक नीति ने विदेश नीति के साथ-साथ देश के आर्थिक क्षेत्र में भी व्यापक परिवर्तन लाये। हालाँकि 1980 के दशक के दौरान भारत को भुगतान संतुलन के कई  संकटों का  सामना करना पड़ा ,  1990 के दशक की स्थितियों ने भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोलने के लिए मजबूर किया  , इस प्रकार बहुत आवश्यक सुधार का मार्ग प्रशस्त हुआ। सरकार ने दूरगामी परिवर्तन किए, भारतीय अर्थव्यवस्था को बाहरी दुनिया के लिए खोला और घरेलू स्तर पर भी अर्थव्यवस्था में सुधार किया। इस प्रकार, सरकार ने नई आर्थिक नीति का अनावरण किया। इस नीति का उद्देश्य समानता और सामाजिक न्याय की खोज करना और निरंतर उच्च विकास हासिल करना है।

द्विध्रुवीय विश्व का अंत और भारत की विदेश नीति (End of Bipolar world and India’s Foreign Policy)

भारत के यूएसएसआर के साथ बहुत करीबी आर्थिक, सांस्कृतिक और तकनीकी संबंध थे। सोवियत संघ ने कश्मीर से लेकर बांग्लादेश संकट तक कई मुद्दों पर भारत का समर्थन किया था. भारत-सोवियत संघ ने 1972 में मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए और उसके बाद भारत ने सोवियत संघ के साथ कई रक्षा सौदों पर हस्ताक्षर किए, जो भारत का सबसे बड़ा हथियार निर्यातक था।

यद्यपि  शीत युद्ध की समाप्ति से भारत के लिए अमेरिकी-सोवियत शक्ति प्रतिद्वंद्विता के शीत युद्ध के संदर्भ से खतरा समाप्त हो गया  , लेकिन इसने भारत के लिए कई चुनौतियाँ खोल दी थीं। भारत के लिए, सोवियत संघ के विघटन का मतलब कई पहलुओं पर अनिश्चितता है। हथियार प्रणाली की आपूर्ति, स्पेयर पार्ट्स की आपूर्ति, कश्मीर पर राजनयिक समर्थन और संयुक्त राष्ट्र के भीतर और बाहर  अन्य राजनीतिक-रणनीतिक मुद्दों पर और दक्षिण एशिया में अमेरिका के लिए जवाबी कार्रवाई के रूप में।

सोवियत संघ के विघटन के बाद, दशकों के शीत युद्ध और द्विध्रुवीय दुनिया के अंत के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका एकमात्र वैश्विक शक्ति के रूप में उभरा। इन बदलती परिस्थितियों में भारत की विदेश नीति भी इन विकासों के अनुरूप बदलने लगी।

पहला बड़ा परिवर्तन वैश्वीकरण की चुनौतियों के अनुरूप ढलना था जो इसका प्राथमिक उद्देश्य बन गया। इस प्रकार,  भारत की विदेश नीति भारत को एक समाजवादी समाज के निर्माण से आधुनिक पूंजीवादी समाज के निर्माण में परिवर्तित करने पर केंद्रित थी  । इसके लिए, 1991 की नई आर्थिक नीति की शुरूआत के साथ राष्ट्रीय आर्थिक नीति में बदलाव ने बदलती जरूरतों को पूरा करने के लिए विदेश नीति के मोर्चे पर कई विकल्प तैयार किए।

बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ, भारत ने  अपनी विदेश नीति में सैन्य और आर्थिक शक्ति को प्राथमिकता देने की दिशा में आगे बढ़ना शुरू कर दिया, जैसा कि इस तथ्य से पता चलता है कि 2010 तक  , भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक बन गया। इसका कारण भारत की पश्चिमी और उत्तरी सीमाओं पर परेशान करने वाले पड़ोसी भी थे।  व्यावहारिकता भारत-अमेरिका संबंधों  में बढ़ती निकटता में भी परिलक्षित हुई, जो बाद में भारत-यूएसए परमाणु समझौते में परिणत हुई, जिसे 123 समझौते के रूप में भी जाना जाता है । आर्थिक उद्देश्यों के समावेश ने भारत के राजनयिक पोर्टफोलियो में विविधता जोड़ दी है, और भारत की बढ़ती आर्थिक शक्ति ने विश्व मामलों में, विशेष रूप से डब्ल्यूटीओ और वैश्विक आर्थिक सुधार के उद्देश्य से जी-20 मंच जैसे मंचों पर इसकी आवाज को  वजन  दिया है  ।

तेजी से बदलती घरेलू राजनीति का असर भारत की विदेश नीति पर भी पड़ा। क्षेत्रीय दलों को प्रमुखता मिलनी शुरू हो गई और गठबंधन सरकारों के एक युग ने उथल-पुथल पैदा कर दी, जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक अप्रत्याशित विदेशी नीतियों का प्रमाण मिला, जिससे भारत को श्रीलंका से अपने शांति मिशन को अचानक वापस लेना पड़ा। इसके अलावा, 1991 के खाड़ी युद्ध के दौरान  , भारतीय विदेश नीति कई बार बदली, पहले विरोध किया, फिर समर्थन किया और फिर इराक के रास्ते में अमेरिकी हवाई जहाजों द्वारा भारतीय ईंधन भरने की सुविधाओं के उपयोग का विरोध किया  ।

भारत की बदलती विदेश नीति पूरी तरह से ”  बड़ी ताकत  ” कूटनीति के बारे में नहीं थी, यह अपने पड़ोसियों के साथ भी जुड़ा हुआ था। भारत ने अपने दो बड़े पड़ोसियों – पाकिस्तान और चीन – के साथ राजनीतिक सुलह खोजने के लिए बड़े प्रयास करना शुरू कर दिया। 1990 के दशक के दौरान, भारत-पाकिस्तान संबंधों में नाटकीय रूप से एक सीमित पारंपरिक युद्ध से पूर्ण सैन्य टकराव में बदलाव देखा गया। 2004 के बाद से, कश्मीर विवाद पर गंभीर बातचीत सहित संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में कई कदम उठाए गए हैं। चीन के साथ भारत ने लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को खत्म करने के लिए उद्देश्यपूर्ण बातचीत की तलाश शुरू कर दी

पूर्व की ओर देखो नीति (Look East Policy)

1990 के दशक की शुरुआत में पूर्व प्रधान मंत्री पीवी नरसिम्हा राव द्वारा शुरू की गई भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी (एलईपी) का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत के अलगाव को कम करना और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) के साथ भारत की भागीदारी को बढ़ावा देना था ताकि लाभ उठाया जा सके  । क्षेत्रीय सहयोग. दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ सार्थक सहयोग बनाने के भारत के प्रयास को अच्छी प्रतिक्रिया मिली है और वर्तमान में, भारत और आसियान जीवंत आर्थिक, रणनीतिक और राजनीतिक संबंध साझा करते हैं। इसमें वस्तुओं, सेवाओं और निवेश में एफटीए पर हस्ताक्षर शामिल हैं। समुद्री सुरक्षा, कनेक्टिविटी इत्यादि सामान्य चिंता के अन्य क्षेत्र हैं।

पूर्व की ओर देखो नीति के कारण

  • आर्थिक रूप से चीन का मुकाबला:  1980 के दशक के दौरान चीन की व्यापार नीतियों के कारण चीन में जबरदस्त वृद्धि हुई और देशों के बीच राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य क्षेत्र और सबसे महत्वपूर्ण रूप से दक्षिण पूर्व एशिया के क्षेत्र में आर्थिक प्रभाव सहित कई मोर्चों पर प्रतिस्पर्धा हुई। इस प्रकार, भारत को एक नई आर्थिक रूप से आक्रामक नीति अपनाने की आवश्यकता थी।
  • उभरता हुआ मध्यम वर्ग:  भारत में बड़ी संख्या में शिक्षित और प्रतिभाशाली लोग हैं, जो एक विशाल जनशक्ति पूल का निर्माण कर रहे हैं, जो दोहन की प्रतीक्षा कर रहा है। इस प्रकार, भारत ने अपने बेचैन कार्यबल और उसके उत्पादों को निर्यात करने के लिए नए बाजारों की तलाश शुरू कर दी।
  • पश्चिम और मध्य एशिया से रोकथाम:  इसके अलावा, भू-राजनीतिक अस्थिरता और आतंकवाद के खतरे के कारण इन क्षेत्रों के साथ निवेश और व्यापार संबंधों के रास्ते लगातार खतरे में थे। इस प्रकार, भारत ने अधिक विश्वसनीय और स्थिर गंतव्यों की तलाश शुरू कर दी।

आईके गुजराल काल (I.K. Gujaral Period)

I.K. Gujaral

आईके गुजराल का  भारतीय विदेश नीति क्षेत्र में एक विशेष स्थान  है । गुजराल का मुख्य ध्यान  अपने पड़ोसियों के साथ भारत के रिश्ते सुधारने  पर था । इस प्रकार, पड़ोसियों के साथ संबंधों को बेहतर बनाने और दक्षिण एशियाई क्षेत्र में शांति सुनिश्चित करने के लिए,  उन्होंने कई नीतियां बनाईं जिन्हें ‘गुजराल सिद्धांत’ के रूप में जाना जाता है  । ऐसा माना जाता है कि गुजराल सिद्धांत ने अपने निकटतम पड़ोसियों, विशेषकर छोटे पड़ोसियों के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंधों के संचालन के तरीके में महत्वपूर्ण बदलाव किया है।

गुजराल सिद्धांत  भारत के निकटतम पड़ोसियों के साथ विदेशी संबंधों के संचालन का मार्गदर्शन करने के लिए पांच सिद्धांतों  का एक समूह है , जैसा कि आईके गुजराल द्वारा बताया गया है। ये पांच सिद्धांत इस विश्वास से उत्पन्न हुए हैं कि भारत के कद और ताकत को उसके पड़ोसियों के साथ संबंधों की गुणवत्ता से अलग नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार, यह पड़ोसियों के साथ मैत्रीपूर्ण, सौहार्दपूर्ण संबंधों के सर्वोच्च महत्व को पहचानता है।

ये सिद्धांत हैं:

  • पड़ोसियों और अन्य देशों के साथ, भारत को पारस्परिकता की मांग नहीं करनी चाहिए बल्कि अच्छे विश्वास और विश्वास के साथ वह सब कुछ देना चाहिए जो वह कर सकता है।
  • आपसी विश्वास पैदा करने के लिए क्षेत्र के किसी भी देश को अपनी धरती का इस्तेमाल किसी भी तरह से दूसरे देशों के खिलाफ नहीं करने देना चाहिए।
  • क्षेत्र के देशों को एक-दूसरे की संप्रभुता का सम्मान करना चाहिए और किसी भी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
  • क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करना।
  • तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के बिना द्विपक्षीय मुद्दों का पारस्परिक समाधान।

एबी वाजपेई काल (AB Vajpayee Period)

एबी वाजपेयी ने  1998 में गठबंधन सरकार का  नेतृत्व किया । भारत के प्रधान मंत्री के रूप में, उन्होंने भारत की विदेश नीति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी विदेश नीति पहलों को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा सकता है:

परमाणु परीक्षण (1998) Nuclear Test (1998)

भारत ने अप्रसार के उद्देश्य से की गई अंतर्राष्ट्रीय संधियों का विरोध किया है क्योंकि वे चुनिंदा रूप से गैर-परमाणु शक्तियों पर लागू होती थीं और पांच परमाणु हथियार शक्तियों के एकाधिकार को वैध बनाती थीं। इस प्रकार,  भारत ने 1995 में एनपीटी के अनिश्चितकालीन विस्तार का विरोध किया और व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) पर हस्ताक्षर करने से भी इनकार कर दिया  ।

भारत ने सैन्य उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा का उपयोग करने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन करते हुए मई 1998 में परमाणु परीक्षणों की एक श्रृंखला आयोजित की। पाकिस्तान ने जल्द ही इसका अनुसरण किया, जिससे क्षेत्र में परमाणु आदान-प्रदान की संभावना बढ़ गई। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय उपमहाद्वीप में परमाणु परीक्षणों के प्रति अत्यंत आलोचनात्मक था और भारत और पाकिस्तान दोनों पर प्रतिबंध लगाए गए थे, जिन्हें बाद में माफ कर दिया गया था। विश्वसनीय न्यूनतम परमाणु प्रतिरोध का भारत का परमाणु सिद्धांत ‘पहले उपयोग नहीं’ का दावा करता है और परमाणु हथियार मुक्त दुनिया के लिए वैश्विक, सत्यापन योग्य और गैर-भेदभावपूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए भारत की प्रतिबद्धता को दोहराता है।

परमाणु परीक्षण पर वैश्विक प्रतिक्रिया (Global Response to Nuclear Test)

  • भारत के परमाणु परीक्षण की अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने कड़ी आलोचना की।
  • परमाणु परीक्षणों ने भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान संबंधों में कड़वाहट पैदा कर दी थी।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान सहित देशों ने परीक्षणों के लिए और एनपीटी और सीटीबीटी के खिलाफ जाने के लिए भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए।
  • इन परीक्षणों ने वैश्विक शक्तियों के साथ सुधरते संबंधों में तनाव पैदा कर दिया था।

भारत की प्रतिक्रिया (India’s Response)

भारत ने स्पष्ट रूप से अपना लक्ष्य बताया कि परमाणु परीक्षण उसके अपने हितों की रक्षा के लिए था न कि किसी देश के लिए। भारत ने हमेशा परमाणु अप्रसार संधियों (एनपीटी और सीटीबीटी) की भेदभावपूर्ण प्रकृति के खिलाफ अपना विरोध बनाए रखा है।

भारत-पाकिस्तान (India-Pakistan)

1.  बस कूटनीति:  1998 के परमाणु परीक्षणों ने भारत-पाकिस्तान संबंधों में तनाव को एक नए स्तर पर बढ़ा दिया था। भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को बेहतर बनाने के लिए नई दिल्ली से लाहौर तक बस सेवा शुरू करने का एक अभिनव विचार शुरू किया गया। इसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच लोगों के बीच संपर्क और दोस्ती के बंधन को मजबूत करना था। बस कूटनीति दोनों देशों के बीच उतार-चढ़ाव भरे संबंधों के इतिहास में एक ऐतिहासिक क्षण था। बस कूटनीति के हिस्से के रूप में, वाजपेयी ने स्वयं लाहौर की यात्रा की और 21 फरवरी 1999 को लाहौर घोषणा पर हस्ताक्षर किए।

बस कूटनीति

2. लाहौर घोषणा:  भारत और पाकिस्तान ने 1999 में सहयोग और सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर काम करने और नियंत्रण रेखा पर बलों को कम करने की प्रतिज्ञा के साथ लाहौर घोषणा पर हस्ताक्षर किए।

मुख्य विशेषताएं

  • इसने दोनों देशों के सुरक्षा वातावरण में परमाणु आयाम को मान्यता दी
  • संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के सिद्धांतों और उद्देश्यों और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता।
  • यह शिमला समझौते को अक्षरश: लागू करने के लिए दोनों देशों के दृढ़ संकल्प को दोहराता है।
  • सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण और अप्रसार के उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्धता।
  • इसने सुरक्षा माहौल में सुधार के लिए पारस्परिक रूप से सहमत विश्वास-निर्माण उपायों के महत्व को मान्यता दी।
  • इसने माना कि शांति और सुरक्षा का माहौल दोनों पक्षों के सर्वोच्च राष्ट्रीय हित में है और इस उद्देश्य के लिए जम्मू-कश्मीर सहित सभी लंबित मुद्दों का समाधान आवश्यक है।

हालाँकि, चीज़ें अपेक्षित दिशा में आगे नहीं बढ़ पाईं और मई 1999 के मध्य में जब पाकिस्तान के घुसपैठियों को नियंत्रण रेखा के पास रणनीतिक स्थानों पर, विशेषकर कश्मीर के कारगिल सेक्टर में कब्ज़ा करते हुए पाया गया, तो इसमें गिरावट आई।

कारगिल संघर्ष (Kargil Conflict)

कारगिल में पाकिस्तान की सशस्त्र घुसपैठ के बाद, भारत ने घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए ‘ऑपरेशन विजय 1’ शुरू किया। भारत ने अपने प्रमुख वार्ताकारों के साथ-साथ अमेरिका को घटनाक्रम और घुसपैठ की प्रकृति के बारे में जानकारी दी। कारगिल में पाकिस्तानी सशस्त्र घुसपैठ के संबंध में अमेरिका ने स्पष्ट रुख अपनाया और घुसपैठियों को वापस बुलाने का आह्वान किया। भारत ने जिस संयम और जिम्मेदार तरीके से ऑपरेशन चलाया, उसके लिए अमेरिका ने भी सराहना व्यक्त की। भारत की स्थिति को अमेरिकी कांग्रेस और अमेरिकी मीडिया से समर्थन मिला। इसी प्रकार, दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर आतंकवादी हमले के बाद, भारत ने मिश्रित कूटनीति के बावजूद आक्रामक कूटनीति की रणनीति का सहारा लिया। यह रेखांकित करना महत्वपूर्ण है कि इन दोनों संकटों में से कोई भी लंबे समय से चले आ रहे दो विरोधियों के बीच पूर्ण पैमाने पर युद्ध में परिणत नहीं हुआ।

वाजपेयी और भारत-अमेरिका संबंध (Vajpayee and India-US Relations)

भारत की परमाणु महत्वाकांक्षाओं पर मतभेदों और सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने की अनिच्छा के बावजूद, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने दोनों देशों के बीच गतिशील भविष्य के संबंध बनाने के उद्देश्य से मार्च 2000 में भारत की पांच दिवसीय यात्रा की। सितंबर, 2000 में प्रधान मंत्री वाजपेयी की अमेरिका की पारस्परिक यात्रा भी ऐसी ही थी। भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती आर्थिक बातचीत पारस्परिक रूप से लाभकारी संबंधों को मजबूत करने की दिशा में एक प्रमुख प्रेरक शक्ति बन गई है।

मनमोहन सिंह के अधीन नीति (Policy under Manmohan Singh)

नेहरू द्वारा निर्धारित भारत की विदेश नीति की व्यापक रूपरेखा को बाद के नेताओं द्वारा सर्वसम्मति से अपनाया गया लेकिन देश की परिस्थितियों और आवश्यकता के अनुसार इसमें बदलाव शुरू हो गया। जब तक मनमोहन सिंह सत्ता में आये, भारत की विदेश नीति नेहरू-युग की तुलना में बहुत बदल चुकी थी। कूटनीति अधिक सौम्य, मैत्रीपूर्ण और अधिक मिलनसार में बदल गई थी।

रूस के साथ संबंध (Relationship with Russia)

रूस ने भारत के महत्व को महसूस किया और मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने पर ध्यान दिया, जो 2007 में उनकी यात्रा  के दौरान मनमोहन सिंह के गर्मजोशी से स्वागत में परिलक्षित हुआ ।

अपने रिश्ते को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए दोनों देश रणनीतिक साझेदारी स्थापित करने पर सहमत हुए. मुख्य फोकस  सैन्य क्षेत्र पर था, जहां कई समझौते संपन्न हुए, जिनमें  सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ब्रह्मोस  , अत्याधुनिक 5वीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान, लेजर गाइडेड एंटी टैंक मिसाइलों का विकास और सैन्य सहयोग पर 2010 से आगे 10 साल के समझौते का विस्तार भी शामिल था।

रूस ने भी भारत की परमाणु नीति को मान्यता दी और तमिलनाडु के कुंडनकुलम में चार और नागरिक परमाणु रिएक्टर बनाने का वादा किया  ।  आर्थिक संपर्क का विस्तार करने के भी प्रयास किए गए जो पारंपरिक रुपया-रूबल व्यवस्था  से आगे बढ़ेंगे । इस प्रकार, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के तहत, भारत-रूस संबंध एक नई ऊंचाई पर सुधरे।

संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संबंध (Relationship with USA)

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भारत और अमेरिका एक-दूसरे के करीब आए, जिसे वास्तव में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों में एक बड़ी छलांग कहा जा सकता है।

ऐसे कई कारक थे जिन्होंने दोनों देशों के बीच घनिष्ठ संबंध में योगदान दिया:

  • सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत का तत्कालीन यूएसएसआर के साथ विशेषाधिकार प्राप्त संबंध टूटना।
  • उभरते शक्तिशाली चीन को संतुलित करने की आवश्यकता।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व के बीच यह भी व्यापक धारणा थी कि भारत संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंधों के लिए तैयार है।
  • अनियंत्रित और उदारीकृत भारतीय अर्थव्यवस्था ने अमेरिकी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक विस्तार के लिए आकर्षण के स्रोत के रूप में भी काम किया।
  • भारत से परे उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में भी आतंकवादी उन्मुख इस्लामी कट्टरवाद का एक भयावह विस्तार हुआ था, जिसका भारत को एक प्रमुख लक्ष्य माना गया था। इसके लिए भारत के साथ घनिष्ठ संबंधों की आवश्यकता थी।

इस पृष्ठभूमि में, भारत और अमेरिका ने ऐतिहासिक भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किये। इस पहल को शुरू करने में संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत के तीन उद्देश्य हैं:

  • (i) 30 से अधिक वर्षों से हमारे रणनीतिक संबंधों में बाधा डालने वाले मुख्य मतभेदों को दूर करना,
  • (ii) भारत की आर्थिक वृद्धि और ऊर्जा सुरक्षा को पर्यावरणीय रूप से सुदृढ़ तरीके से समर्थन देना, और
  • (iii) वैश्विक अप्रसार व्यवस्था को मजबूत करना।

इस सौदे को अमेरिका-भारत संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जाता है और इसने अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में एक नया पहलू पेश किया है। इस समझौते ने तीन दशक की यू.एस. को हटा दिया। भारत के साथ परमाणु व्यापार पर रोक. इसने भारत के नागरिक परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को अमेरिकी सहायता प्रदान की, और ऊर्जा और उपग्रह प्रौद्योगिकी में अमेरिका-भारत सहयोग का विस्तार किया।

मुख्य विशेषताएं (Salient Features)

  • भारत संयुक्त राष्ट्र के परमाणु निगरानी समूह, अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा संघ (आईएईए) के निरीक्षकों को अपने नागरिक परमाणु कार्यक्रम तक पहुंच की अनुमति देने पर सहमत हुआ, और अपने बाईस बिजली रिएक्टरों में से चौदह को स्थायी रूप से आईएईए सुरक्षा उपायों के तहत रखा।
  • समझौते के तहत, भारत ने अपने परमाणु शस्त्रागार की सुरक्षा करने और इसे गलत हाथों में जाने से रोकने की भी प्रतिबद्धता जताई।
  • अमेरिकी कंपनियों को भारत में परमाणु रिएक्टर बनाने और इसके नागरिक ऊर्जा कार्यक्रम के लिए परमाणु ईंधन उपलब्ध कराने की अनुमति दी जाएगी। (परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह द्वारा भारत पर प्रतिबंध हटाने की मंजूरी से अन्य देशों के लिए भी भारत को परमाणु ईंधन और प्रौद्योगिकी की बिक्री का रास्ता साफ हो गया है)।
  • भारत अमेरिकी परमाणु प्रौद्योगिकी खरीदने के लिए पात्र होगा, जिसमें ऐसी सामग्री और उपकरण भी शामिल हैं जिनका उपयोग यूरेनियम को समृद्ध करने या प्लूटोनियम को पुन: संसाधित करने के लिए किया जा सकता है।
  • भारत एक अतिरिक्त प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर करने के लिए प्रतिबद्ध है, जो अधिक घुसपैठ वाले IAEA निरीक्षण या इसकी नागरिक सुविधाओं की अनुमति देगा।
  • भारत परमाणु हथियारों के परीक्षण पर अपनी रोक जारी रखने पर भी सहमत हुआ।

2008 में, IAEA बोर्ड ऑफ गवर्नर्स ने भारत के सुरक्षा उपायों के समझौते को मंजूरी दे दी, जिससे परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत के विचार का मार्ग प्रशस्त हो गया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत के विस्तारित शांतिपूर्ण परमाणु क्षेत्र के साथ व्यापार की अनुमति देने के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत को छूट दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

पाकिस्तान से रिश्ता (Relationship with Pakistan)

इस अवधि के दौरान, भारत और पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे या व्यापक शांति समझौते पर सहमत होने में विफल रहे। 2008 के मुंबई हमलों और आगामी सबूतों से कि हमलावरों को पाकिस्तानी सेना और खुफिया प्रतिष्ठान का समर्थन प्राप्त था, रिश्ते एक नए निचले स्तर पर पहुंच गए।

बाद में, दोनों देशों के बीच तनाव को कम करने के लिए, सितंबर 2012 में एक उदारीकृत वीज़ा समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इस समझौते के तहत, दोनों देशों के 65 वर्ष से अधिक आयु के नागरिकों को आगमन पर वीज़ा दिया जा सकता है, और दोनों देशों के व्यवसायी यात्रा कर सकते हैं। दोनों देशों के बीच अधिक स्वतंत्रता।

चीन से संबंध (Relationship with China)

इस अवधि के दौरान चीन के साथ द्विपक्षीय संबंधों के संबंध में कई महत्वपूर्ण विकास हुए। तत्कालीन चीनी प्रधान मंत्री वेन जियाबाओ ने 2005 में भारत का दौरा किया, जिसके परिणामस्वरूप “भारत-चीन सीमा प्रश्न के समाधान के लिए राजनीतिक मापदंडों और मार्गदर्शक सिद्धांतों पर समझौते” पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके तहत दोनों देशों ने निष्पक्ष, उचित समाधान खोजने के लिए अपना दृढ़ संकल्प व्यक्त किया। और सीमा प्रश्न का पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान तथा शांति और मित्रता का वातावरण बनाना । चीन ने भी आधिकारिक तौर पर सिक्किम को “भारत का अभिन्न अंग” के रूप में मान्यता दी, जिससे सिक्किम अब भारत-चीन संबंधों में कोई मुद्दा नहीं रह गया है।

2013 में, दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया क्योंकि लद्दाख और अक्साई चिन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा के पास भारत और चीन के सैनिकों के बीच तीन सप्ताह तक गतिरोध चला। यह तनाव तब कम हुआ जब भारत लिव-इन बंकरों को ध्वस्त करने पर सहमत हुआ और चीन अपने सैनिकों को वापस बुलाने पर सहमत हुआ।

मनमोहन सिद्धांत (Manmohan Doctrine)

मनमोहन सिंह की विदेश नीति के सिद्धांतों को मनमोहन सिद्धांत के रूप में जाना जाता है, जिसका सारांश नीचे दिया जा सकता है:

  • भारत की विकासात्मक प्राथमिकताएँ दुनिया के साथ हमारे संबंधों को निर्देशित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं
  • मनमोहन सिंह शेष विश्व के साथ भारत की अर्थव्यवस्था के व्यापक एकीकरण के पक्ष में थे क्योंकि इससे भारत को लाभ होगा और हमारे लोगों को अपनी रचनात्मक क्षमता का एहसास करने में मदद मिलेगी।
  • हम सभी प्रमुख शक्तियों के साथ स्थिर, दीर्घकालिक और पारस्परिक रूप से लाभप्रद संबंध चाहते हैं। हम सभी देशों के लिए लाभकारी वैश्विक आर्थिक और सुरक्षा वातावरण बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ काम करने के लिए तैयार हैं।
  • हम मानते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप की साझा नियति के लिए अधिक क्षेत्रीय सहयोग और कनेक्टिविटी की आवश्यकता है। इस दिशा में, हमें क्षेत्रीय संस्थागत क्षमता और क्षमता को मजबूत करना होगा और कनेक्टिविटी में निवेश करना होगा।
  • हमारी विदेश नीति केवल हमारे हितों से ही परिभाषित नहीं होती, बल्कि उन मूल्यों से भी परिभाषित होती है जो हमारे लोगों को बहुत प्रिय हैं।

नरेंद्र मोदी के अधीन विदेश नीति (Foreign Policy under Narendra Modi)

प्रधानमंत्री मोदी ने  राष्ट्रपति भवन में अपने शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने के लिए सभी सार्क देशों के अपने समकक्षों को आमंत्रित करके एक साहसिक निर्णय की  शुरुआत की । इसने ”  नेबरहुड फर्स्ट  ” विदेश नीति को चिह्नित किया। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति की विशेषता जबरदस्त ऊर्जा, अतीत के ढांचे को तोड़ने की इच्छा और जोखिम लेने की प्रवृत्ति है।

जबकि उनकी नीतियां विदेशी पूंजी और प्रौद्योगिकी को आकर्षित करने और भारतीय उत्पादों के लिए विदेशी बाजारों की तलाश करने के लिए बनाई गई हैं, वे क्षेत्रीय स्थिरता, शांति और समृद्धि के बीच घनिष्ठ संबंध के लिए भी तैयार हैं। मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति एक उल्लेखनीय परिवर्तन और असाधारण गतिशीलता को प्रदर्शित करती है। दरअसल, भारत ‘मोदी सिद्धांत’ का उदय देख रहा है। 4  डी – लोकतंत्र, जनसांख्यिकी और मांग और डायस्पोरा ने  पीएम मोदी के तहत भारत की विदेश नीति में एक शक्ति गुणक के रूप में काम किया है।

विशेषताएँ (Features)

  • अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की भूमिका को केवल ‘संतुलन शक्ति’ के बजाय ‘एक अग्रणी शक्ति’ में बदलना।
  • कूटनीति को मुख्य रूप से देश के सामाजिक-आर्थिक विकास को गति देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
  • आज की दुनिया में, रक्षा क्षमताएं और आर्थिक ताकत महत्वपूर्ण हैं; साथ ही, भारत को अपनी प्रचुर सॉफ्ट पावर का भी उपयोग करना चाहिए।
  • भारतीय प्रवासी एक संपत्ति है जो केवल प्रेषण भेजने तक ही सीमित नहीं है। इसलिए, भारतीय प्रवासियों के साथ संबंधों को सावधानीपूर्वक पोषित किया जाना चाहिए और विदेशों में संकट में फंसे भारतीयों का ध्यान रखा जाना चाहिए।

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के तहत, भारत की विदेश नीति ने एक नई गति पकड़ ली है, और विचार में व्यापक बदलाव दिखाई दे रहा है। मोदी सिद्धांत की कई प्रमुख विशेषताएं हैं:

भारत प्रथम (India First)

‘इंडिया फर्स्ट’ मोदी सिद्धांत की मूलभूत विशेषता है  । भारत की पसंद और कार्य उसकी राष्ट्रीय शक्ति की ताकत पर आधारित हैं। इसके अलावा,  भारत की रणनीतिक मंशा मुख्य रूप से यथार्थवाद, सह-अस्तित्व, सहयोग और साझेदारी से आकार लेती है।  इसके अलावा, मोदी की विदेश नीति वसुधैव कुटुंबकम (पूरी दुनिया हमारा परिवार है) के मूल मूल्य द्वारा निर्देशित है।

भारत के विकास पर केंद्रित, मोदी की विदेश नीति ‘सभी भारतीयों की सुरक्षा और समृद्धि के लिए भारत में सुधार और परिवर्तन के निरंतर अभियान द्वारा निर्देशित है।’ 17 जनवरी 2017 को दिल्ली में दूसरे रायसीना डायलॉग में अपने उद्घाटन भाषण में, मोदी ने रेखांकित किया कि भारत का आर्थिक और राजनीतिक उदय “महान महत्व के क्षेत्रीय और वैश्विक अवसर का प्रतिनिधित्व करता है। यह शांति के लिए एक ताकत है, स्थिरता के लिए एक कारक है, और क्षेत्रीय और वैश्विक समृद्धि के लिए एक इंजन है।”

पड़ोस प्रथम नीति (Neighbourhood First Policy)

एक  दृढ़ ‘पड़ोसी पहले’ दृष्टिकोण मोदी सिद्धांत की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता को दर्शाता है  । मोदी एक ‘संपन्न, अच्छी तरह से जुड़े और एकीकृत पड़ोस’ का सपना देखते हैं और इसलिए, मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने अपने पड़ोस के साथ मजबूत संबंध बनाने के लिए भारत की प्राथमिकता का स्पष्ट रूप से संकेत दिया है।

पीएम मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में सभी सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित करके अपनी ‘पड़ोसी पहले’ नीति को चिह्नित करते हुए एक बहुत ही सकारात्मक शुरुआत की। इसके बाद अपने पहले 19 महीनों में उन्होंने मालदीव को छोड़कर पाकिस्तान सहित सभी सार्क देशों का दौरा किया। अधिक कनेक्टिविटी, मजबूत सहयोग और व्यापक संपर्क के विषय आज अपने पड़ोसियों के साथ भारत के संबंधों पर हावी हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि पड़ोसियों ने भी इस सहयोग का प्रतिउत्तर दिया है।

सांस्कृतिक जुड़ाव और सॉफ्ट पावर को मजबूत करना (Strengthening Cultural Connect and Soft Power)

भारतीय मूल्यों, संस्कृति और परंपरा या सभ्यतागत जुड़ाव को बढ़ावा देना मोदी सिद्धांत की एक और महत्वपूर्ण विशेषता है  ।  पीएम मोदी की जापान, चीन, मंगोलिया, श्रीलंका, बांग्लादेश  आदि सांस्कृतिक स्थलों की यात्राएं , जहां भारत और इन देशों के बीच प्राचीन सभ्यतागत संबंध अभी भी दिखाई देते हैं, वास्तव में उल्लेखनीय है। फी ने साझा मूल्यों, परंपराओं और विरासत पर भी विस्तार से बात की है और इसलिए इन प्राचीन संबंधों को मजबूत किया है।

भारत की सॉफ्ट पावर डिप्लोमेसी का एक दुर्लभ प्रदर्शन तब देखने को मिला जब 21 जून को संयुक्त राष्ट्र समेत पूरी दुनिया ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया। अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन या सोशल मीडिया जैसी मोदी की पहल सॉफ्ट पावर संवर्धन के अच्छे उदाहरण हैं।

भारतीय प्रवासी (Indian Diaspora)

पीएम मोदी के नेतृत्व में,  सरकार ने भारतीय प्रवासियों के साथ गुणात्मक और मात्रात्मक रूप से जुड़ाव बढ़ाया है, और नियमों को सरल बनाने, उनकी शिकायतों का तुरंत जवाब देने और  उन्हें सरकार के समग्र विकास एजेंडे में शामिल करने की कोशिश कर रही है।

प्रवासी समुदाय के प्रति भारत सरकार के सक्रिय दृष्टिकोण ने गैर-आवासीय भारतीयों (एनआरआई) और भारतीय मूल के व्यक्तियों (पीआईओ) समुदाय को फिर से सक्रिय कर दिया है, अपने मूल देश के साथ उनके संबंधों को मजबूत किया है और अपने निवास देश में उनका कद बढ़ाया है।

यह सार्वजनिक बैठकों और सोशल मीडिया के माध्यम से संपर्क सहित विभिन्न माध्यमों से विदेश में भारतीय समुदाय के साथ मोदी की बातचीत में स्पष्ट रूप से स्पष्ट है। इस तरह की केंद्रित भागीदारी व्यापार, निवेश, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनीतिक समर्थन जुटाने के लिए तालमेल बनाने में बहुत मददगार हो सकती है।

कई मौकों पर, प्रवासी समुदाय ने सहायता के लिए विदेश मंत्रालय (एमईए) से संपर्क किया है और त्वरित और सीधे संचार के कारण, सरकार द्वारा समय पर सहायता की सुविधा प्रदान की गई है।

मोदी का सबका साथ, सबका विकास (सबको साथ लेकर चलना और सबके विकास के लिए काम करना) का दृष्टिकोण ‘पूरी दुनिया के लिए एक विश्वास है और यह कई परतों, कई विषयों और विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में प्रकट होता है।’

अमेरिका से निकटता (Closeness with USA)

सितंबर 2014 में, पीएम मोदी ने अमेरिका का दौरा किया और जनवरी 2015 में, अमेरिकी राष्ट्रपति नई दिल्ली में गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि के रूप में भारत आए। भारत-अमेरिका संबंधों में हुई कुछ प्रगतियाँ इस प्रकार हैं:

  • असैन्य परमाणु समझौता  : अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान असैन्य परमाणु समझौते में गतिरोध एजेंडे का केंद्रबिंदु था. यह सौदा, जिसे 123 समझौता भी कहा जाता है, दुर्घटना की स्थिति में मुआवजे के लिए भारत के परमाणु दायित्व कानून और अमेरिका द्वारा भारत को आपूर्ति किए गए परमाणु ईंधन और अन्य सामग्रियों पर नज़र रखने की मांग पर दोनों देशों के बीच मतभेद के कारण रुका हुआ था। भारत की परमाणु व्यवस्था तक पहुंच की इस मांग को भारत ने घुसपैठिया बताया था. मतभेदों को भारतीय दायित्व कानून में संशोधन और अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा “ट्रैकिंग” स्थिति को हटाने के लिए अपनी कार्यकारी शक्तियों के उपयोग के साथ हल किया गया।
  • रक्षा सहयोग:  मोदी की 2014 की यात्रा के दौरान, दोनों पक्ष रक्षा क्षेत्र में सहयोग को एक और दशक तक बढ़ाने पर सहमत हुए, जिसके परिणामस्वरूप 2015 में औपचारिक रूप से ‘रक्षा सहयोग के लिए नई रूपरेखा’ को नवीनीकृत किया गया।

भारत ने अगस्त 2016 में LEMOA (लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट) और सितंबर 2018 में COMCASA (कम्युनिकेशंस कम्पैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट) पर हस्ताक्षर किए। LEMOA और COMCASA उन तीन मूलभूत समझौतों में से दो हैं, जिन पर अमेरिका अपने सहयोगियों और करीबी साझेदारों के साथ अंतरसंचालनीयता को सुविधाजनक बनाने के लिए हस्ताक्षर करता है। सेनाएँ और उच्च-स्तरीय प्रौद्योगिकी की बिक्री।

पूर्व की ओर देखो और पूर्व की ओर कार्य करो (Look East to Act East)

पूर्व की ओर देखो नीति नरसिम्हा राव सरकार द्वारा शुरू की गई और तब तक जारी रही जब तक कि मनमोहन सिंह सरकार ने बड़े इरादे का संकेत देने के लिए इसे पीएम मोदी द्वारा ‘एक्ट ईस्ट’ में अपग्रेड नहीं कर दिया  । एशिया में व्यापक रणनीतिक संदर्भ के संदर्भ में, भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के तीन अलग-अलग पहलू हैं: संस्थागत, वाणिज्यिक और सुरक्षा संबंधी।

संस्थागत स्तर पर, आसियान, बिम्सटेक और पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के साथ एफटीए ने भारत को एशिया के बहुपक्षीय नेटवर्क में एकीकृत किया है। प्रधान मंत्री मोदी ने जनवरी 2018 में गणतंत्र दिवस परेड के लिए सभी 10 आसियान नेताओं को विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। कनेक्टिविटी पर, भारत ने आसियान को लाने के लिए एक प्रमुख धमनी के रूप में मोरेह, मणिपुर से 3,200 किलोमीटर लंबे भारत-म्यांमार-थाईलैंड राजमार्ग पर काम भी तेज कर दिया है  ।  भारत के करीब. मोदी के नेतृत्व में भारत अब इस क्षेत्र के साथ अपने जुड़ाव में टोक्यो और वाशिंगटन की ओर झुकने में शर्मीला और चीन की संवेदनशीलता के प्रति कम सचेत नहीं दिखता है।

सागर विजन (SAGAR Vision)

क्षेत्र में सभी के लिए सुरक्षा और विकास (SAGAR) हिंद महासागर क्षेत्र में समुद्री सहयोग की भारत की नीति या सिद्धांत है। इस नीति की घोषणा पहली बार प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मार्च 2015 को की थी।

हालाँकि SAGAR के दृष्टिकोण के संबंध में कोई भी आधिकारिक वृत्तचित्र प्रकाशित नहीं किया गया है, लेकिन कई पहल और कई समुद्री घटनाएं हुई हैं जिन्हें इसका एक हिस्सा माना जा सकता है।

सागर का दर्शन (Vision of SAGAR)

यह हिंद महासागर रिम एसोसिएशन (IORA) के मुख्य भाषण में था जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने SAGAR पहल के लिए एक दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए कहा कि ”  हिंद महासागर क्षेत्र के लिए हमारा दृष्टिकोण हमारे क्षेत्र में सहयोग को आगे बढ़ाने और हमारे उपयोग में निहित है।” हमारे साझे समुद्री घर में सभी के लाभ के लिए क्षमताएँ  ”

इस दृष्टिकोण के आधार पर SAGAR पहल को निम्नलिखित शर्तों के तहत परिभाषित किया जा सकता है:

  • सुरक्षा:   तटीय सुरक्षा में वृद्धि ताकि भूमि और समुद्री क्षेत्रों की अपेक्षाकृत आसानी से सुरक्षा की जा सके।
  • क्षमता निर्माण:   आर्थिक व्यापार और समुद्री सुरक्षा की सुचारू सुविधा के लिए आर्थिक और सुरक्षा सहयोग को गहरा करना।
  • सामूहिक कार्रवाई:   प्राकृतिक आपदाओं और समुद्री डकैती, आतंकवाद और उभरते गैर-राज्य अभिनेताओं जैसे समुद्री खतरों से निपटने के लिए सामूहिक कार्रवाई को बढ़ावा देना।
  • सतत विकास:   बेहतर सहयोग के माध्यम से सतत क्षेत्रीय विकास की दिशा में काम करना
  • समुद्री जुड़ाव:   अधिक विश्वास बनाने और समुद्री नियमों, मानदंडों और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सम्मान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से हमारे तटों से परे देशों के साथ जुड़ाव।

सागर विज़न की आवश्यकता (Need for SAGAR Vision)

नीली अर्थव्यवस्था का लाभ उठाना.

  • नीली अर्थव्यवस्था   भारत को अपने राष्ट्रीय सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों (आजीविका उत्पादन, ऊर्जा सुरक्षा प्राप्त करना, पारिस्थितिक लचीलेपन का निर्माण आदि) को पूरा करने के साथ-साथ पड़ोसियों के साथ कनेक्टिविटी को मजबूत करने का एक अभूतपूर्व अवसर प्रदान करती है।
  • महासागर वैश्विक आबादी के एक बड़े हिस्से को भोजन और आजीविका के साथ-साथ 80% वैश्विक व्यापार के लिए परिवहन प्रदान करते हैं।
  • अन्वेषण के विस्तार के साथ, समुद्र तल वर्तमान में हाइड्रोकार्बन की वैश्विक आपूर्ति का 32% प्रदान करता है। समुद्र   पवन, तरंग, ज्वारीय, तापीय और बायोमास स्रोतों से नवीकरणीय  नीली ऊर्जा उत्पादन की विशाल क्षमता भी प्रदान करता है।
  •  नई प्रौद्योगिकियां जैव-पूर्वेक्षण से लेकर समुद्री खनिज संसाधनों (पॉली-मेटैलिक नोड्यूल्स) के खनन तक समुद्री संसाधन विकास  की सीमाएं खोल रही हैं ।

क्षेत्रीय मुद्दों से निपटना

  •  प्राकृतिक आपदाओं के मद्देनजर   मानवीय सहायता प्रदान करने और  समुद्री डकैती और आतंकवाद  में लगे गैर-राज्य तत्वों का मुकाबला करने के प्रयासों को मजबूत करने की आवश्यकता है  ।
  • इसके अलावा, भारत एक एकीकृत दृष्टिकोण और सहकारी भविष्य चाहता है, जिसके परिणामस्वरूप   क्षेत्र में  सभी के लिए सतत विकास होगा।

चीनी प्रभाव की जाँच करना

  • चीन अपने   समुद्री रेशम मार्ग (बीआरआई पहल का हिस्सा)  के माध्यम से  हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है।
  • इसके अलावा, भारत के पड़ोसी देशों में चीनी निवेश   दोहरी प्रकृति का है यानी सैन्य आधार पर वाणिज्यिक।  मोतियों की माला ने   भारत   के लिए रणनीतिक चिंताएँ पैदा कर दी हैं।
  • इस संदर्भ में, SAGAR दृष्टिकोण ऐसे मुद्दों का मुकाबला करने में बहुत महत्व रखता है।

सागर विजन का महत्व (Significance of SAGAR Vision)

  • SAGAR भारत को एशिया और अफ्रीका में अन्य IOR तटीय क्षेत्रों के साथ रणनीतिक साझेदारी का विस्तार करने के लिए एक तंत्र प्रदान करता है।
  • SAGAR नेतृत्व की भूमिका और जिम्मेदारियों को इंगित करता है कि भारत अपने क्षमता निर्माण और क्षमता वृद्धि कार्यक्रमों के माध्यम से इस क्षेत्र में दीर्घकालिक आधार पर पारदर्शी तरीके से खेलने के लिए तैयार है।
  • यह भारत के समुद्री पुनरुत्थान का प्रतीक है, क्योंकि समुद्री मुद्दे अब भारत की विदेश नीति का केंद्र हैं।
  • इन सभी नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन के साथ, भारत   आईओआर में सकारात्मक वातावरण बनाने में एक समर्थक के रूप में कार्य कर सकता है।

कूटनीति और विकास को जोड़ना (Bridging Diplomacy and Development)

मोदी की विदेश नीति काफी हद तक भारत की विकास संबंधी जरूरतों से प्रेरित है, जो सभी नागरिकों की सुरक्षा और समृद्धि दोनों के लिए भारत में लगातार सुधार और परिवर्तन के लिए प्रयासरत है।  यह दृष्टिकोण व्यापार, ऊर्जा सुरक्षा और “मेक इन इंडिया” पहल  पर भारत की चिंताओं में निहित है । इस दिशा में दुनिया भर के निवेशकों को आकर्षित करने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है। इसलिए, दुनिया भर में अपनी यात्राओं के दौरान, प्रधान मंत्री ने भारत को एक मजबूत निवेश गंतव्य के रूप में प्रचारित करने का शायद ही कोई मौका छोड़ा हो। इससे देश में विदेशी निवेश में वृद्धि हुई, जो इस तथ्य से स्पष्ट है कि, वैश्विक एफडीआई प्रवाह में मंदी के बावजूद, 2017 के वित्तीय वर्ष में, भारत में एफडीआई 62 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया।

मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति को भी कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पश्चिम में घरेलू राजनीतिक परिवेश को आकार देने वाले कुछ मूलभूत परिवर्तन भी हैं, और महान शक्ति संबंधों में बदलाव आ रहा है, जिसे भारत को अत्यंत गंभीरता से निभाना होगा। चीन-रूस संबंध ऐसे अर्थ प्राप्त कर रहा है जिसके भारतीय हितों पर दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं और डोनाल्ड ट्रम्प के तहत चीन-अमेरिका संबंध भी लेन-देन वाले हो सकते हैं।

भारत की विदेश नीति की चुनौतियाँ (India’s Foreign Policy Challenges)

भारत की विदेश नीति स्वतंत्रता के बाद से विकसित हुई है जब उसे शीत युद्ध की राजनीति, विकास और गरीबी उन्मूलन जैसे मुद्दों का सामना करना पड़ा था। पिछले दो दशकों ने भारत की अर्थव्यवस्था और समाज को बदल दिया है जिससे दुनिया के साथ जुड़ाव भी बढ़ा है। वहीं, वैश्विक स्थिति भी तेजी से बदल रही है और कई नई चुनौतियां खड़ी कर रही है।

मोटे तौर पर, इन चुनौतियों में शामिल हैं:

  • शांतिपूर्ण परिधि सुनिश्चित करना:  जब तक हमारे पास शांतिपूर्ण और समृद्ध पड़ोस नहीं होगा, हम घरेलू स्तर पर सामाजिक-आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाएंगे। इस प्रकार, हमें पड़ोस के साथ घनिष्ठ राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संबंधों को विकसित करने को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है, जो मजबूत और स्थायी साझेदारी में परिणत हो। हमारे पड़ोस में हमारे लिए चुनौती अंतर-निर्भरता का निर्माण करना है जो न केवल अर्थव्यवस्थाओं को एकीकृत करती है, बल्कि उपमहाद्वीप में एक-दूसरे की स्थिरता और समृद्धि में निहित स्वार्थ भी पैदा करती है।
  • प्रमुख शक्तियों के साथ संबंध:  चीन के उदय के साथ आज दुनिया तेजी से बहुध्रुवीय होती जा रही है। अन्य प्रमुख शक्तियों में संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस शामिल हैं। 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था शेष विश्व के साथ अधिक एकीकृत हो गई। भारत के रणनीतिक हित बढ़ रहे हैं और उन हितों की रक्षा के लिए प्रमुख शक्तियों के साथ संबंध महत्वपूर्ण हैं। हालाँकि, चुनौती एक-दूसरे के साथ संबंधों को संतुलित करने की होगी। पश्चिम की ओर बढ़ता झुकाव समय-परीक्षित मित्र रूस से दूरी बना देगा। ईरान के साथ निकटता और फिलिस्तीन पर भारत के रुख की इजरायल, अमेरिका और अरब देशों के साथ संबंधों के लिए प्रासंगिकता है।

भविष्य के मुद्दे अर्थात्  खाद्य सुरक्षा, जल, ऊर्जा और पर्यावरण:  ये मुद्दे  सीमा पार के मुद्दे  हैं जिनके समाधान के लिए भारत को दूसरों के साथ रचनात्मक रूप से जुड़ने की आवश्यकता है।

पानी, बाढ़ नियंत्रण और ऊर्जा जैसे कई मुद्दों का समाधान हमारे पड़ोस में है – तात्कालिक और विस्तारित।

हमारे आर्थिक विकास के लिए ऊर्जा की निरंतर आपूर्ति की आवश्यकता है जिसके लिए हमें रूस, मध्य पूर्व आदि जैसे ऊर्जा-अधिशेष देशों के साथ जुड़ने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन और वैश्विक पर्यावरणीय गिरावट के मुद्दे पर ‘  साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों’  के सिद्धांत पर दूसरों के साथ काम करने की आवश्यकता है। ‘जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन में प्रतिष्ठापित।

भारत की विदेश नीति के समक्ष वर्तमान चुनौतियाँ (Current Challenges to India’s Foreign Policy)

  • जैसा कि यथार्थवादी विवेक की मांग है, भारत   रूस-यूक्रेन संघर्ष पर केवल एक नैतिक दृष्टिकोण नहीं अपना सकता है और राजनीति के निर्देशों की अनदेखी नहीं कर सकता है।
  • भारत के पूर्व   राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने   बार-बार कहा कि   भारत विश्व मंच पर तभी प्रभावी भूमिका निभा सकता है जब वह आंतरिक और बाह्य रूप से मजबूत हो।
  • यहां चुनौती मानवाधिकारों की सुरक्षा और राष्ट्रीय हित में संतुलन बनाना है। जैसे-जैसे रोहिंग्या संकट सामने आ रहा है, दीर्घकालिक समाधान खोजने की सुविधा के लिए भारत अभी भी बहुत कुछ कर सकता है।
  •  ये कार्रवाइयां मानवाधिकारों पर भारत की क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिति  निर्धारित करने में महत्वपूर्ण होंगी ।

सांस्कृतिक कूटनीति (Cultural Diplomacy)

सांस्कृतिक कूटनीति विदेश नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण रणनीतियों में से एक है  , जो आधिकारिक पहल के साथ-साथ लोगों से लोगों के संपर्क द्वारा संचालित अन्य देशों के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने में मदद करती है  । सरल शब्दों में, सांस्कृतिक कूटनीति किसी राज्य की विदेश नीति के लक्ष्यों के समर्थन में उसकी संस्कृति का परिनियोजन है, जो इस आधार पर आधारित है कि अच्छे संबंध समझ और सम्मान की उपजाऊ जमीन पर जड़ें जमा सकते हैं।

महत्व (Significance)

सांस्कृतिक कूटनीति से दूसरे देशों के बीच किसी देश के मूल्यों और छवि को बढ़ावा मिलता है। साथ ही, इससे अन्य देशों और उनके लोगों के मूल्यों, संस्कृति और छवि की समझ पैदा होती है। यह किसी सरकार के लिए अन्य देशों के साथ अपना सम्मान और समझ बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है।

सांस्कृतिक कूटनीति विभिन्न देशों के लोगों के बीच मजबूत संबंध पैदा कर सकती है क्योंकि यह लोगों के बीच बातचीत के लिए मंच तैयार कर सकती है, इस प्रकार अन्य लोगों के साथ “विश्वास की नींव” तैयार कर सकती है।

नीति निर्माता इस भरोसे के आधार पर राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य समझौते बना सकते हैं। इससे विभिन्न समुदायों के बीच जातीय संघर्ष को कम करने में भी मदद मिल सकती है क्योंकि कूटनीति से दूसरे की संस्कृति की समझ बढ़ती है। सांस्कृतिक कूटनीति केवल कूटनीति को आगे बढ़ाने वाले देश के हितों को ही नहीं, बल्कि अन्य देशों के हितों को भी आगे बढ़ाने में मदद कर सकती है।

सांस्कृतिक कूटनीति के इस व्यापक दायरे के उदाहरणों में शैक्षिक छात्रवृत्ति, घरेलू और विदेश दोनों तरह के विद्वानों, बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों और कलाकारों का दौरा, सांस्कृतिक समूह प्रदर्शन, सेमिनार और सम्मेलन आदि शामिल हैं।

भारत की सांस्कृतिक कूटनीति और नम्र शक्ति (India’s Cultural Diplomacy and Soft Power)

स्वतंत्रता के बाद से,  भारत ने सांस्कृतिक कूटनीति के महत्व को पहचाना है। विदेश मंत्रालय भारत की संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है, जिसके परिणामस्वरूप भारत कई देशों के साथ 126 द्विपक्षीय सांस्कृतिक समझौते कर रहा है और वर्तमान में अन्य देशों के साथ 58 सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम लागू कर रहा है  ।

इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, भारत ने 1950 में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) नामक एक नोडल निकाय की स्थापना की। यह निकाय सांस्कृतिक केंद्रों, भारत के त्योहारों, भारतीय अध्ययन अध्यक्षों आदि के रूप में भारत की संस्कृति को बढ़ावा देने में सबसे आगे रहा है। आईसीसीआर की मौजूदगी 35 देशों में उन देशों के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में है। बाद में राजीव गांधी ने दुनिया भर में भारतीय त्योहारों को बढ़ावा देकर सांस्कृतिक कूटनीति को भी बढ़ावा दिया।

1990 के दशक से, भारतीय व्यंजनों, योग, बॉलीवुड और समकालीन कला की स्वीकृति के साथ भारत की संस्कृति दुनिया भर में बहुत रुचि पैदा कर रही है। साथ ही, प्रवासी भारतीयों की आर्थिक सफलता ने विदेशों में भारतीय संस्कृति को बढ़ावा दिया है।

इसे ध्यान में रखते हुए, भारत सरकार 2003 में शुरू हुए प्रवासी भारतीय दिवस सहित विभिन्न पहलों के माध्यम से भारतीय प्रवासियों पर ध्यान केंद्रित कर रही है। इसके अलावा, समय-समय पर विभिन्न देशों के साथ हस्ताक्षरित सांस्कृतिक समझौतों के माध्यम से, भारत आदान-प्रदान के माध्यम से सांस्कृतिक कूटनीति को बढ़ावा देने में लगा हुआ है। कार्यक्रम, प्रदर्शन और कई अन्य सांस्कृतिक गतिविधियाँ। एक अन्य प्रमुख कार्यक्रम ‘भारत को जानो कार्यक्रम’, एक तीन सप्ताह का अभिविन्यास कार्यक्रम है जो प्रवासी युवाओं पर केंद्रित है, जो उन्हें भारत में जीवन के विभिन्न पहलुओं और विभिन्न क्षेत्रों में देश द्वारा की गई प्रगति से अवगत कराता है।

वर्तमान परिदृश्य (Present Scenario)

हाल के दिनों में सांस्कृतिक पहलू पर जोर दिया गया है। “सांस्कृतिक और सभ्यता संबंध” मोदी के तहत भारत की विदेश नीति के नरम शक्ति घटकों को दर्शाते हैं।

भारत ने भगवान बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण के उपलक्ष्य में 4 मई 2015 को अंतर्राष्ट्रीय बुद्ध पूर्णिमा दिवस की मेजबानी की। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी बौद्ध कैलेंडर में सबसे महत्वपूर्ण दिन – अंतर्राष्ट्रीय वेसाक दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेने के लिए श्रीलंका पहुंचे।

UNGA ने योग को हर साल 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में अपनाने के भारत के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। भारत की प्राचीन संस्कृति के साथ योग का घनिष्ठ संबंध विदेशों के लोगों के बीच लोकप्रियता और वैधता हासिल करने में मदद करेगा। आयुर्वेद को भी पारंपरिक चीनी चिकित्सा के समकक्ष स्थापित करने के उद्देश्य से यही प्रोत्साहन दिया गया है। इसी समय, भारत की धार्मिक और दार्शनिक परंपराएँ योग सहित अपनी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए तेजी से रास्ता खोज रही हैं।

बॉलीवुड ने भारत की संस्कृति को बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है क्योंकि उद्योग को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अधिक स्वीकार्यता मिली है।

खेल कूटनीति (Sports Diplomacy)

खेल कूटनीति  राजनयिक, सामाजिक और राजनीतिक संबंधों को प्रभावित करने के साधन के रूप में खेल के उपयोग का वर्णन करती है, जो सांस्कृतिक मतभेदों को पार करती है और लोगों को एक साथ लाती है  ।

सामान्य तौर पर भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट रिश्ते राजनीतिक रिश्ते की राह पर चल पड़े हैं। जब भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैचों की बात आती है, तो दोनों तरफ जुनून चरम पर होता है। भारत और पाकिस्तान ने 1952 से एक दूसरे के साथ क्रिकेट खेलना शुरू किया जब पाकिस्तान ने पहली बार भारत का दौरा किया। ये दौरे जारी रहे, लेकिन 1965 और 1971 के युद्धों के कारण राजनीतिक संबंधों में खटास आने के साथ-साथ सीमा पर झड़पों के कारण क्रिकेट संबंधों को भी झटका लगा।

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया उल-हक ने क्रिकेट कूटनीति की शुरुआत तब की जब वह अपनी “शांति के लिए क्रिकेट पहल” के हिस्से के रूप में फरवरी 1987 में दोनों पक्षों के बीच एक टेस्ट मैच देखने के लिए भारत आए। इस पहल से दोनों देशों के बीच संबंधों को फिर से ठीक से शुरू करने में मदद मिली.

लेकिन 1989 के कश्मीर संकट की पृष्ठभूमि में राजनीतिक संबंध फिर से बिगड़ गए, जिससे क्रिकेट संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के साथ क्रिकेट संबंध फिर से खराब हो गए।

1997 में, भारत के पाकिस्तान दौरे के साथ क्रिकेट संबंध फिर से शुरू हुए लेकिन आने वाले वर्ष में दोनों देशों द्वारा परमाणु हथियारों का परीक्षण करने से यह संबंध फिर से बिगड़ गए। रिश्तों में सुधार के साथ, 1999 में पाकिस्तान के भारत दौरे पर क्रिकेट संबंध भी सामान्य हो गए।

कारगिल युद्ध और 1999 में पाकिस्तान स्थित ‘इस्लामी कट्टरपंथियों’ द्वारा इंडियन एयरलाइंस के अपहरण के कारण राजनीतिक संबंध खराब हो गए। इस घटना के बाद, भारत ने द्विपक्षीय क्रिकेट को तब तक निलंबित करने का फैसला किया जब तक कि पाकिस्तान कश्मीर में विद्रोह को समर्थन देना बंद नहीं कर देता। 2004 में, भारतीय टीम के पाकिस्तान दौरे के साथ क्रिकेट संबंध फिर से शुरू हुए, जब वाजपेयी ने एक क्षेत्रीय शिखर सम्मेलन के लिए पाकिस्तान की यात्रा की, जिससे दोनों देशों के बीच मतभेद दूर हो गए। यह दौरा बहुत सफल रहा क्योंकि क्रिकेट प्रशंसक पाकिस्तानी आतिथ्य की अविश्वसनीय कहानियों के साथ लौटे।

2005 में, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने क्रिकेट कूटनीति का इस्तेमाल किया जब उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ को दिल्ली में एक दिवसीय मैच देखने के लिए आमंत्रित किया। इस अवसर ने कश्मीर और सियाचिन तथा सर क्रीक पर संघर्ष सहित कई मुद्दों पर बात करने का अवसर प्रदान किया। 2008 में मुंबई हमले के साथ, राजनीतिक और क्रिकेट संबंध फिर से टूट गए। 2011 में, देशों के बीच कई उच्च-स्तरीय संपर्कों के बाद, वे कश्मीर के जटिल विषय सहित सभी लंबित मुद्दों को हल करने के लिए अपनी शांति वार्ता को फिर से शुरू करने पर सहमत हुए। तब से, रिश्ते में उथल-पुथल मची हुई है।

क्रिकेट कूटनीति केवल भारत-पाकिस्तान संबंधों तक ही सीमित नहीं है। 2015 विश्व कप की शुरुआत से पहले, प्रधान मंत्री मोदी ने दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) देशों के नेताओं को फोन किया और उन्हें क्रिकेट विश्व कप के लिए शुभकामनाएं दीं।

सामान्य तौर पर, क्रिकेट कूटनीति ने व्यापक मुद्दों पर बातचीत फिर से शुरू करने और दोनों देशों के मूड का मूल्यांकन करने के लिए एक मंच प्रदान किया है। इसने कई बार दोनों देशों के बीच तनाव को कम किया है और उन्हें क्रिकेट के खेल में एकजुट करके एक समान जुनून प्रदान किया है। मेहमान टीम के प्रशंसकों और मेज़बान देश के खिलाड़ियों ने युद्ध के अलावा अन्य चीज़ों को देखने के लिए एक उत्साहजनक माहौल भी तैयार किया है। इससे दोनों देशों और वहां के लोगों के बीच विश्वास कायम करने में मदद मिलती है।

खेल कूटनीति

अंतरिक्ष कूटनीति (Space Diplomacy)

अंतरिक्ष कूटनीति को राजनयिक, सामाजिक और राजनीतिक संबंधों को प्रभावित करने के साधन के रूप में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के शोषण के रूप में  वर्णित किया जा सकता है । इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) के पास अपनी स्थापना के बाद से 39 देशों और 4 बहुराष्ट्रीय निकायों की अंतरिक्ष एजेंसियों के साथ अंतरिक्ष सहयोग दस्तावेज़ हैं। सहयोग पर निम्नलिखित शीर्षकों में चर्चा की जा सकती है:

  • (ए) सैटेलाइट सिस्टम और रॉकेट:  इसरो ओएनईएस (फ्रांसीसी अंतरिक्ष एजेंसी), नासा और रूसी अंतरिक्ष एजेंसी के साथ उपग्रहों के विकास, भारत में तरल प्रणोदन उत्पादन संयंत्र की स्थापना सहित विभिन्न मोर्चों पर काम कर रहा है। इसरो और ओएनईएस ने एक संयुक्त मिशन ‘मेघाट्रोपिक्स’ पर सहयोग किया और हाल ही में मिशन पर एमओयू को 2020 तक बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की। इसरो पृथ्वी अवलोकन के लिए एक संयुक्त माइक्रोवेव रिमोट सेंसिंग उपग्रह निसार (नासाइसरो) सिंथेटिक एपर्चर रडार) विकसित करने के लिए नासा के साथ भी सहयोग कर रहा है।
  • (बी) सैटेलाइट संचार:  ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति की दिशा में, पीएम मोदी ने अपने छह पड़ोसियों के बीच संचार को बढ़ावा देने और आपदा लिंक में सुधार करने के लिए अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका को दक्षिण एशिया सैटेलाइट (एसएएस) उपहार में दिया।
  • (सी) उपग्रह डेटा और आपदा प्रबंधन:  आपदा प्रबंधन में, इसरो कोस्पास-सरसैट (कोस्पास: संकट में जहाजों की खोज के लिए अंतरिक्ष प्रणाली; सरसैट्स: खोज और बचाव उपग्रह सहायता प्राप्त ट्रैकिंग) के माध्यम से आसियान के साथ भी सहयोग कर रहा है – एक खोज और बचाव प्रणाली। इसरो भारतीय उपग्रहों से डेटा साझा करता है, उनके खोज और बचाव कार्यों का समर्थन करता है।
  • (डी) सैटेलाइट नेविगेशन:  आईआरएनएसएस (एनएवीआईसी) की तैनाती के साथ, भारत स्थलीय और समुद्री नेविगेशन, आपदा प्रबंधन, वाहन ट्रैकिंग, पैदल यात्रियों और यात्रियों के लिए नेविगेशन सहायता और ड्राइवरों के लिए दृश्य और आवाज नेविगेशन जैसी सेवाओं का विस्तार करने की स्थिति में है। पड़ोसियों को आदि।
  • (ई) क्षमता निर्माण:  इसरो अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग में अपनी सुविधाओं और विशेषज्ञता को साझा करके अन्य देशों की क्षमता निर्माण में भी लगा हुआ है क्योंकि इसरो भारतीय रिमोट सेंसिंग संस्थान के माध्यम से अल्पकालिक और दीर्घकालिक पाठ्यक्रम संचालित करता है। एमआरएस) और देहरादून में संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध एशिया और प्रशांत में अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी शिक्षा केंद्र (सीएसएसटीई-एपी)।

आज, इसरो ने जेएक्सए (जापान) और यूएईएसए (यूएई) जैसी अन्य अंतरिक्ष एजेंसियों के साथ हाथ मिलाया है। इन कदमों से अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में एक अग्रणी शक्ति के रूप में भारत की छवि में सुधार हुआ है। खोज और बचाव तथा आपदा प्रबंधन पर सहयोग ने भारत के लिए काफी सद्भावना पैदा की है जिससे बदले में भारत की सॉफ्ट पावर को बढ़ावा मिलेगा।

अंतरिक्ष कूटनीति

आर्थिक कूटनीति (Economic Diplomacy)

आर्थिक कूटनीति से तात्पर्य  राष्ट्रीय हित को आगे बढ़ाने के लिए निर्यात, आयात, निवेश, उधार, सहायता, मुक्त व्यापार समझौते आदि जैसे सभी आर्थिक उपकरणों के उपयोग से है  । यह मूल रूप से किसी विशेष विदेश नीति लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आर्थिक संसाधनों को पुरस्कार या प्रतिबंध के रूप में नियोजित करता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण से पहले, आर्थिक कूटनीति का ध्यान विदेशी मुद्रा अंतर को पाटने के लिए विदेशी मुद्रा का पर्याप्त प्रवाह सुनिश्चित करना था। उस अवधि के दौरान, विदेशी और आर्थिक नीतियों को अधिक विभाजित किया गया था क्योंकि वे बड़े पैमाने पर विभिन्न क्षेत्रों में संचालित होती थीं। इस अंतर को भरने के लिए सस्ते तेल आयात के लिए बातचीत करना एक और उद्देश्य था। उसी समय, एनएएम के तहत भारत और संयुक्त राष्ट्र में 77 के समूह ने विश्व अर्थव्यवस्था को विकासशील दुनिया के लिए अधिक उपयुक्त बनाने के लिए आवाज उठाई।

1991 में शुरू किए गए सुधारों और भारतीय अर्थव्यवस्था में हाल के प्रयासों ने भारत के विदेशी संबंधों को प्रभावित किया है। प्रमुख देशों के साथ उदार व्यापार व्यवस्था पर बातचीत, अन्य देशों के हाइड्रोकार्बन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय निवेश, पड़ोस में परिवहन बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान, आर्थिक दाता के रूप में भारत की नई भूमिका और प्राकृतिक गैस पाइपलाइन जैसी मेगा परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित करना। हमारी सीमाओं के पार जाने से भारत की विदेश नीति के खाके में महत्वपूर्ण बदलाव आया है।

व्यापार के मुद्दे, क्षेत्र और उससे परे बाजारों तक पहुंच, ऊर्जा सुरक्षा और क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण की अनिवार्यताओं ने भारत के विदेशी संबंधों के लिए अभूतपूर्व संभावनाएं खोल दी हैं।

पूर्वी एशिया के साथ आर्थिक जुड़ाव भारत की एक्ट ईस्ट नीति का स्तंभ रहा है। आसियान के साथ एफटीए और बीबीआईएन, आईएमटी त्रिपक्षीय राजमार्ग जैसी कनेक्टिविटी परियोजनाओं का उद्देश्य क्षेत्र के साथ आर्थिक एकीकरण को मजबूत करना है। इसके पश्चिम में, भारत का पहले से ही अफगानिस्तान के साथ एक पीटीए है, और खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के देश एक व्यापारिक गुट बनाने पर विचार कर रहे हैं और भारत के साथ सामान्य व्यापार उदारीकरण पर काम करने में रुचि रखते हैं। इसी तरह, अफ्रीका के बढ़ते महत्व ने इस क्षेत्र में भारतीय निवेशकों को आकर्षित किया है। अफ्रीकी देश धात्विक खनिजों और ऊर्जा संसाधनों से समृद्ध हैं जो भारत की बढ़ती जरूरतों को पूरा कर सकते हैं।

भारत ने बहुपक्षीय आर्थिक संगठनों के साथ व्यावहारिक जुड़ाव की नीति अपनाई है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत की आर्थिक कूटनीति के संदर्भ में, इसे विकासशील दुनिया से असहमति की प्रमुख आवाज़ों में से एक के रूप में देखा जाता है। डब्ल्यूटीओ में सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और सब्सिडी पर भारत का रुख राष्ट्रीय हित को दर्शाता है। वहीं, भारत ने दोहा दौर की वार्ता के समाधान से पहले किसी भी मुद्दे को शामिल करने का विरोध किया है।

आर्थिक कूटनीति भारत को गरीबी कम करने और विकास की उम्मीद में घरेलू घटकों के लाभ के लिए वैश्विक अवसरों का उपयोग करने का एक तरीका प्रदान करती है। और इसका आर्थिक प्रदर्शन एक सार्थक शक्ति के रूप में दावा करने के इच्छुक राष्ट्र के लिए एक बहुत ही सफल अंतर्राष्ट्रीय कॉलिंग कार्ड है।

रक्षा कूटनीति (Defence Diplomacy)

रक्षा कूटनीति स्पष्ट रूप से राजनयिक उद्देश्य वाली कोई भी सैन्य गतिविधि है; दूसरे शब्दों में, ऐसी गतिविधियाँ जिनका प्राथमिक उद्देश्य अन्य देशों में भारत के प्रति सद्भावना को बढ़ावा देना है। रक्षा कूटनीति में गतिविधियों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है, जिनमें शामिल हैं:

  • रक्षा मंत्रालय (एमओडी) प्रशिक्षण पाठ्यक्रम और शिक्षा कार्यक्रम, जिसमें विदेशी छात्रों के लिए सैन्य प्रशिक्षण प्रतिष्ठानों में पाठ्यक्रमों में भाग लेने के अवसर शामिल हैं;
  • सेवा कर्मियों, अल्पकालिक प्रशिक्षण टीमों और नागरिक और सैन्य सलाहकारों को विस्तारित अवधि के लिए विदेशी सरकारों को ऋण देने का प्रावधान;
  • जहाजों, विमानों और अन्य सैन्य इकाइयों का दौरा;
  • मंत्रियों और सभी स्तरों पर सैन्य और नागरिक कर्मियों द्वारा आवक और जावक दौरे;
  • आपसी समझ को बेहतर बनाने के लिए कर्मचारी वार्ता, सम्मेलन और सेमिनार;
  • व्यायाम आदि।

भारत ने आज़ादी के बाद से ही अपने बाहरी संबंधों में सैन्य कूटनीति का लाभ उठाया है, ब्रिटिश राज से एक बड़ी, पेशेवर सैन्य शक्ति विरासत में मिलने के कारण, इसके आकार के कारण, और उपनिवेशवाद के बाद की दुनिया के नेता के रूप में खुद को पेश करने के कारण। भारत “एक प्रमुख राज्य” है जिसकी भूमिका “एशिया में दीर्घकालिक शांति, शक्ति के स्थिर संतुलन, आर्थिक विकास और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।” भारत की विदेश नीति और रक्षा कूटनीति के मूल सिद्धांत रहे हैं – कोई क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा नहीं और लोकतंत्र सहित विचारधाराओं का कोई निर्यात नहीं।

रक्षा कूटनीति में प्रारंभिक प्रयास इसकी औपनिवेशिक विरासत, गुटनिरपेक्ष आंदोलन (एनएएम), साम्राज्यवाद-विरोधी और उपनिवेश-विरोधी आंदोलनों (नाइजीरिया, ईरान, इराक, नामीबिया, दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी प्रयास, आदि) के लिए समर्थन का एक संयोजन थे। पर्वतीय युद्ध, उग्रवाद/आतंकवादी अभियानों में भारत के विशाल अनुभव और इसकी निस्संदेह सैन्य प्रशिक्षण मशीनरी का उपयोग प्रशिक्षण और संयुक्त अभ्यास के माध्यम से जीवंत द्विपक्षीय संबंधों को विकसित करने के लिए किया गया है।

क्षेत्र में समुद्री डकैती और अन्य विध्वंसक गतिविधियों पर अंकुश लगाने की भारत की क्षमता ने निश्चित रूप से भारत को एक शांतिपूर्ण परिधि बनाए रखने और अपनी शक्ति को विवेकपूर्ण और सूक्ष्म तरीके से प्रदर्शित करने की अनुमति दी है जो क्षेत्र में छोटे तटीय देशों की समुद्री जरूरतों और आकांक्षाओं के साथ प्रतिध्वनित होती है।

रूस, इज़राइल, फ्रांस अमेरिका और अन्य के साथ रक्षा साझेदारी इन देशों के साथ अपने रक्षा सहयोग में भारत द्वारा बनाए रखी गई रणनीतिक स्वायत्तता को प्रदर्शित करती है। 21वीं सदी नई अंतर्राष्ट्रीय गतिशीलता का निर्माण कर रही है और कोई भी राष्ट्र जो अपने सुरक्षा वातावरण को अनुकूलित करने के लिए अपने सभी उपकरणों और संसाधनों को तैनात नहीं करता है, उसे अस्तित्व में रहने और इष्टतम रूप से कम विकसित होने के लिए मजबूर किया जाएगा। जो राष्ट्र विकसित होते हैं और सैन्य कूटनीति के लिए एक अच्छा दृष्टिकोण अपनाते हैं, वे पूरी तरह से सुरक्षित नहीं तो एक सौम्य, सुरक्षा वातावरण का आनंद लेने की उम्मीद कर सकते हैं।

रक्षा कूटनीति

भारत की समसामयिक सुरक्षा चुनौतियाँ (India’s Contemporary Security Challenges)

शीत युद्ध की समाप्ति के लिए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के बुनियादी पुनर्गठन की आवश्यकता हुई और बेहतर सुरक्षा वातावरण विकसित करने के लिए एक उद्देश्यपूर्ण अवसर प्रदान किया गया। शीत युद्ध के बाद, अंतर्राष्ट्रीय वातावरण से कई तरह के दबाव उत्पन्न हो रहे हैं जो बदली हुई विश्व व्यवस्था में भारत के लिए चुनौतियों और अवसरों का एक जटिल और बहुस्तरीय सेट बनाते हैं। भारत को, यदि पूर्वानुमान नहीं है, नई चुनौतियों का जवाब देना होगा और अपने रणनीतिक राजनीतिक विकल्पों को अधिकतम करना होगा, अनिवार्य रूप से अपनी स्वयं की शक्ति क्षमता और सौदेबाजी के लाभ से।

भारत का क्षेत्र पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे देशों से उत्पन्न होने वाले सुरक्षा खतरों से भरा हुआ है। मनोरंजक भू-रणनीतिक अटकलों के क्षेत्र से परे, भारत को हाल के दिनों में अमेरिका के साथ सहयोग से लाभ हुआ है, जबकि यह चीन और पाकिस्तान से उत्पन्न होने वाले संभावित सुरक्षा खतरों से जूझ रहा है। भारत की क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा चिंताएँ इसकी सैन्य आधुनिकीकरण, समुद्री सुरक्षा और परमाणु नीतियों में परिलक्षित होती हैं। बहरहाल, घरेलू सुरक्षा संबंधी चिंताएँ क्षेत्रीय सुरक्षा के बारे में भारतीय धारणाओं को प्रभावित करती रहती हैं। कुछ सुरक्षा चुनौतियों में शामिल हैं:

  • सीमा पार आतंकवाद:  अधिकांश बाहरी खतरे चीन के साथ अनसुलझे सीमा विवाद और जम्मू-कश्मीर में चल रहे सीमा पार जिहादी आतंकवाद से उत्पन्न होते हैं, जो आईएसआई और पाकिस्तान स्थित इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों जैसे लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद द्वारा समर्थित प्रायोजित आतंकवाद है। , जो बदले में तालिबान और अल कायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय जिहादी समूहों के साथ अटूट रूप से जुड़े हुए हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद:  भारत को 1970 के दशक के उत्तरार्ध से सबसे भयानक और बार-बार होने वाली आतंकी घटनाओं का सामना करना पड़ा है, पहले पंजाब में, फिर जम्मू और कश्मीर में, और हाल के वर्षों में हमारे देश के कई अन्य हिस्सों में। 1993 के बंबई विस्फोट सामूहिक आतंकवाद का मूल कृत्य थे। भारत के पूजा स्थल, इसके तीव्र आर्थिक विकास के प्रतीक, इसके प्रतिष्ठित शिक्षा केंद्र, लोकप्रिय शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और इसके जीवंत लोकतंत्र के प्रतीक सभी को व्यवस्थित रूप से लक्षित किया गया है। जबकि दुनिया के अधिकांश हिस्सों में, आतंकवाद गैर-राज्य तत्वों द्वारा किया जाता है, भारत में इसे शत्रुतापूर्ण पड़ोस की राज्य एजेंसियों द्वारा प्रायोजित और समर्थित किया जाता है।
  • आईएसआईएस: इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस), जिसे कभी-कभी अल-तौहीद या इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड द लेवंत (आईएसआईएल) भी कहा जाता है, एक सुन्नी आतंकवादी जिहादी संगठन है जो मुख्य रूप से इराक और सीरिया में सक्रिय है। हाल ही में भारत के विभिन्न हिस्सों से लोगों की गिरफ्तारी से समूह की धमकियां स्पष्ट हैं। हालाँकि, भारतीय इस्लाम की समन्वित प्रकृति को देखते हुए, किसी समूह के लिए मुसलमानों के बीच लोकप्रिय होना बेहद मुश्किल है। लेकिन आईएस के विश्व दृष्टिकोण और रणनीति से प्रेरित अकेले-भेड़िया हमले, सुरक्षा जोखिम पैदा कर सकते हैं। समूह को अपने क्षेत्र में पैर जमाने से रोकने के लिए, भारत को उच्च स्तरीय खुफिया और आतंकवाद विरोधी अभियान जारी रखने की जरूरत है। कट्टरपंथ का मुकाबला करने और विशिष्ट कट्टरपंथ उन्मूलन कार्यक्रमों को लागू करने में राज्य और मुस्लिम धार्मिक नेताओं के बीच बेहतर समन्वय भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
  • समुद्री सुरक्षा:  आम तौर पर इंडो-पैसिफिक और विशेष रूप से आईओआर को लगभग हर प्रमुख शक्ति का केंद्र बिंदु बनाने के लिए रणनीतिक और आर्थिक धुरी बदल रही है। हिंद महासागर भारत के तत्काल और विस्तारित समुद्री पड़ोस में देशों के साथ एक रणनीतिक पुल के रूप में कार्य करता है। भारत के राष्ट्रीय और आर्थिक हित हिंद महासागर से अविभाज्य रूप से जुड़े हुए हैं। भारत को समुद्री क्षेत्र की जिन चुनौतियों से जूझना होगा उनमें गैर-राज्य तत्व शामिल हैं, जैसे कि 2008 के मुंबई हमलों को अंजाम देने वाले; समुद्री डकैती, तटीय देशों में चीन की उपस्थिति, नौवहन की स्वतंत्रता और अन्य।
  • साइबर सुरक्षा:  साइबरस्पेस का उद्देश्य मुख्य रूप से एक नागरिक स्थान था। हालाँकि, यह युद्ध का एक नया क्षेत्र बन गया है। डिजिटल पैठ बढ़ने और कैशलेस लेनदेन पर जोर देने के कारण भविष्य में भारत में साइबर हमलों की आशंका बढ़ जाएगी। महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे (बैंक, अस्पताल, परमाणु संयंत्र आदि) पर साइबर हमले (मैलवेयर, रैंसमवेयर आदि) देश की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सुरक्षा वास्तुकला को भारी नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखते हैं।
  • नशीली दवाओं की तस्करी:  हेरोइन और हशीश के सबसे बड़े उत्पादकों-गोल्डन ट्राइएंगल और गोल्डन क्रिसेंट (अफगानिस्तान-पाकिस्तान-लान) से निकटता ने भारत की सीमा को नशीली दवाओं की तस्करी के प्रति संवेदनशील बना दिया है। भारत नशीली दवाओं की तस्करी के गंभीर खतरे का सामना कर रहा है और इसके प्रभाव के रूप में, विशेष रूप से युवाओं में नशीली दवाओं का दुरुपयोग सरकार के लिए चिंता का विषय बन गया है।
  • परमाणु खतरा:  भारत ने परमाणु हथियारों का पहले उपयोग न करने की अपनी प्रतिबद्धता के साथ, पाकिस्तान द्वारा व्यवहार में वांछित परिवर्तन को प्रेरित करने के लिए बल या जबरदस्ती के अन्य रूपों के विकल्प या पूरक के रूप में परमाणु हथियारों का उपयोग नहीं किया है। फिर भी, पाकिस्तान द्वारा परमाणु क्षमताओं में तेजी से सुधार और चीन द्वारा क्रमिक परमाणु आधुनिकीकरण ने भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा वातावरण को इस तरह से बदल दिया है कि इससे निरोध की चुनौतियाँ बढ़ गई हैं।

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foreign policy of india essay in hindi

Here is an essay on the foreign policy of India. Also learn about India’s relationship with its neighboring countries.

विदेश नीति वैदेशिक संबंधों का सारभूत तत्व है । आज विश्व के सभी राष्ट्र एक दूसरे से भौगोलिक दूरी पर स्थित होते हुए भी संचार के आधुनिक साधनों से निकट आ गए हैं । विश्व के किसी भी भाग में घटने वाली घटना दूसरे राष्ट्रों पर आवश्यक रूप से प्रभाव डालती है ।

विश्व के सभी राष्ट्र एक-दूसरे पर आश्रित हैं । यही कारण है कि वर्तमान में विश्व राजनीति में अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के विकास तथा निर्माण को महत्व दिया गया है । अपने विदेश संबंधों को अपनी इच्छानुसार संचालित करने के लिए एक श्रेष्ठ विदेश नीति की आवश्यकता होती है ।

ADVERTISEMENTS:

विदेश नीति उन सिद्धांतों का समूह है जो एक राष्ट्र, दूसरे राष्ट्र के साथ अपने संबंधों के अन्तर्गत अपने राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने के लिए अपनाता है । दूसरे राज्यों से अपने संबंधों के स्वरूप स्थिर करने के निर्णयों का क्रियान्वयन ही विदेश नीति है । इसी प्रकार विदेश नीति एक स्थायी नीति होती है जो राष्ट्रीय जीवन मूल्यों से निर्मित होती है ।

भारत की विदेश नीति:

भारत की विदेश नीति का विश्व पर गहरा प्रभाव पड़ा है । भारत का सांस्कृतिक अतीत अत्यन्त गौरवपूर्ण रहा है । न केवल पड़ोसी देशों के साथ अपितु दूर-दूर स्थित देशों के साथ भी भारत मैत्रीपूर्ण संबंधों के लिए प्रयत्नशील रहा है ।

भारत की विदेश नीति की जडें विगत कई शताब्दियों में विकसित सभ्यताओं के मूल में छिपी हुई हैं और इसमें प्राचीन तथा मध्ययुगीन चिन्तन शैलियों ब्रिटिश नीतियों की विरासत स्वाधीनता आंदोलन तथा वैदेशिक मामलों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहुंच गाँधीवादी दर्शन के प्रभाव आदि का प्रभावशाली योग रहा है ।

भारत की विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्य:

i. भारत को विश्व की प्रभावशाली शक्ति बनाना ।

ii. भारत के औद्योगिक विकास के लिए दूसरे देशों से आर्थिक सहायता प्राप्त करना ।

iii. उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद का विरोध करना ।

iv. एशिया और अफ्रीका के देशों के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन करना ।

v. राष्ट्रमंडल के देशों से घनिष्ठ संबंध बनाए रखना ।

vi. राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करना ।

vii. वैदेशिक व्यापार के विकास हेतु आवश्यक दशाओं का निर्माण करना ।

viii. प्रवासी भारतीयों के हितों की रक्षा करना ।

ix. पारस्परिक आर्थिक तथा जनहित के रक्षार्थ एशियाई अफ्रीकी देशों को संगठित करना ।

x. संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन तथा सहयोग करना ।

भारत की विदेश नीति के निर्धारक तत्व:

1. भौगोलिक तत्व:

भारत की विदेश नीति के निर्धारण में भारत के आकार, एशिया में अपनी विशेष स्थिति तथा दूर-दूर तक फैली सामुद्रिक और पर्वतीय सीमाओं का विशेष स्थान है । भारतीय व्यापार तथा सुरक्षा इन्हीं पर निर्भर

2. गुटनिरपेक्षता:

विश्व दो गुट पूंजीवाद और साम्यवाद में बँटा हुआ था । दोनों में मनमुटाव के कारण शीत युद्ध चल रहा था । भारत ने इन दोनों गुटों से अलग रहकर अपने आपको गुटनिरपेक्ष देश रखा जो दोनों गुटों के मध्य मध्यस्थ का कार्य कर अन्तर्राष्ट्रीय तनाव को कम करने में सहायता करता है ।

3. ऐतिहासिक परम्पराएं:

भारत की विदेश नीति सदैव शांतिप्रिय रही है । भारत की अपनी प्राचीन संस्कृति और इतिहास है । आज तक भारत ने किसी दूसरे देश पर प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया । यही परंपरा वर्तमान विदेश नीति में देखी जा सकती है ।

4. राष्ट्रीय हित:

पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में कहा था कि किसी भी देश की विदेश नीति की आधारशिला उसके राष्ट्रीय हित की सुरक्षा होती है और भारत की विदेश नीति का ध्येय यही है ।

भारत की विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांत:

1. गुट निरपेक्षता:

विश्व में शांति व सुरक्षा बनाए रखने के लिए भारत ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाई जिसका अर्थ है शक्तिशाली गुटों से दूर रहना । गुट निरपेक्षता की नीति न तो पलायनवादी है और न अलगाववादी बल्कि मैत्रीपूर्ण सहयोग को संभव बनाने की है ।

2. साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध:

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन भारत दासता के दुष्परिणाम से परिचित रहा । अत: उसके लिए साम्राज्यवाद का विरोध करना स्वाभाविक था । भारत संयुक्त राष्ट्र संघ में उपनिवेशवाद के विरुद्ध भी आवाज उठाता रहा है । आज भी भारत नव-उपनिवेशवाद के विरुद्ध आवाज उठा रहा है । इण्डोनेशिया, लीबिया, नामीबिया आदि साम्राज्यवाद से त्रस्त देश हैं ।

3. नस्लवादी भेदभाव का विरोध:

भारत सभी नस्लों की समानता में विश्वास रखता है । अपनी स्वतंत्रता के पहले भारत दक्षिण अफ्रीका की प्रजाति पार्थक्य नीति के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ में बराबर प्रश्न उठाता रहा है । भारत ने जर्मनी की नाजीवादी नीति का भी विरोध किया । इस प्रकार अन्तरर्राष्ट्रीय समुदाय में नस्लवाद की पूर्ण समाप्ति भारतीय विदेश नीति का प्रमुख सिद्धांत है ।

पंचशील पहली बार तिब्बत के मुद्दे पर 29 मई 1954 को भारत और चीन के बीच हुई संघि में साकार हुआ । पंचशील संस्कृत के दो शब्द पंच और शील से बना है ।

पंच का अर्थ है पाँच और शील का अर्थ है आचरण के नियम अर्थात् आचरण के पाँच नियम जो निम्न हैं:

i. एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और संप्रभुता का आदर ।

ii. अनाक्रमण ।

iii. एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप ।

iv. समानता और पारस्परिक लाभ ।

v. शांतिपूर्ण सहअस्तित्व ।

5. विश्व शांति के लिए समर्थन:

भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ के मूल सदस्यों में से है । वह विश्व शांति के लिए कार्य करता है । आई॰एल॰ओ॰, यूनीसेफ, एफ॰ए॰ओ॰, यूनेस्को (ILO, UNICEF, FAO, UNESCO) आदि से वह सक्रिय रूप से जुड़ा है । भारत सदैव लोगों के सामाजिक और आर्थिक कल्याण के लिए संयुक्त राष्ट्र के निर्देशों का पालन करता रहा है ।

6. निःशस्त्रीकरण का समर्थन:

भारत आज भी शस्त्रों की होड़ रोकने का समर्थक है । इसके लिए आवश्यक है कि जो शस्त्र बनाए जा रहे हैं उन्हें न बनाया जाए और जो बने हैं उन्हें नष्ट कर दिया जाए । केवल नि शस्त्रीकरण ही अंतर्राष्ट्रीय शांति को सुदृढ़ बना सकता है । नि:शस्त्रीकरण से बचाए धन और साधनों के उपयोग से सभी राष्ट्रों का विकास हो सकता है ।

7. परमाणु नीति:

भारत परमाणु नीति का युद्ध के लिए प्रयोग करने के विरुद्ध है । भारत अन्तरिक्ष के परमाणुकरण का समर्थन नहीं करता । तथापि वह परमाणु अप्रसार संधि का विरोधी है क्योंकि वह पक्षपात पर आधारित है ।

6. सार्क से सहयोग:

दक्षिण एशियाई राज्यों के साथ भाईचारे के संबंधों का विकास करने के लिए भारत ने सार्क की स्थापना में सहयोग दिया है । सार्क में भारत, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, भूटान और मालदीव आदि राज्य सम्मिलित हैं । इस प्रकार उक्त सिद्धांतों ने भारत को उसके उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता भी की है तथा भारतीय विदेश नीति को गति भी प्रदान की है ।

पड़ोसी देशों से भारत के संबंध:

भारत एक विशाल देश है, जिसकी सीमाएं चीन, नेपाल, भूटान, बर्मा (म्यांमार), श्रीलंका और पाकिस्तान से मिलती है । भारत के संबंध अपने पड़ोसी देशों के साथ हमेशा एक से नहीं रहे हैं । यदा कदा समस्याएं भी आती रही हैं ।

भारत ने इन समस्याओं को सदैव शांतिपूर्ण ढंग से परस्पर वार्ता से सुलझाने का प्रयास किया है इन्हें सुलझाने में वह किसी तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप नहीं चाहता है । देश के आर्थिक विकास और शांति तथा स्थिरता के लिए पड़ोसी देशों के साथ मित्रता और सहयोग आवश्यक है ।

भारत और चीन:

भारत और चीन की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से है । दोनों देशों के सम्बन्ध हजारों वर्षों पुराने हैं । ईसा से पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक के समय से चीन में बौद्ध धर्म का विकास

हुआ । अशोक काल के बाद भारत के अनेक विद्वान चीन गए ।

चीनी यात्री भी भारत आते रहे जिनमें फाह्यान और ह्वेनसाँग प्रमुख थे । चीनी विद्यार्थी नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ने आया करते थे । वर्तमान काल में 1949 में चीन में साम्यवादी क्रांति के परिणामस्वरूप साम्यवादी सरकार स्थापित हुई । भारत ने चीन में साम्यवादी क्रांति का स्वागत किया और चीन की नई सरकार से अच्छे सम्बन्ध स्थापित करने की पहल की जो काफी कुछ सफल भी हुई ।

साम्यवादी चीन को सबसे पहले मान्यता देने वालों में भारत प्रमुख था भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन को सदस्य बनाने में काफी महत्वपूर्ण पहल की । भारत और चीन ने 1954 में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जो पंचशील समझौते के नाम से पूरे संसार में जाना जाता है ।

पारस्परिक सम्बन्धों को निर्धारित करने वाले इन पाँच सिद्धांतों को दोनों देशों ने स्वीकार किया तथा माना गया कि विश्व के अन्य देशों में भी पारस्परिक संबंधों में इनका पालन करना चाहिए । पर कुछ समय बाद चीन ने भारत-चीन सीमा के बहुत बडे भाग पर अपना दावा प्रस्तुत किया तथा 1962 में भारत पर चीन ने आक्रमण किया । भारत ने चीन के इस आक्रमण का विरोध किया और अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए युद्ध किया । युद्ध के बाद भारत-चीन संबंध तनावपूर्ण हो गए और बहुत समय तक सामान्य नहीं रहे ।

युद्ध के लगभग दो दशकों बाद भारत-चीन संबंधों में सुधार के प्रयत्न दोनों ओर से किए गए । दोनों देशों के बीच जो राजनयिक सम्बन्ध टूट गए थे 1976 में उन्हें पुन: स्थापित किया गया । दोनों देशों के बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए वार्ताएं प्रारंभ की गईं । वर्तमान में दोनों देशों के बीच अनेक आर्थिक व्यापारिक और राजनीतिक समझौते हुए हैं पर सीमा विवाद अभी भी भारत-चीन संबंधों में अनसुलझा है, उसे सुलझाने के शांतिपूर्ण प्रयत्न किए जा रहे हैं ।

भारत और नेपाल:

नेपाल, भारत के उत्तर में स्थित है । अभी तक यह एकमात्र हिन्दू राष्ट्र था पर अक्टूबर 2006 में नेपाल में राजा के विरोध में हुए सत्ता संघर्ष के बाद यह हिन्दू राष्ट्र नहीं रहा । भारत और नेपाल की सीमाएं उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड तथा हिमालय के दक्षिणी ढाल पर मिलती हैं ।

नेपाल के साथ भारत के संबंध परम्परागत हैं । यह प्रसिद्ध है कि नेपाल माता सीता तथा गौतमबुद्ध की जन्मस्थली है । पशुपतिनाथ का शिव मंदिर नेपाल में स्थित है, जो भारतीयों का प्रमुख धार्मिक स्थल है । भारत और नेपाल के राजनीतिक और आर्थिक संबंध भी मजबूत हैं ।

भारत ने विकास योजनाओं के लिए नेपाल को 8 करोड़ का अनुदान दिया । नेपाल के बीच 1974 में औद्योगिक व तकनीकी सहयोग बनाने के लिए समझौता किया इस प्रकार भारत ने नेपाल के सामाजिक और आर्थिक विकास में काफी सहयोग दिया है ।

भारत ने नेपाल में 204 किलोमीटर लम्बे पूर्व-पश्चिम राजमार्ग, जो महेन्द्र मार्ग कहलाता है के निर्माण में 50 करोड़ रुपया नेपाल को दिया । वीर अस्पताल का बाह्य रोगी विभाग भी भारत के सहयोग से बना । 1950 में भारत ने नेपाल के साथ व्यापारिक सन्धि की है । भारत ने नेपाल को समुद्र मार्ग की सुविधा दी है ।

भारतीय सुरक्षा की दृष्टि से नेपाल की विशेष स्थिति है । नेपाल, चीन और भारत के बीच स्थित है । 1950 में भारत-नेपाल के बीच हुई संधि के अनुसार भारत नेपाल को अपनी सुरक्षा के लिए शस्त्र आयातित करने की सुविधा देगा । दोनों देशों के नागरिक स्वतंत्र रूप से एक-दूसरे के देश में आ जा सकते हैं । नेपाल में सामन्तशाही व्यवस्था समाप्त करने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका थी ।

नेपाल से बहुत से विद्यार्थी भारत में अध्ययन करने के लिए आते रहे हैं । नेपाल में अक्टूबर 2006 में सत्ता परिवर्तन हुआ । इस सत्ता परिवर्तन के परिणामस्वरूप राजा का पद समाप्त कर दिया गया और वहाँ पूर्ण प्रजातांत्रिक सरकार स्थापित हुई । वर्तमान में नेपाल में नए संविधान निर्माण की प्रक्रिया चालू है । सत्ता परिवर्तन के बाद भी भारत-नेपाल संबंधों में कोई बदलाव नहीं आया है ।

भारत और भूटान:

भूटान भारत के उत्तर पूर्व में स्थित छोटा-सा देश है । भूटान के उत्तर में तिब्बत पश्चिम पूर्व में तथा दक्षिण में भारत है । इस देश का क्षेत्रफल लगभग 53 हजार वर्ग किलोमीटर है । यहाँ की आबादी अधिकांशत: बौद्ध धर्म का पालन करने वाली है ।

भारत, भूटान के संबंध वैसे ही परम्परागत हैं, जैसे कि भारत-नेपाल के हैं । पहले भूटान का एक बड़ा भाग भारत की सीमाओं में ही था और सातवीं शताब्दी तक भारतीय शासक उस क्षेत्र में शासनाध्यक्ष थे । भूटान की धार्मिक पृष्ठभूमि में बौद्ध भिक्षु पद्मसम्भव का विशेष स्थान है ।

पद्मसम्भव ने ही भूटान की जनता को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया । भूटान के लोग इन्हें आज भी अपना गुरु मानते हैं । भारत-भूटान व्यापारिक और आर्थिक संबंध काफी पुराने हैं । भूटान से रेशमी कपड़ा और सुपारी खरीदी जाती थी । 1910 में ‘सिनचुला संधि’ हुई इसी संधि के आधार पर भारत-भूटान बने ।

1949 में ‘भारत-भूटान संधि’ पुन: हुई जिसमें यह स्वीकार किया गया कि भूटान की प्रतिरक्षा का दायित्व भारत का है । भूटान के आर्थिक विकास में भारत पूरी तरह सहयोग कर रहा है । सितम्बर 1961 में जल टंका नदी के संबंध में भारत- भूटान समझौता हुआ ।

आज इस नदी पर विद्युत उत्पादन हो रहा है । भूटान की राजधानी थिम्पू भारत के सहयोग से आधुनिक नगर बनी । भारत ने वहाँ की सड़कों का आधुनिकीकरण किया । भूटान में भारत ने पेनडेना सीमेंट संयंत्र के लिए 13 करोड़ की आर्थिक सहायता दी ।

भारत और पाकिस्तान:

पाकिस्तान का निर्माण भारत विभाजन के परिणामस्वरूप 14-15 अगस्त 1947 की रात्रि में हुआ । दोनों देश ऐतिहासिक भौगोलिक सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से सभी बातों में समान हैं परन्तु विभाजन के परिणामस्वरूप दोनों देशों के बीच प्रारंभिक समय में तो सम्पत्ति, सीमा, नदी जल वितरण आदि समस्याओं को लेकर विवाद चलते रहे किन्तु शीघ्र ही दोनों देशों के बीच राजनीतिक विवाद प्रारंभ हो गए ।

कश्मीर को लेकर दोनों देशों के मध्य विवाद पाकिस्तान की स्थापना के कुछ ही दिनों के बाद प्रारंभ हो गया । इस विवाद के चलते पाकिस्तान ने चार बार भारत पर सैनिक आक्रमण भी किया । पहली बार अक्टूबर 1947 में सीमावर्ती कबाइलियों को भड़काकर तथा उन्हें सैनिक सहायता उपलब्ध कराकर कश्मीर पर आक्रमण करवाया ।

दूसरी बार सितम्बर 1965 में कश्मीर पर पाकिस्तान ने व्यापक आक्रमण किया । तीसरी बार 1971 में बांग्लादेश युद्ध के समय में कश्मीर पर आक्रमण किया । चौथी बार 1999 में पुन: पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया जो ‘कारगिल युद्ध’ के नाम से मशहूर है ।

चारों आक्रमणों का उद्देश्य सैन्य शक्ति द्वारा कश्मीर पर अपना अधिकार स्थापित करना था पर चारों बार भारतीय सेना ने पाकिस्तान द्वारा किए गए आक्रमणों को असफल कर दिया । पाकिस्तान के प्रति भारत की नीति प्रारंभ से ही शांतिपूर्ण वार्ताओं और समझौतों द्वारा पारस्परिक समस्याओं के सुलझाने की रही है । इस दृष्टि से भारत ने राजनीतिक आर्थिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के क्षेत्रों का विस्तार करके कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं ।

दोनों देशों ने समझौतों द्वारा इस दिशा में पहल भी की है । सांस्कृतिक शिष्टमण्डलों का आदान-प्रदान, खेल-कूद के क्षेत्र में दोनों देशों में प्रतियोगिताओं का आयोजन और दोनों देशों के पत्रकारों और लेखकों का एक-दूसरे के देश में आना-जाना प्रारंभ हुआ है । दोनों देशों की जनता एक ही रही है । अनेक परिवार दोनों देशों में बसे हैं ।

विवाह संबंध भी दोनों देशों में है जनता के स्तर पर आवागमन की दृष्टि से दोनों देशों ने समझौते किए हैं तथा कई सड़क और रेल यातायात जो वर्षों से बंद पडे थे अब खोल दिए गए हैं । दोनों देशों में आर्थिक और व्यापारिक समझौते भी हुए हैं । दोनों देश सार्क और साफा के सदस्य हैं ।

भारत और पाकिस्तान के रिश्ते दोस्ती और तनाव के रहे हैं । पाकिस्तान के कई कार्यों को भारत पसन्द नहीं करता । पाकिस्तान आतंकवादियों को प्रशिक्षण, सहायता और शस्त्र उपलब्ध कराता रहा है । भारत के कई आतंकवादी पाकिस्तान में शरण लिए हुए हैं, जिनकी सूची भी भारत ने पाकिस्तान को उपलब्ध कराई है; तथापि पाकिस्तान इन्हें भारत को सौंप नहीं रहा है ।

पाकिस्तान अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर सदैव भारत की आलोचना करता रहा है तथा कश्मीर का मुद्दा उठाता रहा है । भारत भी पाकिस्तान के द्वारा इन प्रयत्नों का विरोध करता रहा है । दोनों देश आणविक शक्ति हैं । दोनों देशों का सम्मिलित रूप से विश्व शांति के लिए कार्य करना आवश्यक है । भारत ने इस दिशा में पहल की है ।

भारत और बांग्लादेश:

1947 के भारत विभाजन के परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान के रूप में (बांग्लादेश) पाकिस्तान का भाग था । शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में बांग्लादेश के लोगों ने पूर्वी पाकिस्तान की मुक्ति के लिए आन्दोलन किया और अन्तत: 1971 में इस आन्दोलन को सफलता मिली और स्वतंत्र बांग्लादेश अस्तित्व में आया ।

भारत ने बांग्लादेश की स्थापना में ऐतिहासिक सहयोग दिया । भारत बांग्लादेश को मान्यता देने वाला पहला देश था । बांग्लादेश की स्थापना के बाद भारत ने बांग्लादेश को आर्थिक संकट भुखमरी बेरोजगारी आदि से निपटने के लिए पूरी सहायता दी ।

जनवरी 1972 में भारत ने 25 करोड़ के खाद्यान्न तथा अन्य वस्तुएं और 50 लाख पौण्ड की विदेशी मुद्रा ऋण के रूप में प्रदान की । मार्च 1972 में दोनों देशों के बीच 25 वर्षीय मैत्री संधि हुई जो ऐतिहासिक थी । दोनों देशों के बीच व्यापारिक आर्थिक समझौते भी हुए तथा संयुक्त नदी आयोग स्थापित किया गया ।

भारत बांग्लादेश के बीच कुछ मुद्दों पर मतभेद भी हैं । फरक्का बांध समस्या उनमें से एक है । इसके अलावा घुसपैठियों की समस्या भी प्रमुख है । घुसपैठ के कारण भारत के सम्मुख सुरक्षा की समस्या उत्पन्न हो गई है । चकमा आदिवासियों तथा दोनों देशों की सीमा पर कांटेदार बागड़ लगाने के मामले में भी मतभेद हैं । नया मुद्दा बांग्लादेश से भारत में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देना भी है । भारत-बांग्लादेश से अच्छे संबंध बनाने के लिए सदैव तत्पर रहा है ।

भारत और श्रीलंका:

भारत के दक्षिण में चारों ओर समुद्र से घिरा श्रीलंका भारत का महत्वपूर्ण पड़ोसी देश है । भारत से श्रीलंका के धनिष्ठ संबंधों का इतिहास बहुत पुराना है । भगवान राम और उनके बाद सम्राट अशोक के काल में भारत-श्रीलंका संबंध प्राचीन इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ी है । अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका की यात्रा की थी तभी से श्रीलंका प्रमुख बौद्ध धर्मावलंबी देश है ।

श्रीलंका भी भारत के समान विदेशी साम्राज्यवादियों का शिकार बना था । यहाँ पुर्तगाली डच और बाद में ब्रिटिश शासन रहा । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फरवरी 1948 को यह स्वतंत्र राज्य बना । भारत ने श्रीलंका की स्वतंत्रता, प्रभुता और प्रादेशिक अखण्डता का सम्मान करने की घोषणा की ।

स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी श्रीलंका ने त्रिंकोमाली का नौ सैनिक अड्डा तथा कटुनायके का हवाई अड्डा ब्रिटेन के नियंत्रण में रहने दिया । बहुत से भारतीय नागरिक विशेषत: तमिलनाडु के लोग श्रीलंका जाकर बस गए हैं तथा वहाँ चाय और रबड़ के बागानों में कार्य करते हैं ।

श्रीलंका के साथ भारत के अच्छे व्यापारिक संबंध हैं । राजनीति के क्षेत्र में भी भारत- श्रीलंका के साथ पारस्परिक सहयोग और सहायता की नीति का अनुसरण करता रहा है । यद्यपि भारत-श्रीलंका संबंध घनिष्ठ और सुदृढ़ हैं, तथापि दोनों देशों के बीच कुछ समस्याएं भी हैं ।

दोनों देशों के संबंधों को प्रभावित करने वाली सबसे बड़ी समस्या है श्रीलंका में बसे भारतीय मूल के रहने वालों की । ये भारतीय मूल के निवासी ब्रिटिश शासन काल से ही रबर और चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका जाते रहे हैं और वहाँ बसते रहे हैं ।

प्रारंभिक काल में तो कोई समस्या नहीं थी पर श्रीलंका के स्वाधीन होने के बाद श्रीलंका नागरिकता नियम 1948 तथा श्रीलंका संसदीय नियम 1949 के द्वारा अधिकांशत: प्रवासी भारतवंशियों को नागरिकता और मताधिकार से वंचित कर दिया गया ।

हाल के कुछ वर्षों में श्रीलंका में उत्पन्न जातीय संघर्ष भारत के लिए चिन्ता का कारण बन गया है । श्रीलंका में बसे तमिल अल्पसंख्यक समुदाय है । अधिकांश तमिल श्रीलंका के उत्तर में जाफना जिले में रहते हैं । श्रीलंका में तमिल लोगों का बहुत बड़ा वर्ग पृथक तमिल राज्य की माँग करता रहा है । यही तमिल समस्या है । तमिल समस्या के कारण भारत और श्रीलंका में तनाव की स्थिति बनी है ।

समस्या को सुलझाने के लिए भारत ने कई प्रकार से सहायता की है । जुलाई 1987 में दोनों देशों के बीच हुए समझौते के अन्तर्गत भारत ने श्रीलंका को आंतरिक जातीय समस्या को सुलझाने के लिए ‘भारतीय शांति सेना’ भेजकर सहायता दी थी ।

भारत और म्यांमार (बर्मा):

म्यांमार (बर्मा) भारत की पूर्वी सीमा पर स्थित पड़ोसी देश है । भारत के म्यांमार से परम्परागत मैत्रीपूर्ण संबंध रहे हैं । दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ाने के लिए समझौते किए गए हैं । दोनों देशों के बीच तस्करी की समस्या अवश्य है । अवैध रूप से सीमाओं को पार करने की घटनाएं होती रही हैं ।

1987 में जब भारत के प्रधानमंत्री म्यांमार गए थे उस समय भारत और म्यांमार के बीच नशीले पदार्थों की तस्करी तथा अवैध कार्यों को नियंत्रित करने में एक-दूसरे के साथ पूर्ण सहयोग करने का संकल्प किया था । वर्तमान में भारत म्यांमार संबंध सामान्यत: मैत्रीपूर्ण हैं ।

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Essay on the Foreign Policy in India | Hindi

foreign policy of india essay in hindi

Here is an essay on the foreign policy in India especially written for school and college students in Hindi language.

किसी भी व्यवस्था में उस देश की विदेश नीति का स्थान भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है जिसके बल पर अन्तराष्ट्रीय सम्बंध निर्भर करते हैं । जो विश्व स्तर पर किसी देश को आगे बढ़ने या पीछे हटाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं ।

जिस देश की विदेश नीति उत्तम श्रेणी की होती है वह देश ही विश्व में अग्रणी बने रहते हैं यह आवश्यक नहीं होता है कि जो देश आर्थिक या सामाजिक रूप से शक्तिशाली हो वह देश ही विश्व में अग्रणी है बल्कि आवश्यक यह भी होता है कि आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से शक्तिशाली होने के साथ-साथ उस देश की विदेश नीति भी शक्तिशाली हो ।

तभी वह देश विश्व स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ पाने में सफल होगा । विश्व में ऐसे देशों की कमी नहीं है जो आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से तो अत्यधिक शक्तिशाली है परन्तु विदेश नीति के रूप में अत्यधिक कमजोर सिद्ध होते हैं जबकि प्रत्येक देश की विदेश नीति स्पष्ट व स्वतन्त्र होनी चाहिए ।

किसी भी देश के लिए स्वतन्त्र विदेश नीति ही उस देश के सम्मान का परिचायक है । अन्यथा ऐसे देशों की कमी नहीं है जो कहने को तो स्वतंत्र और निष्पक्ष विदेश नीति के पक्षधर हैं लेकिन उनको विश्व के चंद देशों के इशारों पर नाचते देखा जा सकता है ।

ऐसे देशों की न तो अपनी कोई विदेश नीति होती है और न ही अपना कोई अस्तित्व, तभी तो दूसरे देशो के इशारों पर नाचते देखा जा सकता है । वर्तमान समय में अन्तराष्ट्रीय समुदाय भी कहीं न कहीं गुटों में बंटा हुआ है ।

विश्व युद्ध के समय सम्पूर्ण विश्व दो गुटों में विभाजित था । जिसमें मित्र राष्ट्रों का गुट और धुरी राष्ट्रों के गुट थे उसके बाद विश्व के तीन प्रमुख नेताओं नासिर, टीटों और नेहरू द्वारा गुट निरपेक्षता की नींव रखी ।

जिसमें तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पं॰ जवाहर लाल नेहरू द्वारा गुट निरपेक्षता को आगे बढाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । तभी तो भारत एक गुट निरपेक्ष देश के रूप में अपनी नीतियों को प्रसारित कर रहा है ।

जब विश्व गुटों में विभाजित हो और तब भारत गुट निरपेक्षता की पक्षधरता का प्रबल समर्थक हो तो इस भूमिका से भारतीय विदेश नीति को सम्पूर्ण विश्व समुदाय से एक अलग प्रकार का बल मिलता है । गुट निरपेक्षता भारतीय विदेश नीति को उसी प्रकार चमक प्रदान करती है जिस प्रकार कमल का फूल अपनी सुन्दरता प्रदर्शित करता है ।

ADVERTISEMENTS:

प्राचीन काल में भारत को आर्थिक, सामाजिक व बौद्धिक दृष्टि से विश्व गुरू के रूप में देखा जाता था । लेकिन समय चक्र के अनुसार भारत ने अपना वह दर्जा खो दिया । वक्त बदला नई नीतियां आयी, नई तकनीकी आई और नई जेनरेशन ने अपने अतीत को पहचाना अपने खोये हुए मान-सम्मान को पहचाना और आज फिर से भारत अपने पुराने रूतबे को पाने की ओर अग्रसर हो रहा है ।

जिसमें भारतीय नीतियो और भारतीय जनता की मेहनत व योगदान की सराहना को इंकार नहीं किया जा सकता है तभी तो भारतीय महत्व की उपेक्षा किया जाना वर्तमान समय में नामुंकिन है । लेकिन इतना सब होने के बाद भी भारतीय नीतिकारों को अपना अस्तित्व पहचान पाना मुश्किल हो रहा है वो कहीं न कहीं समझौते कर रहे हैं ।

अपने गौरव के साथ अपनी सवा सौ करोड़ जनता की भावनाओं के साथ अपने आत्म सम्मान के साथ जिसमें हमारी कमजोरी साफ दर्शित हो रही है । अन्यथा ऐसे देश जो जनसंख्या और क्षेत्रफल में भी हमारे राज्यों के बराबर भी नहीं हैं और उनके वक्तव्य हम सवा सौ करोड़ जनता के मान-सम्मान को ठेस पहुंचाने वाले होते हैं ।

यह किसी एक देश का सवाल नहीं है । सर्वाधिक गम्भीर सवाल ऐसे देशों के विषय में है जो हमारी तुलना में न तो आर्थिक रूप से मजबूत हैं और न ही सैन्य शक्ति के रूप में, लेकिन फिर भी हम ऐसे छुटभैये देशों के साथ उनकी कटुवाणी होने पर भी दोस्ताना सम्बंध रखने के लिए सदैव प्रयासरत रहते हैं ।

यह हमारी कमजोरी है या हमारा बड़प्पन इसके विषय में केवल भारतीय नीतिकार ही बेहतर जवाब दे सकते हैं । लेकिन यहां पर इतना कहना अवश्य प्रसांगिक है कि यदि अपनी विदेश नीति धारधार शक्तिशाली नहीं है बेशक आप कितने शक्तिशाली हैं लेकिन आपका प्रभाव ऐसे देशों पर बिल्कुल नहीं होने वाला ।

जो केवल बुलेट की भाषा को समझते हों उनको वेद, उपनिषद की भाषा को समझाना मुर्खतापूर्ण कार्य है यह आवश्यक नहीं है कि हम प्रत्येक मौके पर बुलेट का प्रयोग करें । लेकिन इतना आवश्यक अवश्य है कि बुलेट की भाषा का प्रयोग करें क्योंकि आमतौर पर भारतीय जनता में एक कहावत प्रचलित है कि “लातों के भूत बातों से नहीं माना करते” और इसकी प्रमाणिकता भी अनेकों अवसरों पर देखने को मिली है ।

जब भारत चीन का युद्ध हुआ था उस समय एक नारा था, हिन्दी चीनी भाई-भाई, लेकिन उस नारे की आड़ में चीनीयों द्वारा भारत पर अचानक आक्रमण कर एक बहुत बड़े भारतीय भू-भाग पर अपना आधिपत्य जमा लिया ।

आज तक वह भू-भाग ही वापिस नहीं आ सका और न ही भारतीय गौरव, भारत पाक युद्धों में भी कुछ ऐसा ही हुआ जिसमें हम मुकालते में रहे और दुश्मन देश द्वारा हमारे गौरव के साथ खिलवाड़ किया गया । विश्व मंच पर यह दर्शित हुआ है कि एक मामूली सा देश जो भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश से जनसंख्या में भी छोटा है साथ ही भारत का बिगड़ा हुआ और अलग किया हुआ पुत्र है जो समय-समय पर अपने पिता के साथ बदतमीजी करने से बाज नहीं आता ।

यह उस भारतीय पिता के धैर्य की परीक्षा लेने से भी बाज नहीं आता जो अपने बिगड़ैल पुत्र की गलती दर गलतियों को नजर अंदाज करता रहता है लेकिन पुत्र है कि फिर भी अपनी आदतों में सुधार करने के स्थान पर और अधिक गलती करता है आखिर पिता तो पिता ही होता है । जो पुत्र के कितने ही निकम्मे होने पर भी उसको माफ करता रहता है ।

लेकिन वर्तमान समय वह आ चुका है जब पुत्र की गलती को माफ करना उसको पुन: गलती करने के लिए प्रेरित करना है । इससे वह पुत्र अपने रास्ते से भटक सकता है और ऐसा ही हो रहा है यदि समय रहते पिता अपने पुत्र की गलती पर अंकुश लगा देता है तो निश्चित ही पुत्र अपने सही रास्ते पर होता है लेकिन यहां भारत जैसे महान पिता जो अपनी इसी महानता के लिए जाना जाता है ने अपने बिगडैल पुत्र को अनेकों बार उसकी गलती के लिए माफ किया ।

जिसका परिणाम यह रहा है कि वह बार-बार अपनी गलतियां दोहराने से नहीं चूका । इसे भारतीय विदेश नीतियों की कमी कहें या भारतीय नीतिकारों की कमी या फिर हमारी संस्कृति का प्रभाव जो सम्पूर्ण विश्व को अपना घर और सम्पूर्ण विश्व की जनता को भाई चारे की दृष्टि से देखता है ।

जिसका प्रमाण है स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा शिकांगों में विश्व धर्म सम्मेलन में सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख विश्व बिरादरी को भाई व बहन कहकर सम्बोधित करना, जिससे विश्व में भारत की संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ संस्कृतियों में माना जाता है और उसी का प्रभाव है कि हम आक्रमण की अपेक्षा अपनी रक्षा में विश्वास करते हैं ।

हम कभी भी आक्रमक नहीं हैं इतिहास इस बात का गवाह है कि हमने कभी भी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया लेकिन जहां जब किसी देश ने अपनी कुदृष्टि हमारी और डाली है तो हमने उसका मुंह तोड जवाब भी दिया है । हम सदैव आत्म रक्षा के लिए ही सैन्य शक्ति का प्रयोग करते हैं ।

ऐसा मौका कभी भी नहीं आया जब हमने किसी दुर्बल देश पर आक्रमण किया हो । हम सदैव अपने पडोसी देशों से मधुर सम्बंधों के पक्षधर रहे हैं । तभी तो हम विश्व की महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हैं हमारी विदेश नीति सदैव निर्गुट और ”सर्वे भवन्तु सुखिन:” की रही है तभी तो हम आज ऐसे स्तर पर पहुंचे हैं जहा हमारे दुश्मनों को पहुंचना मुश्किल ही नहीं नामुंकिन है ।

हमारी आर्थिक शक्ति को अब विश्व मंच पर उपेक्षित करना मुश्किल ही नहीं नामुंकिन है यही कारण है कि अब हमारे दुश्मन हमसे ईर्ष्या करने लगे हैं । हमारी विदेश नीति इस बात की इजाजत नहीं देती कि हम अपने से कमजोर या हल्के मुल्क पर आक्रमण करें ।

हम शान्ति प्रिय विदेश व्यवस्था के पक्षधर हैं तभी तो आज आजादी के तिरेसठ वर्ष बाद भी कश्मीर समस्या ज्यों की त्यों खड़ी है अन्यथा यह इतनी गम्भीर समस्या नहीं है जिसका समाधान न हो सके और छोटी-मोटी समयाओं के लिए हम अपनी शक्ति का प्रदर्शन करें ।

यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति के बिल्कुल विरूद्ध है अन्यथा तिरेसठ वर्ष तक इस बीमारी का इलाज नही हो सकता था जब हमारे पास बड़े-बड़े अनुभवी डाक्टर आधुनिक चिकित्सकीय मशीनरी और बेहतर से बेहतर औषधि उपलब्ध है हमारे पास ऐलोपैथिक पद्धति से लेकर आयुर्वेदिक पद्धति यूनानी पद्धति सभी चिकित्सा पद्धति उपलब्ध हैं तो क्या हम इस छोटी सी बीमारी का ईलाज नहीं कर सकते ? हम कर सकते हैं कभी भी कर सकते हैं ।

लेकिन भारतीय संस्कृति ऐसी छोटी सी बीमारी का ईलाज किसी उच्च तकनीकी द्वारा करने की पक्षधर नहीं रही है । यही कारण है कि हम अपनी मर्यादाओं की सीमा लांघना नहीं चाहते वरना हमारे लिए यह कोई समस्या नहीं है ।

समस्या है तो सिर्फ और सिर्फ भारतीय संस्कृति इसकी पक्षधर नहीं है कि हम किसी छोटी सी बीमारीका ईलाज करने के लिए इतने अत्यधिक संसाधनों का प्रयोग करें । मानवता के विरूद्ध कुछ ऐसा हो जाये जिसके लिए आने वाली पीढी माफ न कर सके, यहां चिन्तन का विषय उस मर्यादित पिता के बिगडैल पुत्र के लिए है जो शायद यह सोचता है कि तुम गलती दर गलती करते जाओगे और तुम्हारा पिता माफ करता जायेगा ।

जिस दिन पिता गलती करना शुरू कर देगा उस दिन निश्चित रूप से पुत्र को पैरों के बल घुटने टेकने को मजबूर होना पड़ेगा । हम गलतियों को माफ करने में ही अपनी महानता समझते हैं । लेकिन नीति कहती है कि सठे साठयम समाचरेत अर्थात दुष्ट के साथ दुष्टता का ही आचरण करना चाहिए नहीं तो वह अपनी दुष्टता और दूसरे की शान्ति प्रियता को अपनी ताकत और दूसरे की कमजोरी समझने की भूल कर बैठता है और भूलवश हमारा पड़ोसी पिछले तिरेसठ वर्ष से हमारे साथ दुष्टता का आचरण करता आ रहा है यह उसकी संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है ।

जो यह समझने की भूल कर रहा है कि तुझे पुत्र समझकर तीन बार माफ किया जा चुका है । महाभारत में श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को एक सौ गलती के लिए माफ करने का वचन अपनी बुआ को दिया था क्योकि शिशुपाल उनके रिश्ते का भाई था लेकिन एक सौ से ऊपर गलती करने पर शिशुपाल को श्रीकृष्ण के हाथों अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी थी ।

भारतीय विदेश नीति सदैव शान्ति प्रियता की पक्षधर रही है यही कारण है कि छोटे-छोटे देश जो अपनी जनता की भूख तक नहीं मिटा पा रहे है । वो हमारे विषय में कुछ भी कटु वाणी बोलने से नहीं चूकते । भारतीय विदेश नीति ऐसी नीति है जिसमें दूसरे देशों के हितों का अधिक ध्यान रखा जाता है ।

बैशक हमारा नुकसान हो जाये लेकिन दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए । हम दुश्मन पर विपत्ति पड़ने पर दुश्मन की भी मदद करने से नहीं चूकते, ताजा उदाहरण पाकिस्तान में बाढ़ पीड़ितों के लिए कई करोड़ रूपये की आर्थिक मदद उपलब्ध कराना इसका प्रमाण है ।

ऐसी विदेश नीति होने पर भी हम विश्व स्तर पर अपना प्रभाव दिखाने की ललक नहीं रखते क्योंकि हम केवल कार्य प्रधानता को ही महत्व देते हैं हम गीता के उपदेश कर्म ही महान हैं के पक्षधर हैं यही कारण है कि हम विश्व मंच पर अभी अपना प्रभाव छोड़ पाने में कामयाब नहीं हुये हैं ।

हम आर्थिक रूप से शक्तिशाली होने की ओर अवश्य अग्रसर हो रहे हैं । लेकिन हम विदेश नीति के स्तर पर अभी काफी पीछे हैं जब विश्व समुदाय भारतीय विदेश नीति की सराहना कर उसका पीछा करेगा । वह दिन सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिए गर्व का दिन होगा और इसके लिए आवश्यक होगा कि भारतीय नीतिकारों को अपनी विदेश नीति को धारदार बनाये और विश्व स्तर पर होने वाले सम्पूर्ण घटना क्रम पर अपनी दृष्टि बनाये रखने तथा त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त करना अपनीनीति का हिस्सा बनायें ताकि अन्तराष्ट्रीय समुदाय भारतीय विदेश नीति को समझने व अध्ययन करने के साथ-साथ भारतीय विदेश नीति का अर्थ घटित अन्तराष्ट्रीय घटनाक्रम के विषय में जान सकें ।

जब तक प्रत्येक अन्तराष्ट्रीय घटनाक्रम पर त्वरित और सुविचारित प्रतिक्रिया करना भारतीय विदेश नीति का हिस्सा नहीं बन पायेगा । तब तक भारतीय विदेश नीति की धार कुंद ही बनी रहेगी । अब वह समय आ गया है जब भारतीय विचारों को एकदम से खारिज किया जाना मुश्किल ही नहीं नामुंकिन जान पड़ता है तभी तो भारतीय नीतिकारों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण जिम्मेदारी बन पड़ी है कि बिना समय गंवायें अन्तराष्ट्रीय घटनाक्रमों पर त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त करें तो निश्चित ही भारतीय विदेश नीति की धार में तेजी आयेगी और भारतीय विदेश नीति की धार तेज होना भारत के अन्तराष्ट्रीय प्रभाव को भी इंगित करेगी ।

यही वह वक्त है जब भारत को अन्तराष्ट्रीय मंच पर आकर खुले विचारों से निष्पक्ष होकर अपनी नीतियों को अन्तराष्ट्रीय समुदाय को बताना होगा और जब हम अपनी विदेश नीति को अन्तराष्ट्रीय समुदाय को समझाने में सफल होते हैं तो निश्चित ही हम अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभाव छोड पाने में भी सफल होंगे ।

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भारत की विदेश नीति नोट्स । India’s Foreign Policy

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भारत की विदेश नीति नोट्स

भारत की विदेश नीति :-

Q. भारतीय संस्कृति का कौनसा मूल्य विदेश नीति को प्रभावित करते हैं ?  – ‘ वसुधैव कुटुम्बकम् ‘ ‘ जीओ और जीने दो ‘ ।

Q . भारतीय विदेशनीति को संविधान में किस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है ?  राज्य के नीति निदेशक तत्वों में अनुच्छेद 51 में भारत का दायित्व अंतरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि करना होगा ।

Q . अनुच्छेद 51 के अनुसार भारतीय राज्य प्रयास करेगा ? A . अंतरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का । B . राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण संबंधों को बनाए रखने का C , संगठित लोग व्यवहार में अंतरराष्ट्रीय विधि और संधि – बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने का D . अंतरराष्ट्रीय विवादों के माध्यस्थम् द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने का ।

भारतीय विदेश नीति (India Foreign Policy) की प्रमुख विशेषताएँ –  1 . शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति 2 . उपनिवेशवाद एवं साम्रान्यवाद का विरोध 3 . रंगभेद का विरोध 4 . अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों का समर्थन 5 . पंचशील के सिद्धान्त पर आधारित प्रारम्भ में चीन के साथ – चाऊ – एन – लाई तथा नेहरू 28 जून 1954 I . एक दूसरे देश की प्रादेशिक अखण्डता और सर्वोच्च सत्ता के लिए पारस्परिक सम्मान की भावना II . अनाक्रमण III . एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना IV . समानता V . शांतिपूर्ण सहअस्तित्व 6 . गुटनिरपेक्षता – गुटनिरपेक्षता आन्दोलन के अगवा – भारत के जवाहर लाल नेहरू युगोस्लाविया के टीटो और मिश्र के नासिर थे । – गुटनिरपेक्ष आन्दोलन 1955 के बांडुग सम्मेलन ( 29 देश ) में अस्तित्व में आया । – गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का प्रथम सम्मेलन 1961 में बेलग्रेड ( यूगोस्लाविया ) में 25 विकासशील देशों के प्रतिनिधियों के साथ हुआ । – 1988 में 7 वें गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के शिखर सम्मेलन की मेजबानी नई दिल्ली , भारत ने की  – 17 वां गुट निरपेक्ष आन्दोलन शिखर सम्मेलन सितम्बर 2016 में मारगरीता , कराकस वेनेजुएला में सम्पन्न हुआ । – 18 वां गुट निरपेक्ष आन्दोलन शिखर सम्मेलन सितम्बर 2019 में अजरबैजान में होगा ।

गुट निरपेक्षता का अर्थ – विश्व के किसी भी गुट का साथ जिसका स्वरूप सैनिक हो , के साथ जुड़ाव न रखना । यह तटस्थता की नीति नहीं है बल्कि एक स्वतंत्र नीति है ।

भारत द्वारा विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता को अपनाने के कारण :- 1 . भारत किसी गुट का समर्थन करके विश्व में तनाव की स्थिति उत्पन्न करने का पक्षधर नहीं था । 2 . स्वतंत्र विदेश नीति को अधिक उपयोगी समझा । 3 . आर्थिक विकास हेतु दोनों ही गुटों से बराबरी के संबंध बनाएँ रखना जरूरी था । 4 . यह नीति भारत की सामाजिक , सामरिक , भौगोलिक , राजनीतिक , आर्थिक व्यय सांस्कृतिक मांगों के अनुरूप थी । 5 . देश के प्रारम्भिक नेतृत्व की गुटनिरपेक्षता की नीति में अटूट श्रद्धा व विश्वास था। 6 . यह देश की ऐतिहासिक पृष्टभूमि व विविधतापूर्ण बहुलवादी संस्कृति के लिए अनुकूल थी । – वर्तमान समय में गुट निरपेक्ष का तात्पर्य विदेश नीति की स्वतंत्रता से है  तथा इसका उद्देश्य संप्रभु राष्ट्रों को समानता व उनकी संप्रभुता व अखण्डता को सुरक्षित रखना है ।  भारतीय विदेश नीति (India Foreign Policy) के नवीन आयाम  :- 1 . 90 के दशक में आर्थिक क्षेत्र में किये गये उदारवादी सुधार विदेश नीति के मुख्य आधार बने हुए हैं । 2 . एक सुरक्षित और स्थिरक्षेत्रीय पर्यावरण की स्थापना करना ताकि भारत का आर्थिक विकास अनवरत जारी रहे । 3 . आंतकवाद के प्रति शुन्य सहयता की नीति का अनुसरण किया जाना ।

Q . भारतीय विदेश नीति के साथ तीन नये बिन्दु कौन से जुड़े हैं ?  1 . व्यापार 2 , संस्कृति ३ . सम्पर्क Q . वर्तमान सरकार की विदेश नीति के 5 मूल सिद्धान्त कौनसे हैं ?  1 . निरन्तर वार्ता 2 . आर्थिक समृद्धि को प्रोत्साहन 3 . भारत की प्रतिष्ठा और सम्मान में वृद्धि 4 . राष्ट्रीय सुरक्षा का समर्थन 5 . भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की मान्यताओं को प्रोत्साहन Q . वर्तमान सरकार / प्रधानमंत्री का संबंध है ?  1 . पड़ोस पहले की नीति 2 . फास्ट ट्रेक नीति 3 . एक्ट ईस्ट नीति Q . ट्रेक टु नीति से अभिप्राय है ?  खेल , सांस्कृतिक आदि अनौपचारिक माध्यमों से देशों के लोगों के मध्य संबंध बढ़ाना ।

भारत पाकिस्तान और जम्मू – कश्मीर  22 – अक्टूबर 1947 – कबालियों और पाक सैना का आक्रमण 26 – अक्टूबर 1947 – कश्मीर का विलय पत्र पर हस्ताक्षर 1 – जनवरी 1948 – भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र में शिकायत 1 – जनवरी 1949 – भारत – पाक युद्ध विराम पर सहमत 4 – 5 अगस्त 1965 – भारत – पाक युद्ध 22 – सितम्बर 1965 – भारत – पाक युद्ध बंद 10 – जनवरी 1966 – ताशकन्द समझौता ( लाल बहादुर शास्त्री और अय्यूब खां के मध्य ) 3 दिसम्बर , 1971 – भारतीय हवाई अड्डों पर बमबारी । 16 दिसम्बर , 1971 – ढाका में जगजीत सिंह अरोड़ा के सम्मुख पाकिस्तानी जनरल नियाजी का आत्म समर्पण 3 जुलाई , 1972 – शिमला समझौता इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अलिभुट्टो के मध्य 17 दिसम्बर , 1985 – छ : सूत्री समझौता राजीव गांधी और जिया उलहक के मध्य । 31 दिसम्बर , 1988 – एक – दूसरे के परमाणु संस्थानों पर हमला  नहीं करने का समझौता । फरवरी 1999 – दिल्ली – लाहौर – दिल्ली बस सेवा 14 – 16 जुलाई 2007 – आगरा वार्ता परवेज मुशर्रफ और अटल बिहारी वाजपेयी 15 अगस्त 2016 – भारतीय प्रधानमंत्री की लाल किले से घोषणा पाकिस्तान से वार्ता केवल पाक अधिकृत कश्मीर पर होगी ।

भारत और चीन :- 28 अप्रैल 1954 – पंचशील सिद्धान्तों पर सहमती 31 मार्च 1959 – दलाईलामा ने भारत में शरण ली अक्टूबर 1962  – भारत चीन युद्ध 27 – 28 अप्रैल 2018 – वुहान चीन में अनौपचारिक वार्ता नरेन्द्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शीजिनपिंग के मध्य

भारत और नेपाल :-  30 जुलाई 1950 भारत – नेपाल के मध्य संधि हुई । नेपाल – भारत और चैन के मध्य बफर स्टेट है । नेपाल भारत का स्वाभाविक मित्र राष्ट्र है ।

भारत और आसियान :- ● आसियान की स्थापना – 1967 5 राष्ट्रों द्वारा वर्तमान में 10 राष्ट्र सदस्य हैं । ● 1996 में भारत आसियान का पूर्ण संवाद सहभागी राष्ट्र बना । ● आसियान इंडिया प्लान ऑफ ऐक्शन – 2016 – 20 लागू किया गया है । ● भारत आसियान से भौगोलिक , सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से जुड़ा हुआ है । ● 10 आसियान देशों के राष्ट्राध्यक्ष 26 जनवरी 2018 गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि थे ।

सार्क / दक्षेस / दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन :- स्थापना – 1985 मुख्यालय – काठमाण्डू 1987 में 8 वां देश – अफगानिस्तान अप्रैल 2007 में । 7 – भारत , पाकिस्तान , बांग्लादेश , नेपाल , श्रीलंका , भूटान व मालदीव । ● सार्क का विश्व की लगभग 21 % जनसंख्या , 3 % भू – भाग और 9 % से अधिक वैश्विक अर्थव्यवस्था में योगदान है । ● 19 वां शिखर सम्मेलन इस्लामाबाद में प्रस्तावित लेकिन भारत के बहिष्कार कारण स्थगित है । ● 1995 ( 8वां ) , 2007 ( 14वां ) शिखर सम्मेलन नई दिल्ली में हुएँ थे । साफ्टा – दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र 1 जनवरी 2006 से लागू है ।

भारतीय प्रधानमंत्री और विदेशनीति :-  प्रधानमंत्री देश की विदेशनीति का निर्धारक होता है । जवाहरलाल नेहरू – असलंग्नता / तटस्थता नीति मोरारजी देसाई / ( अटल बिहारी वाजयपेयी ) – वास्तविक गुट निरपेक्षता नीति पी . वी . नरसिम्हा राव – लुक ईस्ट नीति इन्द्र कुमार गुजराल – बड़ा पड़ौसी या गुजराल डाक्ट्रीन नरेन्द्र मोदी – पहले पड़ौसी की नीति , एक्ट ईस्ट नीति , फास्ट ट्रेक नीति

विदेश नीति (India Foreign Policy) के निर्धारक तत्व –  1 . जनसंख्या 2 . भौगोलिक स्थिति 3 . प्राकृतिक सम्पदा 4 . औद्योगिक स्त्रोत और क्षमता 5 . सैनिक शक्ति 6 . भाषा , धर्म , नस्ल और संस्कृति 7 . विचारधारा 8 . नीति – निर्माता 9 . विश्व जनमत 10 . विश्व संगठन 11 . सम्बद्ध देशों की प्रतिक्रिया

विदेश नीति के लक्ष्य – राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति , पूर्ति एवं रक्षा 1 . राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा 2 . विश्वशांति और सुरक्षा की स्थापना 3 . चंहुमुखी आंतरिक विकास 4 . आर्थिक उद्देश्य 5 . वैचारिक उद्देश्य 6 . सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली बनना 7 . राष्ट्रीय स्वाधीनता की रक्षा करना 8 . सांस्कृतिक उद्देश्य

विदेश नीति (India Foreign Policy) में नेहरू का योगदान :- Q . नेहरू PM , के साथ – साथ विदेश मंत्री भी रहे ( 17 वर्ष तक सबसे लंबे समय तक विदेश मंत्री ) 1 . स्वतंत्र विदेश नीति की नींव डाली ( महाशक्ति की नींव ) 2 . व्यापक दृष्टिकोण का समावेश यानि वे अंतर्राष्ट्रीयता और अखिल एशियावाद के समर्थक थे । 3 . शांति , सह अस्तित्व और भाई चारे पर आधारित विदेश नीति की नींव डाली ( पंचशील ) 4 . राष्ट्रमण्डल का सदस्य बने रहना लेकिन ब्रिटिश ताज की सर्वोच्चता को अस्वीकार कर दिया 5 . ‘ असंलग्नता ‘ नीति का निर्माता 6 . एशिया – अफ्रीका एकता का विचार रखा विफलताएँ :-  1 . आदर्श विदेश नीति फलत : राष्ट्रीय विकास में सहायक नहीं बनी । 2 . चीन से रक्षा करने में असफल रहे ।

भारत और संयुक्त राष्ट्र :-

● भारत ने सान – फ्रांसिस्को सम्मेलन 1945 में भाग लिया और संयुक्त राष्ट्र के मूल संस्थापक 51 राष्ट्रों में से एक बन गया । ● वर्तमान में 193 देश सदस्य , 193 वां मॉन्टेनेग्रो 2006 में बना । 1 . महासभा – यह संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष संस्था है । इसमें सदस्य देश अधिकतम 5 प्रतिनिध भेज सकता है । इसका वार्षिक सम्मेलन सितम्बर माह में ( द्वितीय  मंगलवार से ) होता है । 1953 में भारत की विजय लक्ष्मी पंडित इसकी अध्यक्ष बनी थी । वर्तमान प्रतिनिधि – सैयद अकबरूद्दीन – न्यूर्याक सिटी 2016 से                          – राजीव कुमार चन्देर – जनेवा 2017 से ● वर्तमान महासभा अध्यक्ष – श्री मिरोस्लाव लाजकक ( 72 वें ) देश – स्लोवाक

UN के शांति मिशनों में भारत का योगदान :-  ● अब तक भारत ने 49 शांति मिशनों में भाग लिया है । जिनमें लगभग 1 लाख 95 हजार जवानों का योगदान दिया है ● 15 सैन्य कमाण्डर दिये हैं तथा वर्तमान में मेजर जनरल जय शंकर मेनन , ‘ गोलन हाइट्स ‘ मिशन के कमाण्डर हैं । ● 168 भारतीय सैनिक इन मिशनों में वीरगति को प्राप्त हुए हैं । ● कांगो मिशन ( 1960 – 64 ) के दौरान केप्टन G . S . सलारिया को मरणोपरांत ‘ परमवीर चक्र ‘ प्रदान किया गया था । वर्तमान में चल रहे अभियानों में योगदान :- 1 . लेबनान ( 1998 से ) 2 , कांगो ( 2005 से ) 3 . सुडान ( 2005 से ) 4 . गोलन हाइट्स ( 2006 से ) 5 . आइवरी कोस्ट ( 2017 से ) 6 . हैती ( 1997 से ) 7 . लाइबेरिया ( 2007 से ) ( महिला सदस्य भी शामिल )

2 . सुरक्षा परिषद् :- ◆ 5 स्थायी सदस्य – अमेरिका , ब्रिटेन , फ्रांस , रूस , चीन ◆ 10 अस्थायी सदस्य – कार्यकाल 2 वर्ष का होता है ।

भारत सुरक्षा परिषद् में – 1 . 1950 – 51 2 , 1967 – 68 3 . 1972 – 73 4 . 1977 – 78 5 . 1984 – 85 6 . 1991 . 92 7 . 2011 – 12 ● सुरक्षा परिषद विश्व शांति के लिए उत्तरदायी संगठन है । अतः इसे विश्व का ‘ पुलिस मैन ‘ कहा जाता है । ● स्थायी सदस्यों को वीटो / निषेध शक्ति प्राप्त है । ● सुरक्षा परिषद् की अध्यक्षता प्रत्येक राष्ट्र 1 माह के लिए करता है । निर्णय के लिए 9 राष्ट्रों का सर्मथन आवश्यक है लेकिन स्थायी सदस्य विटो प्रयोग करके कार्यवाही रोक सकता है ।

3 . अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय :-  मुख्यालय – हेग ( नीदरलैंड ) स्थापना – जून 1945 , शुरूआत – अप्रैल 1946 से संगठन – 15 न्यायाधीश कार्यकाल – 9 वर्ष चुनाव – महासभा व सुरक्षा परिषद् प्रत्येक 3 वर्ष में 5 न्यायाधीशों का करते हैं ।

भारत और अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय – 1 . सर बेनेगल राव – 1952 – 53 जज 2 . न्यायाधीश के रूप में – 1973 – 88 कार्यरत रहें । नगेन्द्र सिंह 1976 – 79 उपाध्यक्ष नगेन्द्र सिंह 1985 – 88 अध्यक्ष 3 . रघुनाथ स्वरूप पाठक – 1989 – 1991 जज 4 . दलवीर भण्डारी 2012 से . . . . . जज

4 . आर्थिक तथा सामजिक परिषद्  :-  संगठन – 54 सदस्य स्थापित – 1946 ● 18 सदस्यों को प्रति वर्ष निर्वाचन महासभा द्वारा किया जाता है । ● 2018 – 20 तक के लिए भारत सदस्य है । ● भारत शुरू से ही इस संस्था का सदस्य रहा है ।

5 . न्यास परिषद् :- 1994 से इसके कार्य स्थगित कर दिये गये ।

6 . सचिवालय :- ● न्यूयॉर्क में स्थित है । ● इसका प्रशासनिक प्रभारी महासचिव होता है । वर्तमान सचिव – एंटोनियो गुटेरस ( पुर्तगाल ) 9th ● महासचिव सुरक्षा परिषद् की सलाह पर 5 वर्ष के लिए महासभा द्वारा चुना जाता ।

UN की विशेष संस्थाएं :- 1 . खाद्य और कृषि संगठन ( FAO ) , रोम इटली 1945 2 . अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन ( ICAO ) , मॉट्रियल , कनाडा 1947 3 . कृषि विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय कोष ( FAD ) , रोम , इटली , 1977 4 . अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ( ILO ) , जेनेवा , स्विटजरलैण्ड , 1919 5 . अंतरराष्ट्रीय समुद्री संगठन ( IMO ) लंदन , 1948 6 . अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक कोष ( IMF ) वाशिंगटन , 1946 7 . अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ ( ITU ) जेनेवा , 1865 8 . UNESCO पेरिस , 1946 9 . संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन ( UNIDO ) वियना , आस्ट्रीया 10 . सार्वभौमिक पोस्टल संघ ( UPU ) बर्न , स्विटजरलैण्ड , 1874 11 . विश्व बैंक समूह वाशिंगटन , 1946 i . अंतरराष्ट्रीय बैंक विकास और पुनसंरचना के लिए । ii . अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम iii . अंतरराष्ट्रीय विकास संस्थान 12 . विश्व स्वास्थ्य संगठन ( WHO ) , जेनेवा , 1948 13 . विश्व बौद्धिक सम्पदा संगठन ( WIPO ) जेनेवा , 1967 14 . विश्व मापतौल संगठन ( WMO ) जेनेवा , 1873 15 . विश्व पर्यटन संगठन मेड्रिड , स्पेन 1974

Note – राधाकृष्णन यूनेस्को के अध्यक्ष 1952 – 53 में रहे । मौलाना अब्दुल कलाम भी अध्यक्ष रहे । 1956 श्रीमती राजकुमारी अमृत कौर – अध्यक्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन , डॉ . वी . आर . सेन – विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन अध्यक्ष रहे । न्यायमूर्ति पी . एन . भगवती – संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति 1999 – 02

अंतरराष्ट्रीय नीतियों के मुख्य रूझानः वैश्वीकरण और परमाणु अप्रसार के विशेष संदर्भ में :-   परमाणु अप्रसार संधि – 1968 , लागू – 1970 ● 189 देशों द्वारा स्वीकृत ● हस्ताक्षर नहीं करने वाले – इजरायल , पाकिस्तान , भारत उत्तर कोरिया ने 2003 में संधि से अलग हो गया । ● इस संधि के अनुसार 1968 से पहले परमाणु हथियार विकसित करने वाले राष्ट को ‘ परमाणु राज्य के रूप में पहचान दी गई , वे हैं – अमेरिका , रूस , ब्रिटेन , फ्रांस , चीन ।

अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा संस्था ( IAEA ) 1957 मुख्यालय – वियना , अध्यक्ष – युकिया अमानो ( जापान ) ● सिविल परमाणु संयंत्रों पर निगरानी रखता है । भारत इसका सदस्य है ।

NSG – परमाणु आपूर्ति समूह – 1978  :- ● 7 देशों द्वारा स्थापित अब 46 सदस्य देश ● भारत सदस्य नहीं है । ● इसका उद्देश्य परमाणु सामग्री की आपूर्ति पर नियंत्रण स्थापित करना है ।

CTBT – व्यापक परमाणु परीक्षण – प्रतिबंध संधि – 1996 :- ● 183 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं । 164 अनुमोदन कर चुके हैं 44 परमाणु सम्पन्न राष्ट्रों द्वारा हस्ताक्षर किया जाना जरूरी है । भारत ने ‘ परमाणु मुक्त विश्व ‘ की शर्त के साथ जोड़ा और इसे विभेदकारी बताते हुए हस्ताक्षर करने से मना कर दिया । ● भारत , पाकिस्तान , उत्तरी कोरिया ने हस्ताक्षर नहीं किये है । यह संधि अभि  प्रभा नहीं हुई है । ● यह संधि थल , जल , नभ में परमाणु परीक्षण पर रोक लगाती है , लेकिन वर्तमान समय में परीक्षण प्रयोगशाला में किये जाते हैं ।

◆ भारत और परमाणु अस्त्र :- ● 18 मई 1974 – ‘ बुद्धा हँसे ‘ पोखरण राजस्थान में प्रथम परमाणु अस्त्र परीक्षण ● 11 – 13 मई 1998 – ‘ ऑपरेशन शक्ति ‘ पोखरण राजस्थान में पाँच परमाणु अस्त्रों का परीक्षण किया गया । नीति – पहले परमाणु अस्त्रों का प्रयोग नहीं करना लेकिन प्रभावी निवारक शक्ति का विकास करना यानि थल , जल और नभ से परमाणु अस्त्रों को छोड़ने की प्रणाली का विकास राष्ट्रीय हित में करना । ● नियंत्रण – प्रधानमंत्री के पास । ● परमाणु कमांड – परमाणु कमांड प्राधिकरण – 2003 में स्थापित  मुख्यालय – नई दिल्ली में ● परमाणु कमांड प्राधिकरण की राजनैतिक परिषद् का अध्यक्ष प्रधानमंत्री और कार्यकारी परिषद् का अध्यक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को बनाया गया है । ● रणनीतिक बल कमांड – 2003 परमाणु अस्त्रों के रखरखाव , प्रबंधन के लिए उत्तरदायी है । ● तीनों सेनाओं के मिश्रण से तैयार किया गया है इसका संचालन तीन स्टार जनरल / अधिकारी करता है । ●  वर्तमान प्रभारी – ले . जनरल अमित शर्मा हैं ।

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Determinants of Indian Foreign Policy (in Hindi)

Lesson 3 of 34 • 65 upvotes • 9:18mins

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Prabhakar Jha

This lesson talks about the determinants of Indian Foreign Policy.

Indian foreign policy: Determinants, Institutions, and Continuity

34 lessons • 4h 52m

Overview (in Hindi)

Foreign Policy and Nature: Meaning (in Hindi)

Main Determinants of Indian Foreign Policy (in Hindi)

Evolution of Indian Foreign Policy: Part 1 (in Hindi)

Evolution of Indian Foreign Policy 1947-2017: Part 2 (in Hindi)

NAM and it's Significances (in Hindi)

Evolution of Indian foreign policy

Evolution of Indian foreign policy part-2

Evolution of Indian foreign policy part-3(cold war era in India)

Indian foreign in post cold era

Gujral doctrine of Indian foreign policy

Nuclear doctrine of Indian foreign policy

India energy diplomacy

Global issues

Key debates of Indian foreign policy

Key debates of Indian foreign policy part-2

Key debates of Indian foreign policy part-3

Does India have the ability to ensure a favourable international information order?

Does India have the ability to integrate its diaspora?

Opportunities and challenges for indian foreign policy in its emergency as a great power

Changing dynamics of Indian foreign policy

India and Djibouti

India and japan

Gathering clouds over West Asia

India and European union

Involving states in foreign policy

Is india a good neighbour?

India's energy diplomacy key initiatives efforts done so far

India's African policy

India bhutan relations

India Brazil south Africa sign IBSA TRUST FUND

Strategic importance of quadrilateral

Rules based regional security architecture

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Essay on India’s Foreign Policy(भारत की विदेशनीति) in Hindi

अनुक्रम (Contents)

Hello Friends, currentshub में आपका स्वागत हैं , अगर आप किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने के लिए India’s Foreign Policy notes या बुक तलाश कर रहे हैं तो आप एकदम सही स्थान पर हो क्यूंकि आज हम आप सभी के लिए भारत की विदेशनीति notes लेकर आये हैं ये notes एकदिवसीय परीक्षा की तैयारी करने के लिए बहुत ही उपयोगी notes हैं. जैसे की आप सभी जानते ही हैं की आजकल सभी परीक्षाओं इससे जुड़े बहुत से प्रश्न पूछे जाते हैं. तो दोस्तों आप सभी इसको अवश्य पढ़े | ये आप सभी के लिए बहुत ही helpful होगा |

India’s Foreign Policy(भारत की विदेशनीति)

Essay on India’s Foreign Policy

  • आज का विश्व विचित्र परिस्थितियों से गुजर रहा है |
  • किस क्षण क्या हो जायेगा,यह कोई नही बता सकता |
  • युद्ध के काले बादल अब भी मंडरा रहे है और मानवजाति को विनाश की आशंका से व्यग्र कर रहे हैं |
  • भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन के शब्दों में ” आज का समाचार दो परस्पर विरोधी क्षेत्रों में उद्भ्रांत सा होकर घूम रहा है| कभी इधर आता है और कभी उधर जाता है| एक और शांति, सुरक्षा और समृद्धि का स्वर्ग गूँजता है तो दूसरी ओर युद्ध के काले बादल भयंकर गर्जना करते हैं| “
  • आज संसार अपने अस्तित्व की संकटग्रस्त घड़ियों से गुजर रहा है|
  • कोई नहीं बता सकता कि मानव का भविष्य क्या होगा?
  • वर्तमान नाजुक परिस्थितियों से निरापद जीता-जागता बच जाएगा|
  • अथवा विश्वव्यापी आणविक युद्ध में नष्ट हो जाएगा|
  • ऐसी स्थिति में, संसार को जीवन या मरण में से एक का वरण कर लेना है|
  • यदि वह जीवन को चुनता है तो उसे शांति और सद्भावना की नीति अपनानी होगी, सहनशीलता और धैर्य का सहारा लेना होगा|
  • हमें  ‘ स्वयं जीवित रहो और दूसरों को भी जीवित रहने दो ‘ की नीति अपनानी पड़ेगी|
  • उसे सहअस्तित्व, मैत्री, पंचशील तथा सर्व हित की भावना का आश्रय लेना होगा|

इसे भी पढ़े-

शीत युद्ध (COLD WAR)के विशिष्ठ साधन , अंतराष्ट्रीय राजनीति पर शीत युद्ध का प्रभाव

  • भारत के कर्णधार अच्छी तरह समझते हैं कि गुटबंदी में पड़ने से उनके देश का भला नहीं है|
  • वे रूस और अमेरिका, दोनों के सैद्धांतिक मतभेदों को समझते हैं; किंतु वे दोनों में से किसी एक के भी अंधभक्त नहीं है|
  • भारत दोनों गुटों की नीतियों और सिद्धांतों का निष्पक्ष पर्यवेक्षक है|
  • वह दोनों में से किसी की भी नीति अथवा विचारधारा का समर्थन नहीं करता,
  • अपितु उसका सदा यही प्रयास रहता है कि दोनों गुट अपने सिद्धांत इन मतभेदों के बावजूद साथ-साथ रहना सीख जाएं|
  • मानव के विकास के लिए शांति और सुव्यवस्था की स्थापना के लिए एक साथ प्रयास करें
  • और अपने ज्ञान विज्ञान द्वारा संसार को एक ऐसा रुप दें, जिसमें भारतीय मनीषियों का ‘ वसुधैव कुटुंबकम ‘ का सपना साकार हो जाए|

India’s Foreign Policy

  • भारत की विदेश नीति ऐतिहासिक परिस्थितियों और सांस्कृतिक परंपराओं का गहरा प्रभाव पड़ा है|
  • बुद्ध, महावीर, अशोक और गांधी की सत्य और अहिंसा की नीति भारत की विदेश नीति का आधार-स्तंभ बनी|
  • समन्वय और सहिष्णुता, प्रेम और सद्भावना, सत्य-रक्षा, न्यायनिष्ठा,समता, बंधुत्व, एकता, और सहयोग हमारी विदेश नीति के प्राणतत्व हैं|
  • हम युद्ध के समर्थक नहीं, शांति के पुजारी हैं|
  • विश्व की क्या स्थिति है, मैथ्यू अर्नाल्ड के शब्दों में- ” हम ऐसे अंधेरे मैदान में बेसुध पड़े हैं, जहां किसी भी क्षण धर्म और आशंका का भेदी युद्ध और विनाश का दृश्य उपस्थित कर सकता है| हम ऐसे स्थल पर खड़े हैं, जिसके एक और तो अतीत है, जो मर चुका है और जिसकी गुड गाथा गाने से हमारा कुछ भला नहीं होगा और दूसरी और एक भविष्य है, जो अशक्त और निर्बल दिखाई पड़ता है| मानव जाति और संसार का हित इसमें नहीं है कि भविष्य निर्भर और आशाशून्य हो| इसे अमाशय और गौरवशाली बनाने में भी विश्व तथा इसकी प्रगतिवादी शक्तियों की समृद्धि संभव है|”

शीतयुद्ध(COLD WAR) का विकास; प्रमुख घटनाएं: एक दृष्टी में

  • इन सारी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर भारत में शांति और तटस्थता की नीति अपनाई है|
  • भारत की तटस्थता का तात्पर्य कदापि नहीं है कि वह संसार की गतिविधियों के प्रति उदासीन है तथा उसकी दृष्टि स्वयं तक ही सीमित है| उ
  • सकी तटस्थता का अर्थ है कि वह युद्ध की संभावनाओं को बढ़ाने वाली गुटबंदी और सैनिक करारों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता है|
  • स्व. प्रधानमंत्री नेहरू के शब्दों में-” सारा विश्व इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह जैसी नीति चाहे वैसी अपनाएं, किंतु हम भारतीयों ने यही निश्चय किया है कि हम तटस्थता की नीति अपनाएंगे और सैनिक गठबंधनों तथा शीत युद्ध को बढ़ाने वाले तत्वों के चक्कर में नहीं पड़ेंगे| हम सारे संसार से मित्रता और सद्भावना चाहते हैं| सबके साथ बंधुत्व और सहयोग की भावना अपनाना चाहते हैं| हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि सह अस्तित्व की नीति शांति का अभयदान देती है| युद्ध की संभावनाओ को मिटाती है तथा सहयोग और सद्भावना के सूत्र में बांधती है| यह मानव के दृष्टिकोण में परिवर्तन करती है और युद्ध की आशंका की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया से संसार को बचाती है| “
  • युद्ध का भय जब तक संसार के ऊपर मंडराता रहेगा तब तक मनुष्य का मस्तिष्क भय, घृणा, ईर्ष्या, तथा आशंका से भरा रहेगा और शीत युद्ध का क्षेत्र विस्तृत होता रहेगा|
  • इस खतरे को मिटाने के लिए आवश्यक है कि शांति और मध्य की नीति अपनाई जाए तथा विश्व शांति की स्थापना के लिए पंचशील और सह-अस्तित्व का सहारा लिया जाए|

शीत युद्ध(COLD WAR) विभिन्न परिभाषाएं in hindi

  • यह तो पंचशील का सिद्धांत हमारी विदेशनीति में प्राण तत्व बनकर आरंभ से ही समाया हुआ है,
  • किंतु सन 1954 में चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई तथा तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के संयुक्त विज्ञप्ति मैं भारत की शांति और मैत्री के सिद्धांतों को पंचशील के रूप में अंतर्राष्ट्रीय दर्जा मिला|
  • पंचशील के सिद्धांतों के द्वारा एक दूसरे पर आक्रमण न करने, एक दूसरे की संप्रभुता का आदर करने,
  • एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने, सहयोग, सद्भावना, और मैत्री की संभावनाओं सुदृढ़ बनाने तथा सह-अस्तित्व की नीति अपनाने का दृढ़ निश्चय किया गया|
  • बांडुंग सम्मेलन में इन सिद्धांतों के व्यापक प्रचार का मार्ग खोल दिया|
  • संसार से अत्यधिक प्रभावित हुआ| उसने समझ लिया कि विश्व शांति के लिए आवश्यक है कि पंचशील का सिद्धांत अपनाया जाए|
  • शांतिपूर्ण सहअस्तित्व उत्कृष्ट विधान है|
  • हम एक ऐसी स्थिति में पहुंच रहे हैं, जहां यह आवश्यकता अपने आप उभर आएगी|
  • यदि इंसान ने पंचशील सह अस्तित्व के सिद्धांतों की उपेक्षा की तो उसका जीवन अस्तित्व विहीन हो जाएगा|
  • अब वह समय आ गया है, जब हमें यह तय करना होगा कि यह तो प्रेम, शांति और बंधुत्व के साथ मिल जुलकर रहना सीखें
  • अथवा शारीरिक और आत्मिक, दोनों दृष्टियों से विनाश के गर्त में पढ़ना स्वीकारकर ले
  • बांडुंग-सम्मेलन सह- अस्तित्व के समर्थक राष्ट्रों की संख्या बढ़ाई और विश्व शांति के पक्ष में शांतिवादी क्षेत्र का प्रसार किया|
  • रूस, यूगोस्लाविया, म्यांमार, संयुक्त अरब, गणराज, जापान तथा अन्य राष्ट्र शांतिवादी क्षेत्र के भीतर आ गए|
  • ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका पर इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था|
  • भारत शांतिवादी राष्ट्रों का पथ प्रदर्शक बना|
  • शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के समर्थक इन राष्ट्रों ने साम्राज्यवादी देशों के शोषण और उपनिवेशवादी नीति का विरोध करना प्रारंभ किया|
  • रंगभेद और उपनिवेशवाद को मिटाने के लिए एकताबद्ध प्रयास करने का आवाहन किया |
  • संयुक्त राष्ट्र संघ में भी लोकतंत्रवादी शांतिप्रिय अफ्रीकी-एशियाई राष्ट्रों कि संगठित शक्ति की अभ्युदय में साम्राज्यवादी राष्ट्रों के शोषण, दमन और शक्ति बल पर निर्भर राष्ट्रों को दास बनाए रखने की नीति ढीली पड़ी |
  • अफ्रीका और एशिया में लोकतंत्र वादी युग का शुभारंभ हुआ|

आप इसको पढ़े-

शीत युद्ध(COLD WAR) सम्पूर्ण जानकारी हिंदी में

  • भारत में पंचशील के सिद्धांतों का सदा पालन किया है|
  • अंतरराष्ट्रीय इतिहास का सचमुच यह दुखद पृष्ठ है कि जिस चीन ने पंचशील के सिद्धांतों को सर्वप्रथम स्वीकार किया था,
  • उसी ने भारत के साथ विश्वासघात किया| इन सिद्धांतों का उसने उल्लंघन किया|
  • इतना होने पर भी हम मामले को शांतिपूर्ण ढंग से सो जाना चाहते हैं|
  • हम जानते हैं कि युद्ध समस्याओं का निराकरण नहीं है|
  • बुद्धि, विवेक, सद्भावना और आपसी वार्ता से ही समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है|
  • इसी भावना को दृष्टिगत रखते हुए पाकिस्तानी आक्रमण के बाद भारत ने’ ताशकंद समझौता’ किया, जबकि वह ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं था क्योंकि भारत ने पाकिस्तान पर विजय पाई थी|
  • भारत उपनिवेशवाद का सदस्य विरोधी रहा है|
  • वह समझता है कि संसार में शीत युद्ध का एक प्रमुख कारण उपनिवेशवाद है|
  • उसका सदा से यही प्रयास रहा है कि उपनिवेशवाद में जकड़े देशों को स्वतंत्रता मिले|
  • इंडोनेशिया को डच उपनिवेशवाद से मुक्ति दिलाने में भारत का प्रमुख योगदान रहा|
  • भारत के नेतृत्व में शांतिवादी अफ्रीकी एशियाई गुट की जोरदार आवाज के कारण ही अपील की जनता को उपनिवेशवाद के बंधन से छुटकारा मिल सका|

आप पढ़ रहे हैं

भारत की विदेशनीति

  • भारत के उत्तर प्रदेश में कुआं का उपनिवेश नासूर की भांति था|
  • ट्रांसलेट विवेक और समय की गति के अनुसार कार्य किया| उपनिवेशों ने शांतिपूर्वक अपना अधिकार हटाकर बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का परिचय दिया|
  • पुर्तगाल ने हठवादिता का रुख अपनाया, परंतु भारत में सद्भावना और आपसी वार्ता द्वारा समस्या का निराकरण करना चाहा, किंतु कोई परिणाम नहीं निकला|
  • विवश होकर भारत ने सैनिक कार्यवाही की| गोवा, दमन और दीव पर भारत का अधिकार हो गया|
  • इस पर पश्चिमी राष्ट्र मिला उठे और उन्होंने सुरक्षा परिषद में अपने समर्थक राष्ट्रों की मदद से गोवा में राष्ट्र संघ की सेनाएं भेजकर उसे ‘ अशांति और शीत युद्ध ‘ का स्थाई केंद्र बनाने का प्रयत्न किया, किंतु सत्य और शांति के समर्थक राष्ट्रों के समक्ष उनकी एक न चल पाई|
  • भारत की सदैव या नीति रही है कि पाकिस्तान के साथ हमारे मैत्रीपूर्ण संबंध बने रहें और आपसी विवादों का निपटारा शांति में ढंग से हो जाए|
  • कश्मीर के संबंध में मंत्री स्तर पर विचार विमर्श हुआ है किंतु पाकिस्तान की हठवादिता के कारण उचित समाधान अभी तक नहीं निकल सका है|
  • हमारी शांतिमय नीति का अर्थ है कि हम युद्ध नहीं करना चाहते; किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हम अन्याय के सामने झुक जाए, युद्ध से डर जाएं और पाकिस्तान को कश्मीर तथा दूसरी और चीन को अपनी हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि दे दें|
  • इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारत की शांति तटस्थता और सह-अस्तित्व की नीति, परीक्षण की कठोर परिस्थितियों से गुजरी और गुजर रही है,
  • किंतु गांधी का शांति तथा अहिंसावादी देश अपनी पंचशील की नीति पर दृढ़ है|
  • राजनीतिक आघातों और अपेक्षाओं के बावजूद हमने सहिष्णुता और सद्भावना की नीति छोड़ी नहीं है|
  • जिन नीतियों और आदर्शों को लेकर राष्ट्र संघ की स्थापना हुई है, वे ही भारत की विदेश नीति कें दृढ़ आधार है|
  • यदि भारत की विदेश नीति के आदर्शों और सिद्धांतों का सही मूल्यांकन करके संसार उसी के अनुरूप आचरण करें,
  • तो पीड़ित मानवता को राहत मिल जाए और युद्ध का खतरा संसार में सदा के लिए मिट जाए|

दोस्तों अगर आपको किसी भी प्रकार का सवाल है या ebook की आपको आवश्यकता है तो आप नीचे comment कर सकते है. आपको किसी परीक्षा की जानकारी चाहिए या किसी भी प्रकार का हेल्प चाहिए तो आप comment कर सकते है. हमारा post अगर आपको पसंद आया हो तो अपने दोस्तों के साथ share करे और उनकी सहायता करे.

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भारत की विदेश नीति India’s Foreign Policy...

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इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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Read about Foreign Policy of India in Hindi language. Explained foreign policy of India in Hindi for students of class 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. भारत की विदेश नीति पर निबंध।

hindiinhindi Foreign Policy of India in Hindi

अगस्त 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध पूरी तरह समाप्त हो गया था। लेकिन यह युद्ध विश्व को दो अलग-अलग खेमों में बाँटा गया था। पहला खेमा था पूँजीवादी विश्व का, जिसका अगुआ अमेरिका था। दूसरा खेमा था, साम्यवादी देशों का जिसका नेतृत्व सोवियत संघ कर रहा था। इस अलगाववादी स्थिति ने तीसरे विश्व युद्ध की संभावना और शीत युद्ध को जन्म दिया। दो वर्ष बाद, अगस्त 1947 में भारत स्वाधीन हुआ। वर्षों की पराधीनता और आर्थिक शोषण ने देश को विपन्न बना दिया था। ऐसे में देश को एक सफल घरेलू नीति के साथ-साथ सार्थक और सकारात्मक विदेश नीति की ज़रूरत थी। देश किसी भी अनचाही परिस्थिति में पड़ने को तैयार नहीं था। इसी मनोदशा और विश्व परिदृश्य के चलते भारत ने तटस्थ नीति अपनाई।

अपने इस कदम से भारत नवं स्वतंत्र देशों के साथ-साथ पूँजीवादी अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, साम्यवादी सोवियत संघ (अब रूस) और उसकी शासन पद्धति को मानने वाले देशों को शांति का संदेश भी देना चाहता था। इसी राष्ट्रनीति के चलते भारत ने पंचशील सिद्धांत और गुट-निरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व किया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत के नीति-निर्धारकों ने विश्व राजनीति की तत्कालीन संघर्षपूर्ण स्थिति के प्रति तटस्थ रहने का निश्चय किया। वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद भी भारत अपनी इसी नीति पर कायम है। तटस्थ नीति, भारत का समयोचित कदम था। जिसके अभाव में भारत का सामाजिक, आर्थिक विकास संभव नहीं था।

भारत ने अमेरिका और रूस के साथ संबंध स्थापित करने के साथ-साथ अन्य छोटे-छोटे राष्ट्रों के साथ भी मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित। ये संबंध देश के पुनर्निमाण और विकास के लिए आवश्यक थे। विश्व-बन्धुत्व की अपनी इसी भावना के कारण वह दो परस्पर विरोधी राष्ट्रों का तटस्थ मित्र बना हुआ है और उसे दोनों महा शक्तियों का विश्वास भी प्राप्त है। तटस्थता की नीति के संदर्भ में, देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कहना था:

“हमने तटस्थता की नीति न केवल इसलिए अपनाई है कि हम विश्व शांति के लिए उत्सुक हैं, बल्कि इसलिए भी की हम अपने देश की पृष्ठभूमि को नहीं भूल सकते। हमें विश्वास है कि आजकल की समस्याएँ शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाई जा सकती हैं। केवल युद्ध का न होना ही शांति नहीं है, बल्कि शान्ति एक मानसिक स्थिति है, जो आजकल के शीतयुद्ध जगत में नहीं पाई जाती। यदि युद्ध प्रारम्भ हो जाए तो हमे उसमें सम्मिलित नहीं होना चाहते। ऐसा हमने घोषित किया है क्योंकि हम शान्ति के क्षेत्र को विकसित और विस्तृत करना चाहते हैं।”

देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखते हुए उसे विकास पथ पर ले जाना देश की प्राथमिक आवश्यकता थी। अपनी इस तटस्थता की नीति को प्रसारित करने के उद्देश्य से पं जवाहर लाल नेहरू ने यगोस्लाविया के मार्शल टीटो और मिस्र के कमाल नासिर के साथ मिलकर गुट-निरपेक्ष आंदोलन का आरम्भ किया। वर्तमान में इसे सौ से अधिक देशों का समर्थन प्राप्त है। भारत का स्पष्ट विचार अपने साथ विश्व को शांतिमय और सुखमय बनाने का रहा है क्योंकि हमारा आदर्श है।

“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभाग् भवेत्॥”

विश्व-बंधुत्व के अपने आदर्श के कारण भारत केवल अपनी ही शांति की चिंता नहीं करता वरन् पूरे विश्व में शांति और सुख देखना चाहता है। इसी विश्व-दृष्टि प्रतिफल तटस्थ-नीति का रूप सामने आता है, जो भारत का प्रासंगिक कदम था।

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Indian Foreign Policy: Phases, Shifts and the Future

Last updated on January 6, 2023 by ClearIAS Team

foreign policy

India is on its path to become a regional superpower with considerable influence in global affairs.

Our foreign policy is a critical component in projecting this image and achieving many of its objectives.

Read here to know more about Indian foreign policy and its future.

Table of Contents

Indian Foreign Policy

The foreign policy of India or any country is shaped by two factors – domestic and international. Domestically, India’s history, culture, geography and economy have played an important role in determining the objectives and principles of India’s foreign policy.

The international factor, which is marked by the Cold War rivalry between NATO and the Warsaw Pact, the founding of the UN, the weapons race, notably the nuclear arms race, anti-colonialism and anti-imperialism, etc.

The 3 S’s – Space for Strategic Autonomy, Stability – Both Within and in the Neighbourhood, Strength – Economic, Military, and Soft Power to Protect and Advance Indian Interests – have been mentioned by many specialists as the best way to summarise the objectives of Indian Foreign Policy.

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The extent to which Indian foreign policy has succeeded in achieving these objectives is debatable. What is undeniable, though, is that foreign policy plays a critical role in ensuring that India achieves her goals as a country both now and in the future.

Let’s examine the many stages of our foreign policy’s development and the underlying elements that have influenced it.

Indian Foreign Policy: Phases

Indian Foreign Policy can divided into seven phases of evolution:

  • The Power of Ideas (1947-1962)
  • The Fractured Years (1962-1970)
  • The Idea of Power (1970-1989)
  • The Years of Reflection (1990-1998)
  • The Reality of Power (1998-2011)
  • Back to the Future (2011-2014)
  • Enlightened National Interest (2014)

1. The Power of Ideas (1947-1962)

Jawaharlal Nehru, one of the most important leaders in the national movement. He served as the president of India at the time of independence. Along with serving as Prime Minister, he also served as Foreign Minister. He influenced Indian foreign policy for years to come as a steadfast idealist based on Gandhian and socialist ethos.

The concepts themselves were derived from the national movement and the prevalent progressive philosophies of the period. Non-Alignment served as the cornerstone of the country’s foreign policy at the time. India ascended to the position of dominance among the nations of the third world through the Non-Alignment Movement (NAM).

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The main concern was to stay out of the USSR and US government’s Cold War block rivalry. The standard for judging issues was to be merit, not impartiality. Panchsheel, the five tenets of peaceful coexistence, served as the guiding ideals of this period.

India strongly opposed apartheid and backed efforts to decolonize the country. We also emphasised the need for peacekeeping and disarmament. This was made abundantly evident by our involvement in the Korean War. And the fact that we sponsored the Partial Test Ban Treaty.

The emphasis was also on inclusive and equitable development, Afro-Asian unity at the Bandung Conference, and multilateralism through the UN, Commonwealth, and other organisations. India’s idealistic outlook earned it respect among its neighbours and even among advanced western countries.

India was viewed as the obvious leader among the newly independent emerging countries. However, idealism had its limits. Non-Alignment was deemed “immoral” by the USA.

When India brought the Kashmir dispute before the UN, the US and the UK interjected, making matters more complicated and serving as the main impediment to a resolution.

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The Sino-Indian War of 1962, in which China, a nation we had supported fervently since 1949, essentially turned its back on us and attacked, was perhaps the cruellest blow.

2. The Fractured Years (1962-1970)

After the Sino-Indian War, we also lost Mr Nehru, our Prime Minister. Lal Bahadur Shastri’s leadership was tough but not as effective as his predecessor’s on a global scale. The Indian Foreign Policy was impacted by this.

We had to start a new war in 1965 after Pakistan attacked us. In addition to this, the US imposed food sanctions on us for questioning the US’s role in Vietnam.

We also had a time of reflection during which we realised that realism, rather than idealism, was the foundation upon which the universe operated.

Smt. Indira Gandhi became the prime minister in the latter half of the decade. The challenges we overcame also presented us with several internal opportunities. The much-needed modernization of the Indian military was brought about by the Sino-Indian War.

The US sanctions served as the impetus for the Green Revolution, which produced enough food. The 1965 Indo-Pak war also helped India in the future by sparking strategic thought. The fractious years served as the foundation for the change in Indian foreign policy for many years.

3. The Idea of Power (1971-1989)

In India’s political system, Smt. Indira Gandhi had established her dominance by 1971. Centralization, Authoritarianism, and Courage in the face of adversity were traits that defined her reign.

Indian foreign policy acknowledged the value of power for the first time. So to speak, we returned to our Kautilyan origins.

The 1971 Indo-Pak War, which led to the establishment of Bangladesh, demonstrated the power of India’s military prowess and diplomatic skills. We were able to resist pressure from the USA by signing a friendship treaty with the USSR.

We conducted our first nuclear weapons test in 1974 and then left the Non-Proliferation Treaty because it was unfair.

As India became closer to the Soviet Union during this time, non-alignment gradually eroded as well. Socialist policies, such as nationalising banks and enforcing stricter licencing requirements, were also consolidated. Through it all, the economy was neglected, and in 1991, it finally bit us.

4. The Years of Reflection (1990-1998)

In the early 1990s, India did not do so well. The economy had been poorly managed, which had resulted in the current foreign exchange crisis. The North East, Punjab, and Jammu and Kashmir all saw mutinies during that time. The Soviet Union, our biggest “friend” on the international stage, swiftly fell apart, leaving us “friendless.”

Additionally, the crisis brought about certain logical changes in the economy and foreign policy. A new economic strategy focused on globalisation, privatisation, and liberalisation was established.

We made contact with the US and emphasised the need for closer ties. The next significant phase of Foreign Policy was put in motion by the robust performance of the Indian economy, which concealed domestic political weakness.

5. The Reality of Power (1998-2011)

India conducted its second nuclear test in Pokhran to usher in a new era of foreign policy (1998). The first test and the response to it were circumspect, but the second test made it plain that India was now a nuclear-weapon state.

Despite the US’s first response to sanctions, it soon became clear that democratic India, with its population and rapidly expanding economy, could be an ally in the future. This sparked the Talbott-Jaswant Singh negotiations, which greatly enhanced ties between the US and India.

The Indian economy was now expanding at a rate of around 8% annually. We saw the middle class grow and the IT revolution. On the strength of its reputation as a democracy and a strong economy, India also increased its soft power. A Look East Policy and better ties with China were added to the strong US connections.

In 2008, the US and India signed the Civil Nuclear Agreement, which was a significant victory for India. The prosperity of the Indian diaspora in the US contributed to the rapprochement of the two nations.

6. Back to the Future (2011-2014)

In 2011, a group of thinkers published the NAM 2.0 paper. This emphasized the need for strategic autonomy to underpin Indian foreign policy.

Strategic autonomy has continued to be an important factor in guiding India’s foreign policy, despite criticism that it focused too heavily on the now-outdated Non-Alignment idea.

7. Enlightened National Interest (2014)

Mr Narendra Modi, who is regarded as India’s most powerful Prime Minister since Ms Gandhi, rose to prominence following the 2014 general elections. With this transition in government, there was a change in foreign policy that was consistent with India’s influence on the global order.

Enlightened National Interest, which essentially means “National Interest Plus,” serves as the basis for the current foreign policy of India.

It is based on Aristotle’s theory of Enlightened Self Interest, which holds that people who act in ways that advance the interests of others (or the interests of the organisation or groups to which they belong) ultimately advance their self-interest.

Above narrow national interest, enlightened national interest places emphasis on a shared future vision for all. It adheres to the Vasudaiva Kudumbakam idea that is prevalent in India.

The Gujral Doctrine of the 1990s is modified, with a focus on soft power and neighbourhood first. Instead of the cautious strategy used during Non-Alignment, there is now a confident “multi-alignment” with major nations while yet protecting our strategic autonomy.

At first, there was a stronger readiness to interact with Pakistan, but the country’s position toward sponsoring terrorism has resulted in a deadlock.

Read Foreign relations notes here.

Indian Foreign Policy: Future

Uncertainties caused by the emergence of populist regimes throughout the Western world have an impact on the current world order. No force can take the Western powers’ position of dominance from them despite the Western powers’ declining might.

The trade battle between the United States and China is still going strong.

Maintaining a balance in relations between the US and China should be the main focus of future Indian foreign policy. Although Indo-US ties are at their highest point since independence, there hasn’t been much progress in many sectors.

Some experts worry that relations will stagnate. Strong action must be taken in this direction if India is to profit.

Competition on the one hand and cooperation on the other represent Indo-China relations. The US-China trade conflict has provided us with an opportunity to strengthen our ties with China. This is a chance that cannot be passed up.

A major goal of foreign policy is a connected, integrated South Asia. The remaining nations must be the main focus if Pakistan is not receptive to the same. A step in this approach is the BBIN (Bangladesh Bhutan India Nepal) corridor.

The growth of India’s north-eastern region can be aided by connections with South East Asian countries via the India-Myanmar-Thailand Trilateral Highway and the Kaladan Multi-Modal Transport Corridor.

Lack of diplomatic skills is a significant barrier to India’s realising its potential in foreign policy. For a nation that aspires to be a global force, India lacks competent diplomats.

It is necessary to reform the Ministry of External Affairs and link it to the Ministries of Commerce and Défense. To fully utilise the synergies between the private sector and civil society, Track 2 diplomacy must be fostered.

Only a creative foreign policy can currently achieve the noble goal of stability while fostering inclusive growth. India must also make sure that it participates in the “rule-making” rather than the “rule-following” aspects of the international order.

To achieve this goal, one must be a permanent member of the UN and a member of all significant international organisations.

Article Written by: Remya

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foreign policy of india essay in hindi

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भारत पर निबंध (India Essay in Hindi)

भारत

पूरे विश्व भर में भारत एक प्रसिद्ध देश है। भौगोलिक रुप से, हमारा देश एशिया महाद्वीप के दक्षिण में स्थित है। भारत एक अत्यधिक जनसंख्या वाला देश है साथ ही प्राकृतिक रुप से सभी दिशाओं से सुरक्षित है। पूरे विश्व भर में अपनी महान संस्कृति और पारंपरिक मूल्यों के लिये ये एक प्रसिद्ध देश है। इसके पास हिमालय नाम का एक पर्वत है जो विश्व में सबसे ऊँचा है। ये तीन तरफ से तीन महासागरों से घिरा हुआ है जैसे दक्षिण में भारतीय महासागर, पूरब में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरेबिक सागर से। भारत एक लोकतांत्रिक देश है जो जनसंख्या के लिहाज से दूसरे स्थान पर है। भारत में मुख्य रूप से हिंदी भाषा बोली जाती है परंतु यहां लगभग 22 भाषाओं को राष्ट्रीय रुप से मान्यता दी गयी है।

भारत पर छोटे तथा बड़े निबंध (Long and Short Essay on India in Hindi, Bharat par Nibandh Hindi mein)

इंडिया पर निबंध – 1 (250 – 300 शब्द).

भारत देश शिव, पार्वती, कृष्ण, हनुमान, बुद्ध, महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानंद और कबीर आदि जैसे महापुरुषों की धरती है। भारत एक समृद्ध देश है जहाँ साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्र में महान लोगों ने जन्म लिया जैसे रविन्द्रनाथ टैगोर, सारा चन्द्रा, प्रेमचन्द, सी.वी.रमन, जगदीश चन्द्र बोस, ए.पी.जे अब्दुल कलाम, कबीर दास आदि।

भारत : विविधता में एकता

भारत“विविधता में एकता”काप्रतिकहैक्योंकि भारत मेंविभिन्न जाति, धर्म, संस्कृति और परंपरा के लोग एकता के साथ रहते हैं। भारत में हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई सभी धर्मों के लोग आपस में भाईचारे से रहते है। भारत में 22 प्रकार की आधिकारिक भाषाएँ बोली जाती है। यहाँ हर धर्म, पंथ और समुदाय की अपनी अलग भाषा, पहनावा और रीती रिवाज है। इतनी विभिन्नता में भी भारतीयता की डोर ने सभी को आपस में बांध रखा है।

भारत : एक महान और पुरातन राष्ट्र

भारत एक पुरातन देश है, जहाँ की सभ्यता प्राचीन काल में ही शीर्ष पर थी। यह प्राचीन समय से ही ज्ञान और विज्ञानं का केंद्र रहा है। भारत ने हमेशा ही वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश दिया जिसका अर्थ है यह सम्पूर्ण संसार ही मेरा घर है।

भारत : विश्व गुरु

भारत शिक्षा, शास्त्र और शस्त्र में अग्रणी देश रहा है। भारत में अलबरूनी , मेगस्थनीज आदि जैसे अनेक विदेशी विद्वान शिक्षा प्राप्त करने आते थे।भारत में तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय रहे , जिनमे देश विदेश के विद्यार्थी अध्ययन करने आते थे। भारत ने आर्यभट्ट , वराहमिहिर, रामानुज , चरक , सुश्रुत आदि जैसेविद्वान हुए , जिन्होंने पुरे संसार में भारत का परचम लहराया।

भारत को  वेद, पुराण, संस्कृति, भाषा, विज्ञानं, धर्म  आदि से धनवान बनाने में महापुरुषों का अतुलनीय योगदान रहा है। भारत देवभूमि है, जो ऋषियों की भूमि रही है। हम सभी को भारत देश पर गर्व है।

इसे यूट्यूब पर देखें : इंडिया पर निबंध

निबंध 2 (200 शब्द)

भारत एक खूबसूरत देश है जो अपनी अलग संस्कृति और परंपरा के लिये जाना जाता है। ये अपने ऐतिहासिक धरोहरों और स्मारकों के लिये प्रसिद्ध है। यहाँ के नागरिक बेहद विनम्र और प्रकृति से घुले-मिले होते हैं। ब्रिटिश शासन के तहत 1947 से पहले ये एक गुलाम देश था। हालाँकि, हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष और समर्पण की वजह से 1947 में भारत को अंग्रेजों से आजादी मिली। जब भारत को आजादी मिली तो पंडित जवाहर लाल नेहरु भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और भारतीय झंडे को फहराया और कहा कि “जब दुनिया सोती है, भारत जीवन और आजादी के लिये जागेगा”।

भारत मेरी मातृभूमि है और मैं इसे बहुत प्यार करता हूँ। भारत के लोग स्वभाव से बहुत ही ईमानदार और भरोसेमंद होते हैं। विभिन्न संस्कृति और परंपरा के लोग बिना किसी परेशानी के एक साथ रहते हैं। मेरे देश की मातृ-भाषा हिन्दी है हांलाकि बिना किसी बंधन के अलग-अलग धर्मों के लोगों के द्वारा यहाँ कई भाषाएँ बोली जाती हैं। भारत एक प्राकृतिक सुंदरता का देश है जहाँ समय-समय पर महान लोग पैदा हुए हैं और महान कार्य किये। भारतीयों का स्वाभाव दिल को छू लेने वाला होता है और दूसरे देशों से आये मेहमानों का वो दिल से स्वागत करते हैं।

भारत में जीवन के भारतीय दर्शन का अनुसरण किया जाता है जो सनातन धर्म कहलाता है और यहाँ विविधता में एकता को बनाए रखने के लिये मुख्य कारण बनता है। भारत एक गणतांत्रिक देश है जहाँ देश की जनता को देश के बारे में फैसले लेने का अधिकार है। यहाँ देखने के लिये प्राचीन समय के बहुत सारे अति सुंदर प्राकृतिक दृश्य, स्थल, स्मारक, ऐतिहासिक धरोहर आदि है जो विश्व के हर कोने के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। भारत अपने आध्यात्मिक कार्यों, योगा, मार्शल आर्ट आदि के लिये बहुत प्रसिद्ध है। भारत में दूसरे देशों से भक्तों और तीर्थयात्रियों की एक बड़ी भीड़ यहाँ के प्रसिद्ध मंदिरों, स्थलों और ऐतिहासिक धरोहरों की सुंदरता को देखने आती हैं।

निबंध 3 (350 शब्द)

भारत मेरी मातृ-भूमि है जहाँ मैंने जन्म लिया है। मैं भारत से प्यार करता हूँ और इस पर मुझे गर्व है। भारत एक बड़ा लोकतांत्रिक देश है जो जनसंख्या में चीन के बाद दूसरे स्थान पर काबिज़ है। इसका समृद्ध और शानदार इतिहास रहा है। इसे विश्व की पुरानी सभ्यता के देश के रुप में देखा जाता है। ये सीखने की धरती है जहाँ विश्व के हर कोने से विद्यार्थी यहाँ के विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिये आते हैं। कई धर्मों के लोगों के अपने विभिन्न अनोखे और विविध संस्कृति और परंपरा के लिये ये देश प्रसिद्ध है।

प्रकृति में आकर्षित होने की वजह से विदेशों में रहने वाले लोग भी यहाँ की संस्कृति और परंपरा का अनुसरण करते हैं। कई आक्रमणकारी यहाँ आये और यहाँ की शोभा और बहुमूल्य चीजों को चुरा कर ले गये। कुछ ने इसको अपना गुलाम बना लिया जबकि देश के बहुत से महान नेताओं की संघर्ष और बलिदान की वजह से 1947 में हमारी मातृ-भूमि अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुयी।

जिस दिन हमारी मातृभूमि आजाद हुयी उसी दिन से हर वर्ष 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रुप में मनाया जा रहा है। पंडित नेहरु भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने। प्राकृतिक संसाधनों से भरा देश होने के बावजूद भी यहाँ के रहवासी गरीब हैं। रविन्द्रनाथ टैगोर, सर जगदीश चन्द्र बोस, सर सी.वी.रमन, श्री एच.एन भाभा आदि जैसे उत्कृष्ट लोगों की वजह से तकनीक, विज्ञान, और साहित्य के क्षेत्र में ये लगातार बढ़ रहा है।

ये एक शांतिप्रिय देश है जहाँ बिना किसी हस्तक्षेप के अपने त्योहारों को मनाने के साथ ही विभिन्न धर्मों के लोग अपनी संस्कृति और परंपरा का अनुसरण करते हैं। यहाँ पर कई शानदार ऐतिहासिक इमारतें, विरासत, स्मारक और खूबसूरत दृश्य हैं जो हर वर्ष अलग देशों के लोगों के मन को अपनी ओर खिंचता है। भारत में ताजमहल एक महान स्मारक और प्यार का प्रतीक है तथा कश्मीर धरती के स्वर्ग के रुप में है। ये प्रसिद्ध मंदिरों, मस्ज़िदों, चर्चों, गुरुद्वारों, नदियों, घाटियों, कृषि योग्य मैदान, सबसे उँचा पर्वत आदि का देश है।

निबंध 4 (400 शब्द)

भारत मेरा देश है और मुझे भारतीय होने पर गर्व है। ये विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा और विश्व में दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। इसे भारत, हिन्दुस्तान और आर्यव्रत के नाम से भी जाना जाता है। ये एक प्रायद्वीप है जो पूरब में बंगाल की खाड़ी, पश्चिम में अरेबियन सागर और दक्षिण में भारतीय महासागर जैसे तीन महासगरों से घिरा हुआ है। भारत का राष्ट्रीय पशु चीता, राष्ट्रीय पक्षी मोर, राष्ट्रीय फूल कमल, और राष्ट्रीय फल आम है। भारतीय झंडे में तीन रंग है, केसरिया का मतलब शुद्धता (सबसे ऊपर), सफेद अर्थात् शांति (बीच का जिसमें अशोक चक्र है) और हरा रंग का अर्थ उर्वरता से है (सबसे नीचे)। अशोक चक्र में बराबर भागों में 24 तीलियाँ हैं। भारत का राष्ट्र गान “जन गण मन”, राष्ट्रीय गीत “वंदे मातरम” और राष्ट्रीय खेल हॉकी है।

भारत एक ऐसा देश है जहाँ लोग अलग-अलग भाषा बोलते हैं और विभिन्न जाति, धर्म, संप्रदाय और संस्कृति के लोग एक साथ रहते हैं। इसी वजह से भारत में “विविधता में एकता” का ये आम कथन प्रसिद्ध है। इसे आध्यात्मिकता, दर्शन, विज्ञान और प्रौद्योगिकीय की भूमि भी कहा जाता है। प्राचीन समय से ही यहाँ विभिन्न धर्मों के लोग जैसे हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन और यहूदी एक साथ रहते हैं। ये देश अपने कृषि और खेती के लिये प्रसिद्ध है जो प्राचीन समय से ही इसका आधार रही है। ये अपने पैदा किये हुए अनाज और फल इस्तेमाल करता है। ये एक प्रसिद्ध पर्यटन का स्वर्ग है क्योंकि पूरे विश्व के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। ये स्मारकों, मकबरो, चर्चों, ऐतिहासिक इमारतों, मंदिर, संग्रहालयों, रमणीय दृश्य, वन्य जीव अभ्यारण्य, वास्तुशिल्प की जगह आदि इसके राजस्व का जरिया हैं।

ये वो जगह है जहाँ ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, स्वर्ण मंदिर, कुतुब मीनार, लाल किला, ऊटी, नीलगिरी, कश्मीर, खजुराहों, अजन्ता और एलोरा की गुफाएँ आदि आश्चर्य मौजूद हैं। ये एक महान नदियों, पहाड़ों, घाटियों, झील और महासागरों का देश है। भारत में मुख्य रूप से हिंदी भाषा बोली जाती है। ये एक ऐसा देश है जहाँ 29 राज्य और 7 केन्द्र शासित प्रदेश है। ये मुख्य रुप से कृषि प्रधान देश है जो गन्ना, कपास, जूट, चावल, गेंहूँ, दाल आदि फसलों के उत्पादन के लिये प्रसिद्ध है। ये एक ऐसा देश है जहाँ महान नेता (शिवाजी, गाँधीजी, नेहरु, डॉ अंबेडकर आदि), महान वैज्ञानिकों (डॉ जगदीश चन्द्र बोस, डॉ होमी भाभा, डॉ सी.वी.रमन, डॉ नारालिकर आदि) और महान समाज सुधारकों (टी.एन.सेशन, पदुरंगाशास्त्री अलवले आदि) ने जन्म लिया। ये एक ऐसा देश है जहाँ शांति और एकता के साथ विविधता मौजूद है।

Essay on India in Hindi

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The New Idea of India

Narendra Modi’s reign is producing a less liberal but more assured nation.

  • Foreign & Public Diplomacy
  • Geopolitics
  • Ravi Agrawal

This article appears in the Winter 2024 print issue of FP. Read more from the issue.

From the middle of April until early June, staggered over the course of several weeks, the world’s biggest election will take place. More than 960 million Indians—out of a population of 1.4 billion—are eligible to vote in parliamentary elections that polls strongly suggest will return Prime Minister Narendra Modi and his Bharatiya Janata Party (BJP) to power for a third consecutive term.

Modi is probably the world’s most popular leader. According to a recent Morning Consult poll , 78 percent of Indians approve of his leadership. (The next three highest-ranked leaders, from Mexico, Argentina, and Switzerland, generate approval ratings of 63, 62, and 56 percent, respectively.) It is not hard to see why Modi is admired. He is a charismatic leader, a masterful orator in Hindi, and widely perceived as hard-working and committed to the country’s success. He is regarded as unlikely to turn to nepotism or corruption, often attributed to the fact that he is a 73-year-old man without a partner or children. Modi has few genuine competitors. His power within his party is absolute, and his opponents are fractured, weak, and dynastic—a quality usually equated with graft. Whether it is through maximizing his opportunity to host the G-20 or through his high-profile visits abroad, Modi has expanded India’s presence on the world stage and, with it, his own popularity. New Delhi is also becoming more assertive in its foreign policy, prioritizing self-interest over ideology and morality—another choice that is not without considerable domestic appeal.

Modi’s success can confuse his detractors. After all, he has increasingly authoritarian tendencies: Modi only rarely attends press conferences, has stopped sitting down for interviews with the few remaining journalists who would ask him difficult questions, and has largely sidestepped parliamentary debate. He has centralized power and built a cult of personality while weakening India’s system of federalism. Under his leadership, the country’s Hindu majority has become dominant. This salience of one religion can have ugly impacts, harming minority groups and calling into question the country’s commitment to secularism. Key pillars of democracy, such as a free press and an independent judiciary, have been eroded.

Yet Modi wins—democratically. The political scientist Sunil Khilnani argued in his 1997 book, The Idea of India , that it was democracy, rather than culture or religion, that shaped what was then a 50-year-old country. The primary embodiment of this idea, according to Khilnani, was India’s first prime minister, the anglicized, University of Cambridge-educated Jawaharlal Nehru, who went by the nickname “Joe” into his 20s. Nehru believed in a vision of a liberal, secular country that would serve as a contrast to Pakistan, which was formed explicitly as a Muslim homeland. Modi is, in many ways, Nehru’s opposite. Born into a lower-caste, lower-middle-class family, the current prime minister’s formative education came from years of traveling around the country as a Hindu community organizer, sleeping in ordinary people’s homes and building an understanding of their collective frustrations and aspirations. Modi’s idea of India, while premised on electoral democracy and welfarism, is substantially different from Nehru’s. It centers culture and religion in the state’s affairs; it defines nationhood through Hinduism; and it believes a powerful chief executive is preferable to a liberal one, even if that means the curtailment of individual rights and civil liberties. This alternative vision—a form of illiberal democracy—is an increasingly winning proposition for Modi and his BJP.

Hindus represent 80 percent of India’s population. The BJP courts this mega-majority by making them feel proud of their religion and culture. Sometimes, it aids this project by stirring up resentment of the country’s 200 million Muslims, who form 14 percent of the population. The BJP also attempts to further a version of history that interprets Hindus as victimized by successive hordes of invaders. Hindus hardly comprise a monolith, divided as they are by caste and language, but the BJP requires only half their support to win national elections. In 2014, it secured 31 percent of the national vote to gain a majority of seats in Parliament—the first time in three decades a single party had done so. It did even better in 2019, with 37 percent of the vote.

An illiberal, Hindi-dominated, and Hindu-first nation is emerging, and it is challenging—even eclipsing—other ideas of India, including Jawaharlal Nehru’s.

At least some part of the BJP’s success can be attributed to Modi’s name recognition and tireless performances on the campaign trail. But focusing too much on one man can be a distraction from understanding India’s trajectory. Even though Modi has acquired a greater concentration of power than any Indian leader in a generation, his core religious agenda has long been telegraphed by his party, as well as by its ideological parent, the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS), a Hindu social society and paramilitary group that counts more than 5 million members. While Modi has been the primary face of the BJP since 2014, the party itself has existed in its current form since 1980. (The RSS, to which Modi traces his true ideological roots, is even older. It will mark its 100th anniversary next year.) The BJP’s vision—its idea of India—is hardly new or hidden. It is clearly described in its election manifestos and, combined with Modi’s salesmanship, is increasingly successful at the ballot box.

Put another way, while India’s current political moment has much to do with supply—in the form of a once-in-a-generation leader and few convincing alternatives—it may also have something to do with shifting demand. The success of the BJP’s political project reveals a clearer picture of what India is becoming. Nearly half the country’s population is under the age of 25. Many of these young Indians are looking to assert a new cultural and social vision of nationhood. An illiberal, Hindi-dominated, and Hindu-first nation is emerging, and it is challenging—even eclipsing—other ideas of India, including Nehru’s. This has profound impacts for both domestic and foreign policy. The sooner India’s would-be partners and rivals realize this, the better they will be able to manage New Delhi’s growing global clout. “The Nehruvian idea of India is dead,” said Vinay Sitapati, the author of India Before Modi . “Something is definitely lost. But the question is whether that idea was alien to India in the first place.”

Watch a live discussion about the magazine’s India issue with editor-in-chief Ravi Agrawal here .

Indians bristle at reports of how their country has fallen in recent years on key markers of the health of its civil society. It is nonetheless worth contending with those assessments. According to Reporters Without Borders, India ranked 161st out of 180 countries for press freedom in 2023, down from 80th out of 139 countries in 2002. Freedom House, which measures democracy around the world, marked India as only “partly free” in its 2024 report, with Indian-administered Kashmir receiving a “not free” designation. Only a handful of countries and territories, such as Russia and Hong Kong, experienced a greater decline in freedom over the last decade than India. The World Economic Forum’s 2023 Global Gender Gap Index ranks India 127th out of 146 countries. The World Justice Project ranks India 79th out of 142 countries for adherence to the rule of law, down from 59th in 2015. As one legal scholar wrote in Scroll.in , the judiciary has “placed its enormous arsenal at the government’s disposal in pursuit of its radical majoritarian agenda.” Consider, as well, access to the web: India has administered more internet shutdowns than any country in the last decade, even more than Iran and Myanmar.

The social indicator that worries observers of India the most is religious freedom. Troubles between Hindus and Muslims are not new. But in its decade in power, Modi’s BJP has been remarkably successful in furthering its Hindu-first agenda through legislation. It has done so by revoking the semi-autonomous status of majority-Muslim Kashmir in 2019 and later that year—an election year—passing an immigration law that fast-tracked citizenship for non-Muslims from three neighboring countries, each of which has a large Muslim majority. (The law, which makes it more difficult for Indian Muslims to prove their citizenship, was implemented in March. The timing of this announcement seemed to highlight its electoral benefits.)

Perhaps more damaging than these legislative maneuvers has been the Modi administration’s silence, and often its dog whistles of encouragement, amid an increasingly menacing climate for Indian Muslims. While Nehru’s emphasis on secularism once imposed implicit rules in the public sphere, Hindus can now question Muslims’ loyalty to India with relative impunity. Hindu supremacy has become the norm; critics are branded “anti-national.” This dominance culminated on Jan. 22, when Modi consecrated a giant temple to the Hindu god Ram in the northern Indian city of Ayodhya. The temple, which cost $250 million to build, was constructed on the site of a mosque that was demolished by a Hindu mob in 1992. When that happened three decades ago, top BJP leaders recoiled from the violence they had unleashed. Today, that embarrassment has morphed into an expression of national pride. “It is the beginning of a new era,” said Modi, adorned in a Hindu priest’s garb at the temple’s opening, in front of an audience of top Bollywood stars and the country’s business elite.

“The BJP’s dominance is primarily demand-driven,” Sitapati said. “Progressives are in denial about this.”

Modi’s vision of what it means to be Indian is at least partly borne out in public opinion. When the Pew Research Center conducted a major survey of religion in India between late 2019 and early 2020, it found that 64 percent of Hindus believed being Hindu was very important to being “truly Indian,” while 59 percent said speaking Hindi was similarly foundational in defining Indianness; 84 percent considered religion to be “very important” in their lives; and 59 percent prayed daily. “The BJP’s dominance is primarily demand-driven,” said Sitapati, who also teaches law and politics at Shiv Nadar University Chennai. “Progressives are in denial about this.”

Sitapati has critics on the left who claim his scholarship underplays the militant roots of the BJP and RSS, helping to rehabilitate their image. But on the question of demand and supply: The BJP’s dominance is limited to the country’s north, where most people speak Hindi. In the wealthier south, where tech firms are flourishing, literacy rates are higher, and most people speak languages such as Tamil, Telugu, and Malayalam, the BJP is decidedly less popular. Southern leaders harbor a growing resentment that their taxes are subsidizing the Hindi Belt in the north. This geographic cleavage could come to a head in 2026, when a national process of redistricting is expected to take place. Opposition leaders fear the BJP could redraw parliamentary constituencies to its advantage. If the BJP succeeds, it could continue winning at the polls long beyond Modi’s time.

Despite all this, Sitapati contends that the country remains democratic: “Political participation is higher than ever. Elections are free and fair. The BJP regularly loses state elections. If your definition of democracy is focused on the sanctity of elections and the substance of policies, then democracy is thriving.” In Indian society, he said, culture is not centered on liberalism and individual rights; Modi’s rise must be viewed within that context.

Liberal Indians who might disagree are vanishing from the public eye. One clear exception is the Booker Prize-winning novelist Arundhati Roy. Speaking in Lausanne, Switzerland, last September, she described an India descending into fascism . The ruling BJP’s “message of Hindu supremacism has relentlessly been disseminated to a population of 1.4 billion people,” Roy said. “Consequently, elections are a season of murder, lynching, and dog-whistling. … It is no longer just our leaders we must fear but a whole section of the population.”

Is the mobilization of more than a billion Hindus a form of tyranny of the majority? Not quite, says Pratap Bhanu Mehta, an Indian political scientist who teaches at Princeton University. “Hindu nationalists will say that theirs is a classic nation-building project,” he said, underscoring how independent India is still a young country. Populism, too, is an unsatisfying term for describing Modi’s politics. Even though he plays up his modest background, he is hardly anti-elitist and in fact frequently courts top Indian and global business leaders to invest in the country. Sometimes, they directly finance Modi’s success: A 2017 provision for electoral bonds brought in more than $600 million in anonymous donations to the BJP. The Supreme Court scrapped the scheme in March, calling it “unconstitutional,” but the ruling is likely too late to have prevented the influence of big donors in this year’s election.

Mukul Kesavan, a historian based in New Delhi, argues that it would be more accurate to describe the BJP’s agenda as majoritarianism. “Majoritarianism just needs a minority to mobilize against—a hatred of the internal other,” he said. “India is at the vanguard of this. There is no one else doing what we are doing. I am continually astonished that the West doesn’t see this.”

What the West also doesn’t always see is that Modi is substantially different from strongmen such as Donald Trump in the United States. While Trump propagated an ideology that eclipsed that of the Republican Party, Modi is fulfilling the RSS’s century-old movement to equate Indianness more closely with Hinduism. Surveys and elections both reveal this movement’s time has come.

“People aren’t blinkered. They’re willing to accept trade-offs,” said Mehta, explaining how growing numbers of Indians have accepted the BJP’s premise of a Hindu state, even if there are elements of that project that make them uncomfortable. “They don’t think the majoritarian agenda presents a deal-breaker.” For now, at least. A key question is what happens when majoritarianism provokes something that challenges public acceptance of this trade-off. The greatest risk here lies in a potential surge of communal violence, the likes of which have pockmarked Indian history. In 2002, for example, 58 Hindu pilgrims were killed in Godhra, in the western state of Gujarat, after a train that was returning from Ayodhya caught fire. Modi, then chief minister of Gujarat, declared the incident an act of terrorism. After rumors circulated that Muslims were responsible for the fire, a mob embarked on three days of violence in the state, killing more than a thousand people. An overwhelming majority of the dead were Muslim. Modi has never been convicted of any involvement, but the tragedy has followed him in ways both damaging and to his advantage. Liberal Indians were horrified that he didn’t do more to stop the violence, but the message for a substantial number of Hindus was that he would stop at nothing to protect them.

Twenty-two years later, Modi is a mainstream leader catering to a national constituency that is much more diverse than that of Gujarat. While the riots once loomed large in his biography, Indians now see them as just one part of a complicated career in the public eye. What is unknown is how they might react to another mass outbreak of communal violence and whether civil society retains the muscle to rein in the worst excesses of its people. Optimists will point out that India has been through tough moments and emerged stronger. When Prime Minister Indira Gandhi declared a state of emergency in 1975, giving her the license to rule by decree, voters kicked her out of power the first chance they got. Modi, however, has a stronger grip on the country—and he continues to expand his powers while winning at the ballot box.

Prime Minister Narendra Modi greets a crowd in Varanasi, India, on March 4, 2022. Ritesh Shukla/Getty Images

Just as citizens can’t subsist purely on the ideals of secularism and liberalism, it’s the same with nationalism and majoritarianism. In the end, the state must deliver. Here, Modi’s record is mixed. “Modi sees Japan as a model—modern in an industrial sense without being Western in a cultural sense,” Sitapati said. “He has delivered on an ideological project that is Hindu revivalism mixed with industrialization.”

India is undertaking a vast national project of state-building under Modi. Since 2014, spending on transport has more than tripled as a share of GDP. India is currently building more than 6,000 miles of highways a year and has doubled the length of its rural road network since 2014. In 2022, capitalizing on a red-hot aviation market, New Delhi privatized its creaky national carrier, Air India. India has twice as many airports today than it did a decade ago, with domestic passengers more than doubling in quantity to top 200 million. Its middle classes are spending more money: Average monthly per capita consumption expenditure in urban areas rose by 146 percent in the last decade. Meanwhile, India is whittling down its infamous bureaucratic hurdles to become an easier place for industry. According to the World Bank’s annual Doing Business report, India rose from a rank of 134th in 2014 to 63rd in 2020. Investors seem bullish. The country’s main stock index, the BSE Sensex, has increased in value by 250 percent in the last decade.

Strongmen are usually more popular among men than women. It is a strange paradox, then, that the BJP won a record number of votes by women in the 2019 national election and is projected to do so again in 2024, as voter participation , and voting by women, continues to climb. Modi has targeted female voters through the canny deployment of services that make domestic life easier. Rural access to piped water, for example, has climbed to more than 75 percent from just 16.8 percent in 2019. Modi declared India free of open defecation in 2019 after a campaign to build more than 110 million toilets. And according to the International Energy Agency, 45 percent of India’s electricity transmission lines have been installed in the last decade.

The most transformative force in the country is the ongoing proliferation of the internet, as I wrote in my 2018 book, India Connected . Just as the invention of the car more than a century ago shaped modern America, with the corresponding building out of the interstate system and suburbia, cheap smartphones have enabled Indians to partake in a burgeoning digital ecosystem. Though it didn’t have much to do with the smartphone and internet boom, the government has capitalized on it. India’s Unified Payments Interface, a government-run instant payment system, now accounts for three-fourths of all non-cash retail transactions in the country. With the help of digital banking and a new national biometric identification system, New Delhi has been able to sidestep corruption by directly transferring subsidies to citizens, saving billions of dollars in wastage.

Modi is projecting an image of a more powerful, muscular, prideful nation—and Indians are in thrall to the self-portrait.

The private sector has been a willing participant in India’s new digital and physical economy. But it has also been strangely leery of investing more, as two leading economists describe in this issue. Businesses remain concerned that Modi has a cabal of preferred partners in his plans for industrialization—for example, he is seen as too cozy with the country’s two richest men, Mukesh Ambani and Gautam Adani, both of whom hail from his native state of Gujarat. Fears abound that New Delhi’s history of retroactive taxation and protectionism could blow up the best laid corporate plans.

Because he has corralled great power, when Modi missteps, the consequences tend to be enormous. In 2016, he suddenly announced a process of demonetization, recalling high-value notes of currency as legal tender. While the move attempted to reduce corruption by outing people with large amounts of untaxed income, it was in fact a stunt that reduced India’s growth by nearly 2 percentage points. Similarly, panicked by the onset of COVID-19 in 2020, Modi announced a sudden national lockdown, leading to millions of migrant workers racing home—and likely spreading the virus. A year later, New Delhi largely stood by when the delta variant of COVID-19 surged through the country, killing untold thousands of Indians. No amount of nationalism or pride could cover up for the fact that, on that occasion, the state had let its people down.

Now, with a population hungry for good news, India is looking to take advantage of the best foreign-policy deals. There are plenty to be struck in a shifting global order. The United States’ power is in relative decline, China’s has risen, and a range of so-called middle powers are looking to benchmark their status. Modi is projecting an image of a more powerful, muscular, prideful nation—and Indians are in thrall to the self-portrait.

Modi is seen through a video camera as he speaks at the final session of the G-20 summit in New Delhi on Sept. 10, 2023. Dan Kitwood/Getty Images

One window into India’s newfound status on the world stage came last September, after Canadian Prime Minister Justin Trudeau made the stunning announcement that Ottawa was investigating “credible allegations” that Indian government agents had orchestrated the murder of a Sikh community leader in British Columbia. New Delhi flatly denied his accusations, calling them “absurd.” The person who was killed, Hardeep Singh Nijjar, had sought to establish a nation called Khalistan, carved out of territory in his native Punjab, a state in northwestern India. In 2020, New Delhi declared Nijjar a terrorist.

A Canadian leader publicly accusing India of a murder on Canadian soil could have been a major embarrassment for Modi. Instead, the incident galvanized his supporters. The national mood seemed to agree with the government line that New Delhi didn’t do it but with an important subtext: If it did, it did the right thing.

“It’s this idea that ‘We have arrived. Now we can talk on equal terms to the white man,’” Sitapati said. It’s not just revisionism to examine how colonial powers masterminded the plunder of India’s land and resources; even the word “loot” is stolen from Hindi, as the writer and parliamentarian Shashi Tharoor has pointed out. The BJP’s project of nation-building attempts to reinstill a sense of self-pride, often by painting Hindus as the victims of centuries of wrongs but who have now awoken to claim their true status. This is why the Jan. 22 opening of the Ram temple took on epic significance, reviving among Hindus a sense that they were rightfully claiming the primacy they once enjoyed.

The flashier the stage, the better. For much of 2023, India flaunted its hosting of the G-20, a rotating presidency that most other countries see as perfunctory. For Modi, it became a marketing machine, with giant billboards advertising New Delhi’s pride in playing host (always alongside a portrait of the prime minister). When the summit began in September, TV channels dutifully carried key parts live, showing Modi welcoming a series of top world leaders.

Weeks earlier, Indians united around another celebratory moment. The country landed two robots on the moon, making it only the fourth country to do so and the first to reach the moon’s southern polar region. As TV channels ran a live broadcast of the landing, Modi beamed into mission control at the key moment of touchdown, his face on a split screen with the landing. The self-promotion can seem garish, but it feeds into a sense of collective accomplishment and national identity.

Also popular is New Delhi’s stance on Moscow, thumbing its nose at Western countries seeking to sanction Russia after its invasion of Ukraine. While Russia exported less than 1 percent of its crude to India before 2022, it now sends more than half of its supplies there. China and India are together purchasing 80 percent of Russia’s seaborne oil exports—and they do so at below-market rates because of a price cap imposed by the West. There is little consideration for morality, in part because Indians, like many in the global south, now widely perceive the West as applying double standards to world affairs. As a result, there’s no moral benchmark. For India, an advantageous oil deal is just that: good economics and smart politics. (India and Russia also share a historic friendship, which both sides are keen to continue.)

New Delhi’s growing foreign-policy assertiveness stems from a knowledge that it is increasingly needed by other countries. Allies seem aware of this new dynamic. For the United States, even if India doesn’t come to its aid in a potential tussle with China in the Taiwan Strait, merely preventing New Delhi from growing closer to Beijing represents a geopolitical win that papers over other disagreements. For other countries, access to India’s growing market is paramount. Despite the BJP’s hostility to Muslims, Modi receives a red-carpet welcome when he visits countries in the Persian Gulf.

India’s embrace of its strategic interests—and its confidence in articulating that choice—is of a piece with broader changes in how the country views itself. Modi and his BJP have succeeded in furthering an idea of India that makes a virtue of sacrificing Western liberalism for a homegrown sense of self-interest. By appealing to young people’s economic aspirations and their desire for identity in an increasingly interconnected world, the BJP has found room to advance a religious and cultural agenda that would have been unimaginable a generation ago. This vision cannot be purely top-down; the will of a nation evolves over time. In the future, there will likely be further contests among other ideas of India. But if Modi’s BJP continues to win at the ballot box, history may show that the country’s liberal experiment wasn’t just interrupted—it may have been an aberration.

Ravi Agrawal is the editor in chief of Foreign Policy . Twitter:  @RaviReports

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